जातक कथाएँ

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जातक कथाओं पर आधारित भूटानी चित्रकला (१८वीं-१९वीं शताब्दी)

जातक या जातक पालि या जातक कथाएं बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक का सुत्तपिटक अंतर्गत खुद्दकनिकाय का १०वां भाग है। इन कथाओं में भगवान बुद्ध की कथायें हैं। जो मान्यता है कि खुद गौतमबुद्ध जी के द्वारा कहे गए है, हालांकि की कुछ विद्वानों का मानना है कि कुछ जातक कथाएँ, गौतमबुद्ध के निर्वाण के बाद उनके शिष्यों द्वारा कही गयी है। विश्व की प्राचीनतम लिखित कहानियाँ जातक कथाएँ हैं जिसमें लगभग 600 कहानियाँ संग्रह की गयी है। यह ईसवी संवत से 300 वर्ष पूर्व की घटना है। इन कथाओं में मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।

जातक खुद्दक निकाय mushak seth ki kathaदसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जातक को वस्तुतः ग्रन्थ न कहकर ग्रन्थ समूह ही कहना अधिक उपयुक्त होगा। उसका कोई-कोई कथानक पूरे ग्रन्थ के रूप में है और कहीं-कहीं उसकी कहानियों का रूप संक्षिप्त महाकाव्य-सा है। जातक शब्द जन धातु से बना है। इसका अर्थ है भूत अथवा भाव। ‘जन्’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़कर यह शब्द निर्मित होता है। धातु को भूत अर्थ में प्रयुक्त करते हुए जब अर्थ किया जाता है तो जातभूत कथा एवं रूप बनता है। भाव अर्थ में प्रयुक्त करने पर जात-जनि-जनन-जन्म अर्थ बनता है। इस तरह ‘जातक’ शब्द का अ र्थ है, ‘जात’ अर्थात् जन्म-सम्बन्धीं। ‘जातक’ भगवान बुद्ध के पूर्व जन्म सम्बन्धी कथाएँ है। बुद्धत्व प्राप्त कर लेने की अवस्था से पूर्व भगवान् बुद्ध बोधिसत्व कहलाते हैं। वे उस समय बुद्धत्व के लिए उम्मीदवार होते हैं और दान, शील, मैत्री, सत्य आदि दस पारमिताओं अथवा परिपूर्णताओं का अभ्यास करते हैं। भूत-दया के लिए वे अपने प्राणों का अनेक बार बलिदान करते हैं। इस प्रकार वे बुद्धत्व की योग्यता का सम्पादन करते हैं। बोधिसत्व शब्द का अर्थ ही है बोधि के लिए उद्योगशील प्राणी। बोधि के लिए है सत्व (सार) जिसका ऐसा अर्थ भी कुछ विद्वानों ने किया है। पालि सुत्तों में हम अनेक बार पढ़ते हैं, ‘‘सम्बोधि प्राप्त होने से पहले, बुद्ध न होने के समय, जब मैं बोधिसत्व ही था‘‘ आदि। अतः बोधिसत्व से स्पष्ट तात्पर्य ज्ञान, सत्य दया आदि का अभ्यास करने वाले उस साधक से है जिसका आगे चलकर बुद्ध होना निश्चित है। भगवान बुद्ध भी न केवल अपने अन्तिम जन्म में बुद्धत्व-प्राप्ति की अवस्था से पूर्व बोधिसत्व रहे थे, बल्कि अपने अनेक पूर्व जन्मों में भी बोधिसत्व की चर्या का उन्होंने पालन किया था। जातक की कथाएँ भगवान् बुद्ध के इन विभिन्न पूर्वजन्मों से जबकि वे बोधिसत्व रहे थे , सम्बन्धित हैं। अधिकतर कहानियों में वे प्रधान पात्र के रूप में चित्रित है। कहानी के वे स्वयं नायक है। कहीं-कहीं उनका स्थान एक साधारण पात्र के रूप में गौण है और कहीं-कहीं वे एक दर्शक के रूप में भी चित्रित किये गये हैं। प्रायः प्रत्येक कहानी का आरम्भ इस प्रकार होता है-‘‘एक समय राजा ब्रह्मदत्त के वाराणसी में राज्य करते समय (अतीते वाराणसिंय बह्मदत्ते रज्ज कारेन्ते) बोधिसत्व कुरंग मृग की योनि से उत्पन्न हुए अथवा ... सिन्धु पार के घोड़ों के कुल में उत्पन्न हुए अथवा ..... बोधिसत्व ब्रह्मदत्त के अमात्य थे अथवा ..बोधिसत्व गोह की योनि सें उत्पन्न हुए आदि, आदि।

जातक की कहानियों में से कुछ का नामकरण तो जातक में आई हुई गाथा के पहले शब्दों से हुआ है, यथा-अपष्णक जातक; किसी का प्रधान पात्र के अनुसार, यथा वण्णुपथ जातक; किसी का उन जन्मों के अनुसार जो बोधिसत्व ने ग्रहण किये यथा, निग्रेध मिग जातक, मच्छ जातक, आदि।

नोट- मूलतः जातक कथाएँ बौद्ध कालीन भाषा (पाली भाषा) से अनुवादित है जिसके कुछ शब्द संस्कृत भाषा से मेल खाते है, अतः अनुवाद का अर्थ विभिन्न भी हो सकता है

जातकों की संख्या एवं रचनाकाल[संपादित करें]

सभी जातक कथाएं गौतमबुद्ध के द्वारा कही गयी है, जातक बुद्ध समयकालीन है, जातकों की निश्चित संख्या कितनी है, इसका निर्णय करना बड़ा कठिन है। लंका, बर्मा और सिआम में प्रचलित परम्परा के अनुसार जातक 550 हैं। समन्तपासादिका की निदान कथा में भी जातकों की संख्या इतनी ही बताई गई है। ‘‘पण्णासा धकनि पंचसतानि जातकंति वेदितब्बं।‘‘ अट्ठसालिनी की निदान कथा में भी -पण्णासाधिकानि पंचजातकसतानि‘‘ है। संख्या मोटे तौर पर ही निश्चित की गई है। जातक के वर्तमान रूप में 547 जातक कहनियाँ पाई जाती हैं। पर यह संख्या भी केवल ऊपरी है। जातकट्ठवण्णनाकार ने विषयवस्तु की दृष्टि से इन्हें पाँच वर्गों में विभाजित किया है-

  • 1. पच्चुपन्नवत्थु - बुद्ध की वर्तमान कथाओं का संग्रह है।
  • 2. अतीतवत्थु - इसमें अतीत की कथाँए संगृहीत है।
  • 3. गाथा
  • 4. वैय्याकरण - गाथाएँ व्याख्यायित की गई है।
  • 5. समोधन - इसमें अतीतवत्थु के पात्रों का बुद्ध के जीवनकाल के पात्रों से सम्बन्ध बताया गया है।

जातक की कई कहानियाँ अल्प रूपान्तर के साथ दो जगह भी पाई जाती है या एक दूसरे में समाविष्ट भी कर दी गई हैं, और इसी प्रकार कई जातक कथाएँ सुत्त-पिटक, विनय-पिटक, तथा अन्य पालि ग्रन्थों में तो पाई जाती है, किन्तु जातक के वर्तमान रूप में संगृहीत नहीं है। अतः जातकों की संख्या में काफी कमी की भी और बृद्धि की भी सम्भावना है। उदाहरणतः मुनिक जातक(30) और सालूक जातक(286) की कथावस्तु एक ही सी है, किन्तु केवल भिन्न-भिन्न नामों से वह दो जगह आई है। इसके विपरीत ‘मुनिक जातक’ नाम के दो जातक होते हुए उनकी भी कथा भिन्न-भिन्न है।

यही बात मच्छ जातक नाम से दो जातक की भी है। कही-कहीं दो स्वतन्त्र जातकों को मिलाकर एक तीसरे जातक का निर्माण कर दिया गया है। उदाहरण के लिए पंचपंडित जातक(508) और दकरक्खस जातक(517) ये दोनों जातक महाउमग्ग जातक(546) में अन्तर्भावित हैं। जो कथाएँ जातक-कथा के रूप में अन्यत्र पाई जाती हैं, किन्तु ‘जातक’ में संगृहीत नहीं है, उनका भी कुछ उल्लेख कर देना आवश्यक होगा। मज्झिम निकाय का घटिकार- सुत्त या घटीकार सुत्त (2/4/1) एक ऐसी ही जातक कहानी है, जो ‘जातक’ में नहीं मिलती। इसी प्रकार दीर्घनिकाय का महागोविन्द सुत्त(2/6) जो स्वयं जातक की निदान कथा में भी ‘महागोविन्द जातक’ के नाम से निर्दिष्ट हुआ है, जातक के अन्दर नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार धम्मपदट्ठकथा और मिलिन्द पंह में भी कुछ ऐसी जातक-कथाएँ उद्धृत की गई हैं, जो जातक में संगृहीत नहीं है।

अतः कुछ जातक निश्चित रूप से कितने है इसका ठीक निर्णय नहीं हो सकता। जब जातकों की संख्या के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो जातक से हमारा तात्पर्य एक विशेष शीर्षक वाली कहानी से होता है, जिसमें बोधिसत्व के जीवन-सम्बन्धी कि सी घटना का वर्णन हो, फिर चाहे उस एक जातक में कितनी ही अवान्तर कथाएँ क्यों न गूँथ दी गई हों। यदि कुल कहानियाँ गिनी जाय तो जातक में करीब तीन हजार कहानियाँ पाई जाती हैं। वास्तव में जातकों का संकलन सुत्त-पिटक और विनय-पिटक के आधार पर किया गया है। सुत्त -पिटक में अनेक ऐसी कथाएँ है जिनका उपयोग वहाँ उपदेश देने के लिए किया गया है। किन्तु बोधिसत्व का उल्लेख उसमें नहीं है। यह काम बाद में करके प्रत्येक कहानी को जातक का रूप दे दिया गया है। तित्तिर जातक(37) और दीघित कोसल जातक(371) का निमार्ण इसी प्रकार विनय-पिटक के क्रमशः चुल्लवग्ग और महावग्ग से किया गया है। मणिकंठ जातक(253) भी विनय-पिटक पर ही आधारित है। इसी प्रकार दीर्घ-निकाय के कूटदन्त सुत्त(1/5) और महासुदस्सन सुत्त(2/4) तथा मज्झिम निकाय के मखादेव सुत्त(2/4/3) भी पूरे अर्थों में जातक हैं। कम से कम 13 जातकां की खोज विद्वानों ने सुत्त पिटक और विनय-पिटक में की हैं। यद्यपि राजकथा चोर-कथा एवं इसी प्रकार की भय, युद्ध, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, स्त्री, पनघट, भूत-प्रेत आदि सम्बन्धी कथाओं को तिरश्चीन (व्यर्थ की, अधम) कथाएँ कहकर भिक्षु संघ में हेयता की दृष्टि से देखा जाता था। फिर भी उपदेश के लिए कथाओं का उपयोग भिक्षु लोग कुछ-न-कुछ मात्रा मेंं करते ही थे। स्वयं भगवान ने भी उपमाओं और दृष्टान्तों के द्वारा धर्म का उपदेश दिया है। बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र के द्वितीय परिवर्त (उपाय कौशल्य-परिवर्त) में भी कहा गया है कि बुद्ध अनेक दृष्टान्तों से (दृष्टान्तशतेहि) तथा जातक(पूर्वजन्म सम्बन्धी कथाओं) के द्वारा सब प्राणियों के कल्याणार्थ उपदेश करते हैं। बुद्ध के अलावा अन्य भारतीय सन्त भी उपनिषदों के काल से लेकर रामकृष्ण परमहंस के समय तक आख्यायिकाओं और दृष्टान्तों के सहारे धर्मोंपदेश करते रहे हैं। इसी प्रवृत्ति के आधार पर जातककथाओं का विकास हुआ है। जन समाज में प्रचलित कथाओं को भी कही-कहीं ले लिया गया है, किन्तु उन्हें एक नया नैतिक रूप दे दिया गया है, जो बौद्ध धर्म की एक विशेषता है। अतः सभी जातक कथाओं पर बौद्ध धर्म की पूरी छाप है। पूर्व परम्परा से चले आते हुए लोक-आख्यानों का आधार उनमें हो सकता है, पर उनका सम्पूर्ण ढाँचा बौद्ध धर्म के नैतिक आदर्श के अनुकूल है। बुद्ध वचनों का वर्गीकरण नौ अंगों के रूप में किया गया है, जिनके नाम हैं-

1. सुत्त 2. गेय 3. वेय्याकरण 4. गाथा 5. उदान 6. इतिक्तुक 7. जातक 8. अब्भुतधम्म और 9. वेदल्ल।
  • सुत्त (सूत्र) का अर्थ है सामान्यतः बुद्ध उपदेश। दीर्घ-निकाय सुत्त निपात आदि में गद्य में रखे हुए भगवान बुद्ध के उपदेश सुत्त हैं।
  • गेय्य (गेय)- पद्य मिश्रित अंश (सगाथकं) गे य्य कहलाते हैं। ‘‘सब्बं पि सगाथक सुत्तं गेय्यं वेदितब्बं।’’
  • वैय्याकरण (व्याकरण, विवरण, विवेचन) वह व्याख्यापरक साहित्य है, जो अभिधम्म-पिटक तथा अन्य ऐसे ही अंशों में सन्निहीत है।
  • पद्य में रचित अंग गाथा (पालि श्लोक) कहलाते हैं, यथा धम्मपद आदि की गाथाएँ।
  • उदान का अर्थ है बुद्ध मुख से निकले हुए भावमय प्रीति-उद्गार या ऊर्ध्व वचन। ये उद्गार सौमनस्य की अवस्था में बुद्ध मुख से निकली हुई ज्ञानमयिक गाथाओं के रूप में है। ‘‘सोमनस्संनाणमयिक गाथापटि संयुत्ता।‘‘
  • इतिवुत्तक का अर्थ है- ‘ऐसा कहा गया या ऐसा तथागत ने कहा।' ‘‘वुत्त हेतं भगवता‘‘ से आरम्भ होने वाले बुद्ध वचन इतिवुत्तक है।
  • जातक का अर्थ है- (बुद्ध के पूर्व) जन्म सम्बन्धी कथाएँ। ये जातक में संगृहीत है और कुछ अन्यत्र भी त्रिपिटक में पाई जाती है।
  • अब्भुत-धम्म (अद्भुत धर्म) वे सुत्त हैं, जो अद्भुत वस्तुओं या योग सम्बन्धी विभूतियों का निरूपण करते हैं। अंगुत्तर निकाय के ‘‘चत्तारों में भिक्खवे अच्छ रिया अब्भुत धम्मा आनन्दे‘‘ जैसे अंश ‘अब्भुतधम्म’ है।
  • वेदल्ल वे उपदेश हैं जो प्रश्न और उत्तर के रूप में लिखे गये हैं, जिनमें आध्यात्मिक प्रसन्नता और सन्तोष प्राप्त कर के प्रश्न पूछे जायँ। ‘‘सब्बे पि वेदं च तुटिठं च लुद्धा पुचिछतसुत्तन्ता वेदल्लं ति वेदितब्बा।‘‘ चुल्ल वेदल्ल सुत्तन्त महा वेदल्ल सुत्तन्त, सम्मादिट्ठि सुत्तन्त, सक्कपंह सुत्तन्त आदि इसके उदाहरण है।

बुद्ध वचनों का यह नौ प्रकार का विभाजन उनके शैली स्वरूपों या नमूनों की दृष्टि से ही है, ग्रन्थों की दृष्टि से नहीं। इतने प्रकार के बुद्ध उपदेश होते थे, यही इस वर्गीकरण का अभिप्राय है। बुद्ध वचनों का नौ अंगों में विभाजन जिनमें जातक की संख्या सातवीं है, अत्यन्त प्राचीन है। अतः जातक कथाएँ सर्वांश में पालि-साहित्य के महत्वपूर्ण एवं आवश्यक अंग हैं। उनकी संख्या के विषय में अनिश्चितता विशेषतः उनके समय-समय पर सुत्त पिटक और विनय-पिटक तथा अन्य श्रोतों से संकलन के कारण और स्वयं पालि पिटक के नाना वर्गीकरणों और उनके परस्पर संमिश्रण के कारण उत्पन्न हुई है। चुल्ल निद्देस में हमें केवल 500 जातकों का (पंच जातक सतानि) का उल्लेख मिलता है। चीनी यात्री फाह्यान ने पाँचवी शताब्दी ईसवी में 500 जातकों के चित्र लंका में अंकित हुए देखे थे। द्वितीय तृतीय शताब्दी ईस्वी पूर्व के भरहुत और साँची के स्तूपों में जातकों के चित्र अंकित मिले हैं। जिनमें से कम से कम 27 या 29 जातकों के चित्रों की पहचान रायस डेविड्स ने की थी। तब से कुछ अन्य जातक कहानियों की पहचान भी इन स्तूपों की पाषाण-वेष्टनियों पर की जा चुकी हैं। ये सब तथ्य जातक की प्राचीनता और उसके विकास के सूचक हैं।

स्थविरवादी पालि साहित्य के समान संस्कृत बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी जातक कथाएँ पाई जाती हैं। पालि के नवांग बुद्ध वचन की तरह यहाँ द्वाद श अंग धर्मप्रवचन माने गये हैं। इन दोनों ही जगह जातक एक अंग या धर्म-प्रवचन के भाग के रूप में विद्यमान है। बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ जातकमाला में जो आर्यशूर की रचना बताई जाती है 34 जातक कथाएँ मिलती है। आर्यशूर को लामा, तारनाथ ने अश्वघोष का ही दूसरा नाम बताया है परन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता है। सम्भवतः वे चतुर्थ शताब्दी ईसवी के कवि थे। लोकोत्तरवादियों के प्रसिद्ध ग्रन्थ महावस्तु में जो 200 ई0 पूर्व से 400 ई0 तक के बीच के काल में लिखी गई, करीब 80 जातक कथाएँ मिलती है। इसमें से कुछ पालि जातक के समान हैं और कु छ ऐसी भी हैं, जो पालि जातक में नहीं पाई जाती।

रायस डेविड्स का कथन है कि जातक का संकलन और प्रणयन मध्य देश में प्राचीन जनकथाओं के आधार पर हुआ। विण्टरनित्ज ने भी प्रायः इसी मत का प्रतिपादन किया है। अधिकांश जातक बुद्धकालिन है। साँची और भरहुत के स् तूपों की पाषाण-वेष्टनियों पर उनके दृश्यों का अंकित होना उनके पूर्व अशोककालीन होने का पर्याप्त साक्ष्य देता है। जातक के काल और कर्तृत्व के सम्बन्ध में अधिक प्रकाश उसके साहित्यिक रूप और विशेषताओं के विवेचन से पड़ेगा। प्रत्येक जातक कथा पाँच भागों में विभक्त है।

1 . पंचुप्पन्नवत्थु 2 . अतीतवत्थु 3 . गाथा 4 . वेय्याकरण या अत्यवण्णना और 5 . समोधन।

पंचुप्पन्नवत्थु का अर्थ है वर्तमान काल की घटना या कथा। बुद्ध के जीवन काल में जो घटना घटी वह पच्चुप्पन्नवत्थु है। उस घटना ने भगवान को किसी पूर्वजन्म के वृत् त को कहने का अवसर दिया। यह पूर्वजन्म का वृत्त ही अतीतवत्थु है। प्रत्येक जातक का कथा की दृष्टि सबसे अधिक महत्वपूर्ण भाग यह अतीतवत्थु ही है। इसी के अनुकूल पच्चप्पन्नवत्थु कहीं-कहीं गढ़ ली गई प्रतीत होती है। अतीतवत्थु के बाद एक या अनेक गाथाएँ आती हैं। इनका सम्बन्ध वैसे तो अतीतवत्थु से ही होता है, किन्तु कहीं-कहीं पच्चप्पन्नवत्थु से भी होता है। गाथाएँ जातक के प्राचीनतम अंश हैं। वास्तव में गाथाएँ ही जातक हैं। पच्चुप्पन्नवत्थु आदि पाँच भागों से समन्वित जातक तो वास्तव में जातकट्ठवण्णना या जातक में वेय्याकरण या अत्थव ण्णना आती है। इसमें गाथाओं की व्याख्या और उनका शब्दार्थ होता है। सबसे अन्त में समोधन(समवधान) आता है, जिसमें अतीतवत्थु के पात्रों का बुद्ध के जीवन काल के पात्रों के साथ सम्बन्ध मिलाया जाता है, यथा उस समय अटारी पर से शिकार खेलने वाला शिकारी अब का देव दत्त था और कुरूंग मृग तो मैं था ही, आदि आदि।

जातक मेंं बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ संगृहीत है जबकि उन्होंने बोधिसत्व के रूप में विभिन्न पारमिताएँ पूरी कीं और बुद्धत्व के लिए योग्यता सम्पादित की। सुत्त-पिटक के प्रथम चार निकायों में बुद्ध के ऐतिहासिक रूप की ही प्रतिष्ठा है। बाद में जातक में (तथा बुद्धवंस और चरिया-पिटक में) उनके ऐतिहासिक जीवन को पूर्व की कथाओं से सम्बद्ध कर दिया पाते हैं। जातकट्ठकथा की निदान कथा में बुद्ध जीवन के तीन निदान बताये गये हैं, दूरे निदान में अत्यन्त दूर अतीत की बुद्ध जीवन की कथा है, ऐसा माना जाता है कि अत्यन्त सुदूर अतीत में बुद्ध सुमेध तपस्वी बनकर उत्पन्न हुए थे। उस समय उन्होंने दीपंकर बुद्ध में बड़ी निष्ठा दिखाई जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने उन्हें आगे चलकर बुद्ध होने का आशीर्वाद दिया। अनेक जन्मों तक विभिन्न शरीर धारण करते हुए सुमे ध तपस्वी की साधना चलती रही। अन्त में वेस्सन्तर राजा के रूप में शरीर त्याग कर वे तुषित लोक में गये। सुमेध तपस्वी के रूप से लेकर तुषित लोक में जाने तक की बुद्ध की यह साधना कथा दूर निदान के अन्तर्गत है। 547 जातक कथाएँ अपण्णक जातक से लेकर वेस्सन्तर जातक तक बुद्ध जीवनी के इस दूरे निदान से ही सम्बन्धित है। इन कथाओं से यहाँ तात्पर्य है इनमें वर्णित अतीतवत्थु। इनका सम्बन्ध बुद्ध की जीवन-कथा के दूरे निदान से है अर्थात् ये बहुत दूर अतीत की कथाएँ हैं। लुम्बिनी वन में जन्म लेने के समय से लेकर बोधि-प्राप्ति तक की कथा अविदूरे निदान से सम्बन्धित है। अर्थात वह इतने दूर अतीत की नहीं है। बोधि प्राप्ति से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक की बुद्ध जीवनी सन्तिके निदान के अन्तर्गत है। अर्थात वह समीप की है। जातक की पच्चुप्पन्नवत्थु में इसके कुछ अंश प्रस्तावना रूप में आते हैं। जातक की कहानियों में अतीतवत्थ में बुद्ध जीवनी के दूरे निदान के अन्दर समाविष्ट उनके पूर्व जन्मों की कहानियाँ आती है। ऐतिहासिक बुद्ध के जीवन की किसी घटना का उल्लेख कर इन दूरे निदान की कथाओं के कहने के लिए अवकाश निकाल लिया गया है। जो हो वास्तव में जातक का निर्माण करती है।

प्रत्येक जातक के पाँच अंगों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जातक गद्य-पद्य मिश्रित रचनाएँ हैं। गाथा (पद्य) भाग जातक का प्राचीनतम भाग माना जाता है। त्रिपिटक के अन्तर्भूत इस गाथा भाग को ही मानना अधिक उपयुक्त होगा। शेष सब अट्ठकथा है। परन्तु जातक-कथाओं की प्रकृति ऐसी है कि मूल को व्याख्या से अलग कर देने पर कुछ भी समझ में नहीं आ सकता। केवल गाथाएँ कहानी का निर्माण नहीं करती। उनके ऊपर जब वर्तमान और अतीत की घटनाओं को ढाँचा चढ़ाया जाता है तभी कथावस्तु का निर्माण होता है। अतः पूरे जातक में उपर्युक्त पाँच अवयवों का हाना आवश्यक है जिसमें गाथा-भाग को छोड़कर शेष सब उसकी व्याख्या है बाद का जोड़ा हुआ है। फिर भी सुविधा के लिए और ऐतिहासिक दृष्टि से गलत ढंग पर हम उसकों जातक कह देते हैं। वास्तव में 547 जातक कथाओं के संग्रह को जो उपर्युक्त पाँच अंगों से समन्वित है, हमें जातक न कहकर जातकट्ठवण्णना (जातक के अर्थ की व्याख्या) या जातकटठकथा ही कहना चाहिए। फॉसबाल और कॉवल ने जिसका क्रमशः रोमन लिपि में और अंग्रेजी में सम्पादन और अनुवाद किया है या हिन्दी में भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने ‘जातक’ शीर्षक से 6 भागों में अनुवा द किया है, वह वास्तव में जातक न होकर जातक की व्याख्या है। जातक कथाएँ तो मूल रूप में केवल गाथाएँ है, शेष भाग उसकी व्याख्या है।

गाथा और जातक के शेष भाग का कालक्रम आदि की दृष्टि से क्या पारस्परिक सम्बन्ध है यह प्रश्न सामने आता है। अटठ्कथा में गाथा-भाग को अभिसम्बुद्ध गाथा या भगवान् बुद्ध द्वारा भाषित गाथाएँ कहा गया है। वे बुद्धवचन हैं। अतः वे तिपिटक के अंगभूत थी और उनकों वहाँ से संकलित कर उनके ऊपर कथाओं का ढाँचा प्रस्तुत किया गया है। सम्पूर्ण जातक ग्रन्थ की विषयवस्तु का जिस आधार पर वर्गीकरण हुआ है, उससे भी यही स्पष्ट है कि गाथा-भाग, या जिसे पिण्टरनित्ज आदि विद्वानों ने गाथा-जातक कहा है, वहीं उसका मूलाधार है। जातक ग्रन्थ का वर्गीकरण विषय-वस्तु के आधार पर न होकर गाथाओं की संख्या के आधार पर हुआ है। थेर-थेरी गाथाओं के समान वह भी निपातों में विभक्त है। जातक में 22 निपात हैं। पहले निपात में 150 ऐसी कथाएँ है जिनमें एक की एक गाथा पाई जाती है। दूसरे निपात में भी 150 जातक कथाएँ है किन्तु यहाँ प्रत्येक कथा में दो-दो गाथाएँ पाई जाती हैं। इसी प्रकार तीसरे और चौथे निपात में पचास-पचास कथाएँ है और गाथाओं की संख्या क्रमशः तीन-तीन और चार-चार है। आगे भी तेरहवें निपात तक प्रायः यही क्रम चलता है। चौदहवें निपात का नाम पकिण्णक निपात है। इस निपात में गाथाओं की संख्या नियमानुसार 14 न होकर विविध है। इसलिए इसका नाम पकिण्णक (प्रकीर्णक) रख दिया गया है। इस निपात में कुछ कथाओं में 10 गाथाएँ भी पाई जाती है और कुछ में 47 तक भी पाई जाती है। आगे के निपातों में गाथाओं की संख्या निरन्तर बढ़ती गई है। पन्द्रहवें निपात का शीर्षक है वीस निपात, सोलहवें का तिंस निपात, सत्रहवें का चत्तालीस निपात, अट्ठारहवें का पण्णास निपात ,उन्नीसवें का सठ्ठि निपात, बीसवें का सत्ततिनिपात और इक्कीसवें का असीतिनिपात। बाइसें निपात में केवल दस जातक कथाएँ है किन्तु प्रत्येक में गाथाओं की संख्या सौ से भी ऊपर है। अन्तिक जातक (वेस्सन्तर जातक) में तो गाथाओं की संख्या सात सौ से भी ऊपर है।

इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि जातक कथाओं की आधार गाथाएँ ही है। स्वयं अनेक जातक कथाओं के वेय्याकरण भाग में पालि और अट्ठकथा के बीच भेद दिखाया गया है, जैसे कि पलि सुत्तों की अन्य अनेक अट्ठकथाओं तथा विसुद्धिमग्गों आदि ग्रन्थों में भी। जहाँ तक जातक के वेय्याकरण भाग से सम्बन्ध है, वहाँ पालि का अर्थ तिपिटक गत गाथा ही हो सकता है। भाषा के साक्ष्य से भी गाथा भाग अधिक प्राचीनता का द्योतक है अपेक्षाकृत गद्य भाग के। पिण्टरनित्ज ने कहा है जातक की सम्पूर्ण गाथाओं को तिपिटक का मूल अंश नहीं माना जा सकता है। उनमें भी पूर्वापर भेद है। स्वयं जातक के वर्गीकरण से ही यह स्पष्ट है। चौदहवें निपात (पकिण्णक निपात) में प्रत्येक जातक कथा की गाथाओं की संख्या नियमानुसार 14 न होकर कही-कहीं बहुत अधिक है। इसी प्रकार बीसवें निपात (सत्तति निपात) में उसकी दो जातक कथाओं की संख्या सत्तर-सत्तर न होकर क्रमशः 92 और 93 है। इस सबसे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि जातक का गाथाओं अथवा गाथा जातक की मूल संख्या निपात के शीर्षक की संख्या के अनुकूल ही होगी। और बाद में उसका संवर्द्धन किया गया है। अतः कुछ गाथा एँ अधिक प्राचीन है और कुछ अपेक्षाकृत कम प्राचीन है। इसी प्रकार गद्य भाग भी कुछ अत्यन्त प्राचीनता के लक्षण लिए हुए है और कुछ अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। किसी-किसी जातक में गद्य और गाथा भाग में साम्य भी नहीं दिखाई पड़ता और कही-कहीं शैली में भी बड़ी विभिन्नता है। इस सबसे जातक के संकलनात्मक रूप और उसके भाषारूप की विविधता पर प्रकाश पड़ता है जिसमें कई रचयिताओं या संकलनकर्ताओं और कई शताब्दियों का योग रहा है।

जातक की गाथाओं की प्राचीनता तो निर्विवाद है ही, उसका अधिकांश गद्य भाग भी अत्यन्त प्राचीन है। भरहुत और साँची के स्तूपों की पाषाण वेष्टनियों पर जो चित्र अंकित है वे जातक के गद्य भाग से ही सम्बन्धित हैं। अतः जातक का अधिकांश गद्य-भाग जो प्राचीन है, तृतीय, द्वितीय शताब्दी ईसवी पूर्व में इतना लोकप्रिय तो होना हीं चाहिए कि उसे शिल्प कला का आधार बनाया जा सके। अतः सामान्यतः हम जातक को बुद्धकालीन भारतीय समाज और संस्कृति का प्रतीक मान सकते हैं। उसमें कुछ लक्षण और अवस्थाओं के चित्रण प्राग-बुद्धकालीन भारत के भी हैं और कुछ बुद्ध के काल के बाद के भी है। जहाँ तक गाथाओं की व्याख्या और उनके शब्दार्थ का सम्ब न्ध है, वह सम्भवतः जातक का सब से अधिक अर्वाचीन अंश है। इस अंश के लेखक आचार्य बुद्ध घोष माने जाते है। ‘गन्धवंस’ के अनुसार आचार्य बुद्धघोष ने ही ‘जातकट्ठण्णना’ की रचना की, किन्तु यह सन्दिग्ध है। भाषाशैली की भिन्नता दिखाते हुए और कुछ अन्य निषेधात्मक कारण देते हुए डॉ॰ टी. डब्ल्यू रायस डेविड्स ने बुद्धघोष को जातकट्ठवण्णना का रचयिता या संकलनकर्ता नहीं माना है। स्वयं जातकट्ठकथा के उपोद्घात में लेखक ने अपना परिचय देते हुए कहा है ‘‘ ....शान्तचित्त पण्डित बुद्धमित्त भिक्षु बुद्धदेव के कहने से ........ व्याख्या करूँगा। महिशासक सम्प्रदाय महाविहार की परम्परा से भिन्न एक बौद्ध सम्प्रदाय था। बुद्धघोष ने जितनी अट्ठकथाएँ लिखी है, शुद्ध महाविहारवासी भिक्षुओं की उपदेश विधि पर आधारित हैं। अतः जातकट्ठकथा के लेखक को आचार्य बुद्धघोष से मिलाना ठीक नहीं। सम्भवतः यह कोई अन्य सिंहली भिक्षु थे, जिनका काल पाँचवीं शताब्दी ईसवी माना जा सकता है।

कुछ जातकों का संक्षिप्त परिचय[संपादित करें]

जातक-कथाएँ भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों से सम्बन्धित हैं। बोधिसत्व की चर्याओं का उनमें वर्णन है। अतः वे सभी प्रायः उपदेशात्मक है। परन्तु उनका साहित्यिक रूप भी निखरा हुआ है। उपदेशात्मक होते हुए भी वे पूरे अर्थों में कलात्मक है। जातक के आदि में निदान-कथा (उपोद्घात) है, जिसमे भगवान् बुद्ध के पहले 24 बुद्धों के विवरण के साथ-साथ भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लेतवन विहार के दान की स्वीकृति तक दी गई है। कुछ जातक कथाओं का सारांश तथा उनकी विषय-वस्तु का रूप निम्नलिखित इस प्रकार स्पष्ट है।

अपण्णक जातक व्यापार के लिए जाते हुए दो बनजारों की कथा है। एक दैत्यों के हाथ मारा गया, दूसरा बुद्धिमान होने के कारण अपने पाँच सौ साथियों सहित सकुशल घर लौट आया।

कण्डिन जातक (कण्डि जातक-13) कामुकता के कारण एक मृग शिकारी के हाथों मारा गया।

मखादेव जातक (9) - सिर के सफेद बाल देखकर राजा सिंहासन छोड़ कर वन चला गया।

सम्मोदमान जातक (33) - एक मत बटेरों का चिड़ीमार कुछ न बिगाड सका, परन्तु जब उनमें फूट पड़ गई तो सभी चिड़िमार के जाल में फँस गये।

तित्तिर जातक (37)-बन्दर, हाथी और तित्तिर ने आपस में विचार कर निश्चय किया कि जो ज्येष्ठ हो उसका आदर करना चाहिए।

बक जातक (9)-बगुले ने मछलियों को धोखा दे देकर एक-एक को ले जाकर मार खाया। अंत में वह एक केकड़े के हाथ से मारा गया।

कण्ह जातक (29)-एक बैल ने अपनी बु़ढ़ या माँ को जिसने उसे पाला था, मजदूरी से कमाकर हक हजार कार्षापण ला कर दिये।

वेकुक जातक (43) - तपस्वी ने साँप के बच्चे को पाला जिसने उसे डँस कर मार डाला।

रोहिणी जातक (45)-रोहिणी नामक दासी ने अपनी माता के सिर की मक्खियाँ हटाने के लिए जाकर माता को मार डाला।

वानरिन्द जातक (57)-मगरमच्छ अपनी स्त्री के कहने से वानर का हृदय चाहता था। वानर अपनी चतुरता से बच निकला।

कुद्दाल जातक (70)-कुद्दाल पंडित कुद्दाल के मोह में पड़कर छह बार गृहस्थ और प्रव्रजित हुआ।

सीलवनागराज जातक (72)-वन में रास्ता भूले हुए एक आदमी की हाथी ने जान बचाई।

खरस्सर जातक (79)-गाँव का मुखिया चोरों से मिलकर गाँव लुटवाता था।

नामसिद्धि जातक (97)-पापक नामक विद्यार्थी एक अच्छे नाम की तलाश में बहुत घूमा। अन्त में यह समझकर कि नाम केवल बुलाने के लिए होता है वह लौट आया।

अकालरावी जातक (119)-असमय शोर मचाने वाला मुर्गा विद्यार्थियों द्वारा मार डाला गया।

विळारवत जातक (128)- धर्म का ढोंग कर गीदड़ चूहों को खाता था।

गोध जातक (141)-गोह की गिरगिट के साथ मित्रता उसके कुल विनाश का कारण हुई।

विरोजन जातक (143)-गीदड़ ने शेर की नकल करके पराक्रम दिखाना चाहा। हाथी ने उसे पाँव से रौंद कर उस पर लीद कर दी।

गुण जातक (157)-दलदल में फसे सिंह को सियार ने बाहर निकाला।

मक्कट जातक (173)-बन्दर तपस्वी का वेश बना कर आया।

आदिच्चुपट्ठान जातक (175)-बन्दर ने सूर्य की पूजा करने का ढोंग बनाया।

कच्छप जातक (178)-जन्मभूमि के मोह के कारण कछुए की जान गई।

गिरिदत्त जातक(184) -शिक्षक के लँगड़ा होने के कारण घोड़ा लँगड़ा कर चलने लगा।

सीहचम्म जातक (189)-सिंह की खाल पहनकर गधा खेत चरता रहा, किन्तु बोलने पर मारा गया।

महापिंगल जातक (240)-राजा मर गया फिर भी द्वारपाल को भय था कि अत्याचारी राजा यमराज के पास से कहीं लौट न आवे।

आरामदूसक जातक (46 तथा 28)-बन्दरों ने पौधों को उखाड़ कर उनकी जड़ें नाप-नाप पर पानी सींचा।

कुटिदूसक जातक (321)-बन्दर ने बये के सदुपदेश को सुन कर उसका घोसलां नोच डाला।

बावेरू जातक (339)-बावेरू राष्ट्र में कौआ सौ कार्षापण में और मोर एक हजार कार्षापण में बिका।

वानर जातक (342)-मगरमच्छनी ने बन्दर का हृदय-मांस खाना चाहा।

सन्धिभेद जातक - गीदड़ ने चुगली कर सिंह और बैल को परस्पर लड़वा दिया आदि आदि।

कथावस्तु एवं शैली[संपादित करें]

जातक कथाओं का रूप लोक-साहित्य का है। उसमें पशु-पक्षियों आदि की कथाएँ भी है और मनुष्यों की भी है। जातकों के कथानक विविध प्रकार के हैं। विण्टरनित्ज ने मुख्यतः सात भागों मेंं उनका वर्गीकरण किया है-

  • 1. व्यावहारिक नीति-सम्बन्धी कथाएँ
  • 2. पशुओं की कथाएँ
  • 3. हास्य और विनोद से पूर्ण कथाएँ
  • 4. रोमांचकारी लम्बी कथाएँ या उपन्यास
  • 5. नैतिक वर्णन
  • 6. कथन मात्र, और
  • 7. धार्मिक कथाएँ

वर्णन की शैलियाँ भी भिन्न-भिन्न है। विण्टरनित्ज ने इनका वर्गीकरण पाँच भागों में इस प्रकार किया है।

  • 1. गद्यात्मक वर्णन
  • 2. आख्यान, जिसके दो रूप हैं-
  • (अ) संवादात्मक, और
  • (आ) वर्णन और संवादों का सम्मिश्रित रूप।
  • 3. अपेक्षाकृत लम्बे विवरण-जिनका आदि गद्य से होता है, किन्तु बाद में जिनमें गाथाएँ भी पाई जाती है।
  • 4. किसी विषय पर कथित वचनों का संग्रह
  • 5. महाकाव्य या खण्डकाव्य के रूप में वर्णन।

वानरिन्द जातक(57) विलारवत जातक(128) , सीहचम्म जातक(189), सुंसुमार जातक(208), और सन्धिभेद जातक(349) आदि। जातक कथाएँ पशु-कथाएँ है। ये कथाएँ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विशेषतः इन्हीं कथाओं का गमन विदेशों में हुआ है। व्यंग्य का पुट भी यहाँ अपने काव्यात्मक रूप से दृष्टिगोचर होता है। प्रायः पशुओं की तुलना में मनुष्यों को हीन दिखाया गया है। एक विशेष बात यह है कि व्यंग्य किसी व्यक्ति पर न कर सम्पूर्ण जाति पर किया गया है।

एक बन्दर कुछ दिनों के लिए मनुष्यों के बीच आकर रहा। बाद में अपने साथियों के पास जाता है। साथी पूछते है-‘‘मनुष्यों के समाज में रहे है। उनका बर्ताव जानते हैं। हमें भी कहें। हम उसे सुनना चाहते हैं।‘‘ मनुष्यों की करनी मुझसे मत पूछो। कहे, हम सुनना चाहते हैं। बन्दर ने कहना शुरू किया,‘‘ हिरण्य मेरा! सोना मेरा! यही रात दिन वे चिल्लाते है। घर में दो लोग रहते हैं। एक को मूँछ नहीं होती। उसके लम्बे केश होते है, वेणी होती है और कानों में छेद होते हैं। उसे बहुत धन से खरीदा जाता है। वह सब जनों को कष्ट देता है।‘‘ बन्दर कह ही रहा था कि उसके साथियों ने कान बन्द कर लिए‘‘ मत कहें मत कहें‘‘। इस प्रकार के मधुर और अनूठे व्यंग्य के अनेकों चित्र जातक में मिलेगें। विशेषतः मनुष्य के अहंकार के मिथ्यापन के सम्बन्ध में मर्मस्पर्शी व्यंग्य। महापिंगल जातक(240) में, ब्राह्मणों की लोभवृत्ति के सम्बन्ध में सिगाल जातक(113) में एक अति बुद्धिमान तपस्वी के सम्बन्ध में, अवारिय जातक (376)में है। सब्बदाठ नामक श्रृंगाल सम्बन्धी हास्य और विनोद भी बड़ा मधुर है (सब्बदाठ जातक 241) और इसी प्रकार मक्खी हटाने के प्रयत्न में दासी का मूसल से अपनी माता को मार देना (रोहिणी जातक 45) और बन्दरों का पौधों का उखाड़ कर पानी देना भी मधुर विनोद से भरे हुए हैं।

इसी प्रकार रोमांच के रूप में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि नाटकीय आख्यान के रूप में छदन्त जातक (514) आदि, एक ही विषय पर कहे हुए कथनों के संकलन के रूप में कुणाल जातक (536) आदि, संक्षिप्त नाटक के रूप में उम्मदन्ती जातक (527) आदि, नीतिपरक कथाओं के रूप में गुण जातक (157) आदि, पूरे महाकाव्य के रूप में पेस्सन्तर जातक (547) आदि एवं ऐतिहासिक संवादों के रूप में संकिच्च जातक (530) और महानारदकस्सप जातक (544) आदि। अनेक प्रकार के वर्णनात्मक आख्यान जातक में भरे पड़े हैं, जिनकी साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त रूप में भी नहीं किया जा सकता।

साहित्य और सभ्यता के इतिहास में जातक का स्थान[संपादित करें]

बुद्धकालीन भारत के समाज, धर्म, राजनीति, भूगोल, लौकिक विश्वास, आर्थिक एवं व्यापारिक अवस्था एवं सर्वाधिक जीवन की पूरी सामग्री हमें जातक में मिलती है। जातक केवल लोक-कथाओं का प्राचीनतम संग्रह भर नहीं हैं। बौद्ध साहित्य में तो उसका स्थान सर्वमान्य है ही। स्थविरवाद के समान महायान में भी उसकी प्रभूत महत्ता है, यद्यपि उसके रूप के सम्बन्ध में कुछ थोड़ा बहुत परिवर्तन है। बौद्ध साहित्य के समान समग्र भारतीय-साहित्य में और इतना ही नहीं, समग्र विश्व-साहित्य में जातक का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता के एक युग का ही वह निदर्शक नहीं है, बल्कि उसके प्रसार की एक अद्भूत गाथा भी जातक में समाये हुए हैं। विशेषतः भारतीय इतिहास में जातक के स्थान को कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं ले सकता। बुद्धकालीन भारत के सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक जीवन को जानने के लिए जातक एक उत्तम साधन हैं। चूँकि उसकी सूचना प्रासंगिक रूप से ही दी गई है इसलिए वह और भी अधिक प्रामाणिक हैं और महत्वपूर्ण भी। जातक के आधार पर यहाँ बुद्धकालीन भारत का संक्षिप्ततम विवरण भी नहीं दिया जा सकता। जातक की निदान-कथा में हम तत्कालीन भारतीय भूगोल सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचना पाते हैं। जातक में कहा गया है कि जम्बुदीप (भारत) का विस्तार दस हजार योजन है। मध्य प्रदेश की सीमाओं का उल्लेख वहाँ इस प्रकार किया गया है,‘‘मध्य देश की पूर्व दिशा में कजंगला नामक कस्बा है, उसके बाद बड़े शाल के वन है औ र फिर आगे सीमान्त देश। पूर्व-दक्षिण में सललवती नामक नदी है उसके आगे सीमान्त देश। दक्षिण-दिशा में सेतकण्णिक नामक कस्बा है, उसके आगे सीमान्त देश। पश्चिम दिशा में थूण नामक ब्राह्मण ग्राम है, उसके बाद सीमान्त देश। उत्तर दिशा में उशीरध्वज नामक पर्वत है, उसके बाद सीमान्त देश।‘‘

यह वर्णन यहाँ विनय-पिटक से लिया गया है और बुद्ध कालीन मध्य देश की सीमाओं का प्रामाणिक परिचायक माना जाता है। जातक के इसी भाग में नेरंजना अनोमा आदि नदियों, पाण्डव पर्वत, वैभार गिरि गयासीस आदि पर्वतों उरूवेला, कपिलवस्तु, वाराणसी, रा जगृह, लुम्बिनी, वैशाली, श्रावस्ती आदि नगरों और स्थानों एवं उत्कल देश (उड़ीसा) का तथा यष्टिवन (लटिठवन) आदि वनों का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण कोसल और मगध का तो उसके ग्रामों, नगरों, नदियों, और पर्वतों के सहित वह पूरा वर्णन उपस्थित करता है। सोलह महाजनपदों- अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरू, पांचाल, मच्छ (मत्स्य),सूरसेन (शूरसेन), अस्सक (अश्मक), अवन्ती, गन्धार और कम्बोज का विस्तृत वर्णन हमें असम्पादन जातक में मिलता है।[1]

महासुतसोम जातक (537) में कुरू देश का विस्तार 300 योजन बताया गया है। इसी प्रकार धूमकारि जातक (413) तथा दस ब्राह्मण जातक (415) में कहा गया है कि युधिष्ठिर गोत्र के राजा का उस समय वहाँ राज्य था। कुरु देश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ का विस्तार सात योजन महासुतसोम जातक (537) तथा विधुर पण्डित जातक (545) में दिया गया है। धनंजय कोरव्य और सुतसोम आदि कुरू-राजाओं के नाम कुरूधम्म जातक (276), धूमकारि जातक (413), सम्भव जातक (515) और विधुर पंडित जातक (545) में आते है। उत्तर पंचाल के लिए कुरू और पंचाल वंशों में झगड़ा चलता रहा, इसकी सूचना हम चम्पेय्य जातक (506) तथा अन्य अनेक जातकों मेंं पाते हैं। कभी वह कुरू राष्ट्र में सम्मिलित हो जाता था (सोमनस्स जातक 415) और कभी कम्पिल्ल राष्ट्र में भी, जिसका साक्ष्य ब्रह्मदत्त जातक (323), चयद्दिस जातक (513) और गण्डतिन्दु जातक (520) में विद्यमान है। पंचाल राज दुर्मख निमि का समकालिक था, इसकी सूचना हमें कुम्भकार जातक में मिलती है। अस्सक (अश्मक) राष्ट्र की राजधानी पोतन या पोतलि का उल्लेख हमें चुल्लकालिंग जातक (301)में मिलता है। मिथिला का विस्तार सुरूचि जातक (489) और गन्धार जातक (406) में सात योजन बताया गया है। महाजनक जातक (539) में मिथिला का बड़ा सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है जिसकी तुलना महाभारत 3.206.6-9 से की जाती है। सागल नगर का वर्णन कालिंगबोधि जातक (479) और कुस जातक (531) में है। काशी राज्य के विस्तार का वण र्न धजविदेह जातक (391) में है। उसकी राजधानी वाराणसी के केतुमती, सुरून्धन, सुदस्सन, ब्रह्मवड्ढन, पुप्फवती, रम्मनगर और मोलिनी आदि नाम थे। ऐसा साक्ष्य अनेक जातकों में मिलता है। तण्डुलनालि जातक (5) में वाराणसी के प्राकार का वर्णन है। तेलपत्त जातक (96) और सुसीम जातक (163) में वाराणसी से तक्षशिला की दूरी 2000 योजन बताई गई है। कुम्भकार जातक (408) में गन्धार के राजा नग्गजि या नग्नजित् का वर्णन है। कुस जातक (531) में मल्लराष्ट्र और उसकी राजधानी कुसावती या कुसिनारा का वर्णन है। चम्पेय्य जातक (506) में अंग और मगध के संघर्ष का वर्णन है। इसी प्रकार रूक्खधम्म जातक और फन्दन जातक में शाक्य और कोलियों के रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े का वर्णन है। वत्स राज्य और उसके अधीन भग्ग् राज्य की सूचना धोनसाख जातक (353) में मिलती है। इन्द्रिय जातक में सुरट्ठ अवन्ती, दक्षिणापथ, दंडकवन कुम्भवति नगर आदि का वर्णन है। संरभग जातक में सुरट्ठ देश का वर्णन है।

सालित्तक जातक और कुरूधम्म जातक से हमें पता चलता है कि अचिरवती नदी श्रावस्ती में होकर बहती थी। सरभंग जातक में गोदावरी नदी का भी उल्लेख है और उसे कविट्ठ वन के समीप बताया ग या है। गन्धार जातक में कश्मीर गन्धार का उल्लेख है। कण्ह जातक में संकस्स (संकाश्य) का उल्लेख है। चम्पेय्य जातक से हमें सूचना मिलती है कि चम्पा नदी अंग और मगध जनपदों की सीमा पर होकर बहती थी। गंगमाल जातक में गन्धमादन पर्वत का उल्लेख है। बिम्बिसार सम्बन्धी महत् वपूर्ण सूचना जातकों में भरी पड़ी है। महाकोसल की राजकुमारी कोसलादेवी के साथ उसके विवाह का वर्णन और काशी गाँव की प्राप्ति का उल्लेख हरितमात जातक (239) और बड्ढकि सूकर जातक(283) में है। मगध और कोसल के संघर्षों का और अन्त में उनकी एकता का उल्लेख बड्ढकिसूकर जातक, कुम्मासपिंड जातक, तच्छसूकर जातक और भद्दसाल जातक आदि अनेक जातकों में है। इस प्रकार बुद्धकालीन राजाओं राज्यों, प्रदेशों, जातियों, ग्रामों, नगरों, नदियों, पर्वतों आदि का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। तिलमुट्ठि जातक (252) में ह में तक्षशिला विश्वविद्यालय का एक उत्तम चित्र मिलता है। संखपाल जातक (524) और दरीमुख जातक (378) में मगध के राजकुमारों के तक्षशिला में शिक्षार्थ जाने का उल्लेख है। तक्षशिला में शिक्षा के विधान, पाठ्यक्रम, अध्ययन विषय, उनके व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष, निवास भोजन, नियन्त्रण आदि के विषय में पूरी जानकारी हमें जातकों में मिलती है। वाराणसी राजगृह, मिथिला, उज्जयिनी श्रावस्ती, कौशाम्बी तक्षशिला आदि प्रसिद्ध नगरों को मिलाने वाले मार्गों का तथा स्थानीय व्यापार का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। काशी से चेदि जाने वाली सड़क का उल्लेख वेदब्भ जातक (48)में है। क्या-क्या पेशे उस समय लोगों में प्रचलित थे, कला और दस्तकारी की क्या अवस्था थी तथा व्यवसाय किस प्रकार होता था, इसके अनेक चित्र हमें जातकों में मिलते हैं। बावेरू जातक (339) और सुसन्धि जातक (360) से हमें पता लगता है कि भारतीय व्यापार विदेशों से भी होता था और भारतीय व्यापारी सुवर्णभूमि (बरमा से मलाया तक का प्रदेश) तक व्यापार के लिए जाते थे। भरूकच्छ उस समय एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। सुसन्धि जातक में हमें इसका उल्लेख मिलता है।

जल के मार्गों का भी जातकों में स्पष्ट उल्लेख है। लौकिक विश्वासों आदि के बारे में देवधम्म जातक (6) और नलपान जातक (20) आदि में समाज में स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में अण्डभूत जातक (62) आदि में दासों आदि की अवस्था के सम्बन्ध में कटाहक जातक (125) आदि में, सुरापान आि द के सम्बन्ध में सुरापान जातक (81) आदि में, यज्ञ में जीव हिंसा के सम्बन्ध में दुम्मेध जातक (50) आदि में, व्यापारिक संघों और डाकुओं के भय आदि के सम्बन्ध में खुरप्प जातक (265) और तत्कालीन शिल्पकला आदि के विषय में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि में प्रभूत सामग्री भरी पड़ी है, जिसका यहाँ विवरण देना अत्यन्त कठिन है। जिस समय का जातक में चित्रण है, उसमें वर्ण व्यवस्था प्र्रचलित थी। ब्राह्मणों का समाज में उच्च स्थान था। ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दो वर्ण उच्च माने जाते थे। दासों की प्रथा प्रचलित थी, उनके साथ दुर्व्यवहार के भी उदाहरण मिलते हैं, दास क्रीत भी होते थे, और पितृक्रमागत भी होते थे। विशेष अवस्थाओं में दास मुक्त भी कर दिये जाते थे। बुद्ध काल में जाति पेशे की सूचक नहीं थी। जातक कहानियों से पता चलता है कि किसी भी समय एक पेशे को छोड़कर कोई व्यक्ति दूसरा पेशा कर सकता था और इसमें उसकी जाति बाधक नहीं होती थी। विवाह-सम्बन्ध प्रायः समान जातियों और कुलों (सामाजिक कुल) में अच्छे माने जाते थे। उत्सवों में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी सम्मिलित होती थीं अनेक प्रकार के उत्सव बुद्ध काल में होते रहते थे और उ नमें मांस मछली के भोजन के साथ-साथ सुरापान भी चलता था। स्त्रियों के सदाचार को अक्सर जातक की कहानियों में संशय की दृष्टि से देखा गया है। कहा गया है कि सत्य का होना उनमें सुदुर्लभ ही है। ‘‘सच्च तेसं सुदुल्लभं‘‘ परन्तु भार्या के रूप में स्त्री की प्रशंसा की गइ र् है और उसे परम सखा बताया गया है, ‘‘भरिया नाम परमा सखा‘‘।

शिल्पों का समाज में आदर था। वेश्याओं के प्रभूत वर्णन जातक में मिलते है, इस समय यह प्रथा विद्यमान थी। इसी प्रकार द्यूत का व्यसन भी प्रचलित था। विधुर पंडित जातक में हम धनंजय कोरव्य को जुआ खेलते देखते है। शासन में रिश्वत चलती थी। कणवेर जातक में हम एक कोतवाल को रिश्वत लेते देखते हैं। शकुनों में और फलित ज्योतिष में लोगों का विश्वास था। छींक आने को अपशकुन मानते थे और जब कोई छींकता था तो उससे लोग कहते थे ‘जियो’ या ‘चिंरजीव होओ’। सत्य क्रिया (सच्च किरिया) में लोगों का विश्वास था। मूगपक्ख जातक में हम देखते है कि काशिराज की रानी ने सत्य क्रिया के बल से सन्तान प्राप्त की। इसी प्रकार बट्टक जातक में कहा है कि एक बटेर के बच्चे ने अपने सत्य क्रिया बल से वृक्ष में लगी आग को बुझा दि या। वयः प्राप्त कुमारिकाओं को अपना वर खोजने की स्वतन्त्रता थी, ऐसा अम्ब जातक से पता चलता है। संकिच्च जातक में पत्नी को धनक्कीता कहा गया है। इससे पता चलता है कि कुछ विशेष अवस्थाओं में पति को कन्या के पिता को धन भी देना पड़ता था। उदय जातक से भी ऐसा ही मालूम पड़ता है।

जहाँ तक धार्मिक अवस्था का सम्बन्ध है, एक प्रकार का लोक-धर्म प्रचलित था। लोग यक्षों, वृक्षों, नागों, गरुड़ों और नदियों की पूजा करते थे। एक स्त्री को जो अपने पति से विछुड़ गई है, हम भागीरथी गंगा की स्तुति करते और उसकी शरण में जाते देखते हैं। परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि एक प्रकार का भाग वत् धर्म लोगों में प्रचलित था। गोकुलदास दे ने इस बात को दिखाने का बड़ा प्रयास किया है, कि धर्म का जो स्वरूप जातककालीन समाज में हम देखते हैं उसमें भागवत धर्म के तत्व विद्यमान हैं। जातककालीन समाज में एक प्रकार का लोकधर्म प्रचलित था। जिसमें साधारण जन-समाज के विश्वास और उसकी विभिन्न लौकिक और आध्यात्मिक आवश्यकताएँ समतल पर प्रतिबिम्बित थी। अर्थात पूजा, वन्दना, दान, देवताओं की शरणागति आदि की भावनाएँ प्रधान थी। जातक वस्तुतः प्राचीन भारतीय सामाजिक जीवन सम्बन्धी सूचनाओं का अगाध भण्डार ही हैं और उनका समग्रतया अध्ययन पालि साहित्य के इतिहास लेखक के लिए सम्भव नहीं है। यह अनेक महाग्रन्थों का विषय है।

बौद्ध धर्म के सभी सम्प्रदायों में जातक का महत्व सुप्रतिष्ठित है। महायान और हीनयान को वह एक प्रकार से जोड़ने वाली कड़ी है, क्योंकि महायान का बोधिसत्व आदर्श यहाँ अपने बीज-रूप में विद्यमान है। दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के साँची और भरहुत के स्तूपों में जातक के अनेक दृश्य अंकित है। मिलिन्दपंहां में अनेक जातक कथाओं को उद्धृत किया गया है। अमरावती स्तूप द्वितीय शताब्दी ईसवी में उसके चित्र अंकित है। पाँचवी शताब्दी में लंका में उसके 500 दृश्य अंकित किये जा चुके थे। अजन्ता की चित्रकारी में भी महिस जातक (278) अंकित है। बोध गया में भी उसके अनेक चित्र अंकित है। जावा के बोरोबदूर स्तूप 9वीं शताब्दी ईसवी में बरमा के पगान नगर में स्थित पेगोडाओं (13 वीं शताब्दी ईसवी) में और सिआम में सुखोदय नामक प्राचीन नगर में जातक के अनेक दृश्य चित्रित मिले हैं। अतः जातक का महत्व भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी स्थविरवाद बौद्ध धर्म में ही नहीं बौद्ध धर्म के अन्य अनेक रूपों में भी प्रतिष्ठित है।

कालक्रम की दृष्टि से वैदिक साहित्य की शुनःशेप की कथा यम-यमी संवाद, पुरूरवा उर्वशी संवाद आदि कथानक ही बुद्ध पूर्व काल के हो सकते है। छान्दोग्य और बृहदारण्यक आदि कुछ उपनिष्दों की आख्यायिकाएँ भी बुद्ध पूर्व काल की मानी जा सकती है, और इसी प्रकार ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के कुछ आख्यान भी बुद्ध पूर्व काल की माने जा सकते हैं। इनका भी जातकों से और सामान्यतः पालि सहित्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। तेविज्ज सुत्त में अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अिं र्घैंरा, भारद्वाज, वशिष्ठ, काश्यप और भृगु इन दस मन्त्रकर्ता ऋषियों के नामों के साथ-साथ ऐतरेय ब्राह्मण, तैति्तरीय ब्राह्मण, छान्दोग्य ब्राह्मण और छन्दावा ब्राह्मण का भी उल्लेख हुआ है। मज्झिम निकाय के अस्सलायन सुत्तन्त के आश्वालायन ब्राह्मण को प्रश्न उपनिषद के आश्वलायन से मिलाया गया है। मज्झिम निकाय के आश्वालायन श्रावस्ती निवासी है और वेद-वेदा र्घैं में पार र्घैं त है। इसी प्रकार प्रश्न उपनिषद के आश्वालयन भी वेद वेदा र्घैं के महापंडित है और कौसल्य (कोसल निवासी) है। जातकों में भी वैदिक साहित्य के साथ निकट सम्पर्क के अनेक लक्षण पाये जाते है। उद्दालक जातक (487)में उद्दालक के तक्षशिला जाने और वहाँ एक लोक विश्रुत आचार्य की सूचना पाने का उल्लेख है। इसी प्रकार सेतुकेतु जातक में उद्दालक के पुत्र श्वेतुकेतु का कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के उद्दालक को हम उत्तरापथ में भ्रमण करते हुए देखते है। अतः इससे यह निष्कर्ष निकालना असंगत नहीं है कि जातकों के उद्दालक और श्वेतुकेतु ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के इन नामों के व्यक्तियों से भिन्न नहीं है। जर्मन विद्वान लूडर्स ने सेतुकेतु जातक(377) में आने वाली गाथाओं को वैदिक आख्यान और महाकाव्य युगीन काव्य को मिलाने वाली कड़ी कहा है, जो समुचित ही है। इसी प्रकार सिंहली विद्वान मललसेकर का कहना है कि जातक का सम्बन्ध भारतीय साहित्य की उस आख्यान-विधा से है, जिससे उत्तरकालीन महाकाव्यों का विकास हुआ है। रामायण और महाभारत के साथ जातक की तुलना करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इन दोनों ग्रन्थों के सभी अंश बुद्ध पूर्व युग के नहीं है। रामायण के वर्तमान रूप में 2400 श्लोक पाये जाते हैं। रामायण में कहा भी गया है ‘चतुर्विंश सहस्राणि श्लोकानाम उक्त वान् ऋषिः। किन्तु बौद्ध महाविभाषा-शास्त्र (कात्यायनी पुत्र के ज्ञान प्रस्थान शास्त्र की व्याख्या) से सिद्ध है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी में भी रामायण में केवल 12,000 श्लोक थे। रामायण 2-109-34 में बुद्ध तथागत का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार शक, यवन आदि के साथ संघर्ष का वर्णन है। किष्किन्धा काण्ड में सुग्रीव के द्वारा कुरू मद्र और हिमालय के बीच में यवनों औ र शकों के देश और नगरों को स्थित बताया गया है।

इससे सिद्ध है कि जिस समय में अंश लिखे गये थे, ग्रीक और सिथियन लोग पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा चुके थे। अतः रामायण के काफी अंश महाराज बिम्बिसार या बुद्ध के काल के बाद लिखे गये। महा भारत में इसी प्रकार एडूकों (बौद्ध मन्दिरों) का स्पष्ट उल्लेख है। बौद्ध विशेषण चातुर्महाराजिक भी वहाँ आया है। रोमक (रोमन) लोगों का भी वर्णन है। इसी प्रकार सिथियन और ग्रीक आदि लोगों का भी वर्णन है। आदि पर्व में महाराज अशोक को महासुर कहा गया है और महावीर्योऽपराजितः के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है। शान्ति पर्व में विष्णुगुप्त कौटिल्य (द्वितीय शताब्दी ईसवीं पूर्व) के शिष्य कामन्दक का भी अर्थविद्या के आचार्य के रूप में उल्लेख है। इस प्रकार अनेक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि महाभारत के वर्तमान रूप का काफी अंश बुद्ध अशोक और कौटिल्य विष्णुगुप्त के बाद के युग का है। जातक की अनेक गाथाओं और रामायण के श्लोकों में अद्भुत समानता है। दसरथ जातक (461) और देवधम्म जातक (6) में हमें प्रायः राम-कथा की पूरी रूपरेखा मिलती है। जयद्दिस जातक (513) में राम का दण्डकारण्य जाना दिखाया गया है। इसी प्रकार साम जातक(540) की सदृशता रामायण 2. 63-25 से है और विण्टरनित्ज के मत में जातक का वर्णन अधिक सरल और प्रारम्भिक है। वेस्सन्तर जातक के प्रकृति वर्णन का साम्य इसी प्रकार वाल्मीकि के प्रकृति वर्णन से है और इस जातक की कथा के साथ राम की कथा में भी काफी सदृशता है। महाभारत के साथ जातक की तुलना अनेक विद्वानों ने की है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षिप्ततम रूप में भी रखना वास्तव में बड़ा कठिन है। महाजनक जातक (539) के जनक उपनिषदों और महाभारत के ही ब्राह्मज्ञानी जनक है। मिथिला के प्रासादों को जलते देखकर जनक ने कहा था मिथिलायां प्रदीप्तायां न में दह्यति किंचन। ठीक उनका यही कथन हमें महाजनक जातक (539) में भी मिलता है तथा कुम्भकार जातक (408) और सोणक जातक(529) में भी मिलता है। अतः दोनों व्यक्ति एक है।

इसी प्रकार ऋष्यशृर्घैं की पूरी कथा नकिनिका जातक(526) में है। युधिष्ठिर (युधिट्ठिल) और विदुर (विधूर) का संवाद दस ब्राह्मण जातक (495) में है। कुणाल जातक (536) में कृष्ण और द्रौपदी की कथा है। इसी प्रकार घट जातक(355) में कृष्ण द्वारा कंस-वध और द्वारका बसाने का पूरा वर्णन है। महाकण्ह जातक(469) निमि जातक(541) और महानारदकस्सप जातक(544) में राजा उशीनर और उसके पुत्र शिवि का वर्णन है। सिवि जातक (449) में भी राजा शिवि की दान पारमिता का वर्णन है, अपनी आँखों को दे देने के रूप में। अतः कहानी मूलतः बौद्ध है, इसमें सन्देह नहीं है। महाभारत में 100 ब्राह्मदत्तों का उल्लेख है। सम्भवतः ब्रह्मदत्त किसी एक राजा का नाम न होकर राजाओं का सामान्य विशेषण था, जिसे 100 राजाओं ने धारण किया। दुम्मेध जातक(50) में भी राजा और उसके कुमार दोनों का नाम ब्रह्मदत्त बताया गया है। इसी प्रकार गंगमाल जातक(421) में कहा गया है कि ब्रह्मदत्त कुल का नाम है। सुसीम जातक(411), कुम्मासपिण्ड जातक(415), अट्ठान जातक(425), लोमासकस्सप जातक(433) आदि जातकों की भी, यही स्थिति है। अतः जातकों में आये हुए ब्रह्मदत्त केवल एक समय के पर्याय नहीं है। उनमें कुछ न कुछ ऐतिहासिकता भी अवश्य है।

रामायण और महाभारत के अतिरिक्त पतंजलि के महाभाष्य में भी जातक गाथाएँ उल्लिखित हैं। प्राचीन जन साहित्य में और बाद के कथा-साहित्य पर भी उसका प्रभाव उपलक्षित है। प्रथम शताब्दी ईसवी में गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में अपनी वड्डकहा (बृहत्कथा) लिखी जो अाज अप्राप्त है। परन्तु सोमदेव ने जो स्वयं बौद्ध थे, ग्यारहवीं -बारहवीं शताब्दी में अपना कथासरित्सागर बृहत्कथा के आधार पर ही लिखा और उसमें अनेक कहानियों के मूल श्रोत भी जातक में दिखाई पड़ते है। इसी प्रकार हितोपदेश में भी अनेक कहानियाँ जातक कथाओं प र आधारित दिखाई जा सकती हैं। भारतीय लोक-साहित्य में भी अनेक जातक-कहानियों को अदृश्य रूप से खोजा जा सकता है। ऐसी कहानियाँ भारत के प्रत्येक प्रान्त में प्रचलित हैं। उदाहरणतः-‘‘सीख वाकूँ दीजिए, जाकूँ सीख सुहाइ। सीख न दीजै बानरा, बया कौ घर जाई‘‘ के रूप में बन्दर और बया की कहानी भारत के सब प्रदेशों में विदित है। बन्दर और बया की यह कहानी कूटिदूसक जातक (321) की कहानी है। इसी प्रकार कई अनेक कहानियों को मनोरंजकपूर्ण ढंग से खोजा जा सकता है।

जिस प्रकार जातक कथाएँ समुद्र मार्ग से लंका, बर्मा, सिआम, जावा, सुमात्रा हिन्द-चीन आदि दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों को गई और वहाँ स्थापत्य कला आदि में चित्रित की गई उसी प्रकार स्थल मार्ग से हिन्दुकुश और हिमालय को पार कर पश्चिमी देशों तक उनके पहुँचने की कथा बड़ी लम्बी और मनोहर है। पिछले पचास-साठ वर्षों की ऐतिहासिक गवेषणाओं से यह पर्याप्त रूप से सिद्ध हो चुका है कि बुद्ध पूर्व काल में भी विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क थे। बावेरू जातक और सुसन्धि जातक में विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क के सम्बन्धों की पर्याप्त झलक दिखायी देती है। द्वितीय शताब्दी ईसवीं से ही अलसन्द जिसे अलक्षेन्द्र (अलेक्जेण्डर) ने बसाया था, पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का मिलन केन्द्र हो गया था। वस्तुतः पश्चिम में भारतीय साहित्य और विशेषतः जातक कहानियों की पहुँच अरब और उनके बाद ग्रीक लोगों के माध्यम से हुई। पंचतन्त्र में अनेक जातक-कहानियाँ विद्यमान है, यह तथ्य सर्वविदित है। छठीं शताब्दी ईसवीं में पंचतन्त्र का अनुवाद पहलवी भाषा में किया गया। आठवीं शताब्दी में कलेला दमना शीर्षक से उसका अनुवाद अरबी में किया गया। ‘ कलेला दमना’ शब्द ‘कर्कट’ और ‘दमनक’ के अरबी रूपान्तर हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी में पंचतंत्र के अरबी अनुवाद का जर्मन भाषा में अनुवाद ,फिर धीरे-धीरे सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका रूपान्तर हो गया। वास्तव में सीधे रूप से भी जातक ने विदेशी साहित्य को प्रभावित किया है और उसकी कथा भी अत्यन्त प्राचीन है।

ग्रीक साहित्य में ई्सप की कहानियाँ प्रसिद्ध है। फ्रैंच, जर्मन और अंग्रेज विद्वानों की खोज से सिद्ध है कि ईसप एक ग्रीक थे। ईसप की कहानियों का यूरोपीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है और विद्वानों के द्वारा यह दिखा दिया गया है कि ईसप की अधिकांश कहानियों का आधार जातक है।

सीहचम्म जातक (189) की कथा अति प्रसिद्ध है जो ईसप की कहानियों में भी पाई जाती है। सिंह की खाल ओढ़े हुए गधा इन दोनों जगह ही दिखाई पड़ता है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स का मत है कि शेक्सपियर ने अपने नाटक किंग जोन्ह में इस कथा की ओर संकेत किया है- अंक-2, दृश्य-1 तथा अंक 3 दृश्य 1 में। इसी प्रकार अलिफ लैला की कहानियों से भी जातक की समानताएँ है। समुग्ग जातक (436) का सीधा सम्बन्ध अलिफ लैला की एक कहानी से दिखाया गया है। कृतज्ञ पशु और अकृतज्ञ मनुष्यों की कहानियाँ जो सच्चं किर जातक (73) तक्कारिय जातक (481) आैर महाकवि जातक (516) में मिलती है। यूरोप की अनेक भाषाओं के कथा-साहित्य में बिखरी पड़ी है। इसी प्रकार अकृतज्ञ पत्नी की कहानी भी है, जो चूलपदुम जातक (193) मेंं आई है, प्रायः सारे यूरोप के कथा साहित्य में व्याप्त है। कच्छप जातक (215) की कहानी ग्रीक, लैटिन, अरबी, फारसी और अनेक यूरोपीय भाषाओं के साहित्य में पाई जाती है ऐसा रायस डेविड्स का कथन है। इसी प्रकार जम्बुखादक जातक (294) की कहानी है। पनीर के टुकड़े को लेकर गीदड़ और कौए की कहानी के रूप में यह यूरोप भर के बालकों को विदित है। महोसध जातक, दधिवाहन जातक और राजोवाद जातक की कहानियाँ भी इसी प्रकार यूरोपीय साहित्य में थोड़े बहुत रूपान्तर से पाई जाती है। अन्य अनेक कहानियों की भी तुलना विद्वानों ने जातक से की हैं। आठवीं शताब्दी में अरबों ने यूरोप पर आक्रमण किया। स्पेन और इटली आदि को उन्होंने रौंद डाला। उन्हीं के साथ जातक कहानियाँ भी इन देशों में गईं और उन्होंने धीरे-धीरे सारे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया। फ्रांस के मध्यकालीन साहित्य में पशु पक्षी सम्बन्धी कहानियों की अधिकता है। फ्रेंच विद्वानों ने उन पर जातक के प्रभाव को स्वीकार किया है।बायबिल और विशेषतः सन्त जोन्ह के सुसमाचार की अनेक कहानियों और उपमाओं की तुलना पालि, त्रिपिटक और विशेषतः जातक के इस सम्बन्धी विवरणों से विद्वानों ने की है। ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव में अन्य अनेक तत्वों के अति रिक्त जातक का भी काफी सहयोग रहा है। इ्र्रसाई सन्त प्लेसीडस की तुलना निग्रोधमिग जातक (12) की कथा से की गई है। यद्यपि विण्टरनित्ज ने उसमें अधिक साम्य नहीं पाया है। पर सब से अधिक साम्य मध्ययुग की रचना बरलाम एण्ड जोसफत का जातक के बोधिसत्व से है। इस रचना में जो मू लतः छठीं या सातवीं शताब्दी ईसवी में पहलवी में लिखी गई थी। भगवान बुद्ध की जीवनी एक ईसाई सन्त के परिधान में वर्णित की गई है। बाद में इस रचना के अनुवाद अरब, सीरिया इटली और यूरोप की अन्य भाषाओं मेंं हुए। ग्रीक भाषा में इस रचना का अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरब के खलीफा अलमंसूर के समकालिक एक ईसाई सन्त ने, जिसका नाम दमिश्क का सन्त जोन्ह (सेण्ट जोन्ह आव दमस्कस 676-749 ई0) था किया। ग्रीक से इस रचना का लैटिन में अनुवाद हुआ और फिर यूरोप की अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। करीब 80 संस्करण इस रचना के यूरोप अफ्रीका और पश्चिमी एशिया की भाषाओं में हुए है। इस रचना में जोसफत बोधिसत्व के रूप में है और बरलाम उनके गुरु हैं। बुद्ध के जन्म की कथा बृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित को उनके द्वारा देखना और संन्यास लेना, ये सब तथ्य बुद्धचरित की शैली में यहाँ वर्णित है। बुद्ध के जन्म पर की गई भविष्यवाणी का भी वर्णन और पिता के द्वारा पुत्र को महल के अन्दर रखने का भी, ताकि यह संसार का दुःख न देख सके। जोसफत शब्द अरबी युदस्तफ का रूपान्तर है, जो स्वयं संस्कृत बोधिसत्व का अरबी अनुवाद है। बोधिसत्व शब्द पहले बोसत बना और फिर जोसफत या जोसफ। ईसाई धर्म में सन्त जोसफत को (जिनका न केवल नाम बल्कि पूरा जीवन बोधिसत्व बुद्ध का जीवन है) ईसाई सन्त के रूप में स्वीकार किया गया है। पोप सिक्सटस पंचम (1585-90) ने अपने 27 दिसम्बर सन् 1585 के आदेश में जोसफत और बरलाम को ईसाई सन्तों के रूप में स्वीकार किया है।

इस प्रकार ईसाई परिधान में मध्यकालीन यूरोप बोधिसत्व बुद्ध को पूजता रहा। मध्ययुगीन ईसाई यूरोप पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का यह प्रतीक है। यह एक बड़ी अद्भुत किन्तु ऐतिहासिक रूप से सत्य बात है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स ने शेक्सपियर के मर्चेण्ट ऑव वेनिस में तीन डिबियों तथा आधसेर मांस के वर्णन में तथा एज यू लाइक इट में बहुमूल्य रत्नों के विवरण में जातक के प्रभाव को ढूँढ निकाला है एवं स्लेवोनिक जाति के साहित्य में तथा प्रायः सभी पूर्वी यूरोप के साहित्य में जातक के प्रभाव की विद्यमानता दिखाई है। भिक्षु शीलभद्र ने पर्याप्त उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि निमि जातक (541) ही चौदहवीं शताब्दी के इटालियन कवि दाँते की प्रसिद्ध रचना का आधार है। जर्मन विद्वान बेनफे ने जातक को विश्व को कथा साहित्य का उद्गम कहा है जो तथ्यों के प्रकाश में अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता है।

इस प्रकार भारतीय साहित्य और संस्कृति के साथ विश्व के साहित्य और सभ्यता के इतिहास में जातक का स्थान महत्वपूर्ण है।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  1. अंगुत्तर निकाय पृष्ठ संख्या-129 (सोलह महाजपदों का नाम) पालि साहित्य का इतिहास भरत सिंह उपाध्याय