चिकित्सा ज्योतिष

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से


चिकित्सा ज्योतिष (पारंपरिक रूप से आईट्रोमैथमैटिक्स के रूप में जाना जाता है) ज्योतिष की एक प्राचीन अनुप्रयुक्त शाखा है जो ज्यादातर मेलोथेसिया (जीआर μελοθεσία) पर आधारित है, शरीर के विभिन्न हिस्सों, रोगों और सूर्य , चंद्रमा , ग्रहों, और बारह ज्योतिषीय संकेत के साथ दवाओं का संबंध है।[1] हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार कालावधि पर आधारित कर्म के तीन भेद हैं- प्रारब्ध, संचित तथा क्रियमाण। पाप कर्मों का प्रारब्ध मानव को दु:ख रोग तथा कष्ट प्रदान करता है। किसी व्यक्ति के प्रारब्ध को ज्योतिषशास्त्र तथा योगसमाधि द्वारा जाना जा सकता है। उसमें योगसमाधि जो कि अष्टांग योग का उत्कृष्टतम अंग है, करोड़ों मनुष्यों में किसी बिरले साधक को ही सिद्ध हो पाती है। इस समाधि के सिद्ध होने से वह साधक संसार की घटनाओं के भूत, भविष्य, वर्तमान को प्रत्यक्ष देखता है। इसीलिए ऐसे महापुरुष त्रिकालदर्शी महात्मा कहलाते हैं। प्रारब्ध को जानने का जो दूसरा साधन है वह है फलित ज्योतिष। ज्योतिषशास्त्र में जन्म कुंडली, वर्ष कुंडली, प्रश्न कुंडली, गोचर तथा सामूहिक शास्त्र की विधाएँ व्यक्ति के प्रारब्ध का विचार करती हैं, उसके आधार पर उसके भविष्य के सुख-दु:ख का आंकलन किया जा सकता है। चिकित्सा ज्योतिष में इन्हीं विधाओं के सहारे रोग निर्णय करते हैं तथा उसके आधार पर उसके ज्योतिषीय कारण को दूर करने के उपाय भी किये जाते हैं। इसलिए चिकित्सा ज्योतिष को ज्योतिष द्वारा रोग निदान की विद्या भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे मेडिकल ऐस्ट्रॉलॉजी कहते हैं। इसे नैदानिक ज्योतिषशास्त्र तथा ज्योतिषीय विकृतिविज्ञान भी कहा जा सकता है। यद्यपि ‘‘चिकित्सा ज्योतिष’’ नया शब्द है तथा इसका नाम भी नवीन है, परन्तु इस विषय पर आयुर्वेद तंत्र, सामुद्रिक ज्योतिषशास्त्र तथा पुराणों में पुष्कल सामग्री उपलब्ध है। प्राचीनकाल में ग्रन्थ सूत्ररूप में तथा तथा श्लोकबद्ध लिखे जाते थे। प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध बहुत सा साहित्य मुगल काल में मतान्ध शासकों तथा सैनिकों ने नष्ट कर दिया है, जो कुछ बचा है वह भी प्रकृति प्रकोप तथा जीव-जन्तुओं के आघात से नष्ट हो गया।

प्राचीन समय में सभी पीयूषपाणि आयुर्वेदीय चिकित्सक ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता होते थे और वे किसी भी गम्भीर रोग की चिकित्सा से पूर्व ज्योतिष के आधार पर रोगी के आयुष्य तथा साध्यासाध्यता का विचार किया करते थे। जिसका आयुष्य ही नष्ट हो चुका है उसकी चिकित्सा से कोई लाभ नहीं होता। ‘‘श्रीमददेवीभागवत’’ महापुराण में एक कथा आई है जिसके अनुसार महर्षि कश्यप को जब यह ज्ञात हुआ कि राजा परीक्षित की मृत्यु सर्पदंश से होगी तब महर्षि ने सोचा कि मुझे अपनी सर्पविद्या से राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। महर्षि कश्यप उस काल के ख्याति प्राप्त ‘‘विष वैज्ञानिक’’ थे। महर्षि ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया, मार्ग में उन्हें तक्षक नाग मिला जो राजा परीक्षित को डसने जा रहा था। तक्षक ने ब्राह्मण का वेष बनाकर कश्यप से पूछा, ‘‘भगवान् आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ कश्यप ने उत्तर दिया ‘‘मुझे ज्ञात हुआ है कि राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक के दंश से होगी, मैं अपने अगद प्रयोग द्वारा राजा के शरीर को विष रहित कर दूँगा जिससे धन और यश की प्राप्ति होगी।’’ तक्षक अपनी छदम् वेष त्यागकर वास्तविक रूप में प्रकट हो गया और कहा, ‘‘मैं इस हरे-भरे वृक्ष पर दंश का प्रयोग कर रहा हूँ। हे महर्षि। आप अपनी विद्या का प्रयोग दिखाएँ।’’ और तक्षक के विष प्रयोग से उस वृक्ष को कृष्ण वर्ण और शुष्क प्राय: कर दिया। महर्षि कश्यप ने अपने अगद प्रयोग से उस वृक्ष को पूर्ववत हरा-भरा कर दिया। यह देखकर तक्षक के मन में निराशा हुई। तब तक्षक ने महर्षि कश्यप से निवेदन किया कि, ‘‘आपका उपचार फलदायी तभी होगा जब राजा का आयुष्य शेष होगा। यदि वह गतायुष हो गया है तो आपको अपने कार्य में यश प्राप्त नहीं होगा।’’ कश्यप ने तत्काल ज्योतिष गणना करके पता लगाया कि राजा की आयु में कुछ घड़ी शेष हैं। ऐसा जानकर वे अपने स्थान को लौट गए। तक्षक के उससे विष को संस्कृत में तक्षकिन् कहते हैं। आजकल का अंग्रेजी में प्रयुक्त शब्द ‘Toxin’ उससे व्युत्पन्न हुआ। इस घटना की तरह पुराणों में अनेक घटनाओं का वर्णन है। जिनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन वैद्य रोग निदान एवं साध्यासाध्यता के लिए पदे-पदे ज्योतिषशास्त्र की सहायता लेते थे।

योग-रत्नाकर में कहा है कि- औषधं मंगलं मंत्रो, हयन्याश्च विविधा: क्रिया। यस्यायुस्तस्य सिध्यन्ति न सिध्यन्ति गतायुषि।।

अर्थात औषध, अनुष्ठान, मंत्र यंत्र तंत्रादि उसी रोगी के लिये सिद्ध होते हैं जिसकी आयु शेष होती है। जिसकी आयु शेष नहीं है; उसके लिए इन क्रियाओं से कोई सफलता की आशा नहीं की जा सकती। यद्यपि रोगी तथा रोग को देख-परखकर रोग की साध्या-साध्यता तथा आसन्न मृत्यु आदि के ज्ञान हेतु चरस संहिता, सुश्रुत संहिता, भेल संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय, चक्रदत्त, शारंगधर, भाव प्रकाश, माधव निदान, योगरत्नाकर तथा कश्यपसंहिता आदि आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक सूत्र दिये गए हैं परन्तु रोगी या किसी भी व्यक्ति की आयु का निर्णय यथार्थ रूप में बिना ज्योतिष की सहायता के संभव नहीं है।

कर्मज व्याधियाँ[संपादित करें]

ग्रह सुख-दु:ख, रोग, कष्ट, सम्पत्ति, विपत्ति का कारण नहीं होते। इन फलों की प्राप्ति का कारण तो मनुष्य के शुभाशुभ कर्म ही होते हैं। मनुष्य ने जो कुशल या अकुशल कर्म पूर्व-जन्मों में किये होते हैं, जन्म कुंडली में ग्रह उन्हीं के अनुसार, राशियों एवं भावों में विभिन्न स्थितियों में बैठकर भावीफल की सूचना देते हैं। प्रश्न कुंडली के ग्रह वर्तमान में किये कर्मों की सूचना देते हैं। इस प्रकार ग्रह रोगों के कारक नहीं है। वस्तुत: ग्रह तो सूचक मात्र होते हैं। अत: जहाँ कहीं भी ज्योतिष में ग्रहों के कारकत्व शब्द का प्रयोग किया जाता है तब उसका तात्पर्य ग्रहों का सूचकत्व समझना चाहिये। जिस व्याधि का निर्णय चिकित्सकों द्वारा शास्त्रोक्त विधि से किया जाकर चिकित्सा की जावे फिर भी वह व्याधि शान्त न हो तब उसे कर्मज व्याधि जाननी चाहिये। उसकी चिकित्सा भेषज के साथ अनुष्ठानों, मंत्र, तंत्रादि द्वारा करनी चाहिये।

चिकित्सकीय ज्योतिष का चिकित्साशास्त्र की विभिन्न शाखाओं में उपयोग[संपादित करें]

कायचिकित्सा में उपयोग[संपादित करें]

कायचिकित्सकों के लिये यह विषय अतीव उपयोगी है। रोग की अवधि निश्चित करने में इसका पूरा सहयोग रहता है। रोग भेषजसाध्य है अथवा शस्त्रकर्म द्वारा साध्य है ? इसका निर्णय करने में भी सहयोग मिलता है। रोगी किस मुहूर्त में वैद्य के पास जावे जिससे उसके रोग का निदान त्रुटि रहित हो? पुरानी बीमारियों हेतु मुहूर्त का विचार आवश्यक होता है परन्तु संकटकालीन स्थिति में मुहूर्त का विचार नहीं होता।

शल्य शास्त्र में उपयोग[संपादित करें]

रोग औषधि से ठीक होगा अथवा शल्यकर्म (ऑपरेशन) के द्वारा इसका निर्णय कर ग्रहों के आधार पर रोगी की सहन-शक्ति सत्व तथा सामर्थ्य को जानकर ठीक मुहूर्त में आपरेशन पूर्ण सफलता प्रदान करता है।

प्रसूति तंत्र में उपयोग[संपादित करें]

ज्योतिषीय गणनाओं द्वारा ग्रह स्थिति-वशात् यह निश्चय करने में सुविधा रहती है कि प्रसूता का प्रसव सरलतापूर्वक होगा या कष्टपूर्वक ? एतदर्थ प्रसवकालीन ग्रहस्थिति को ध्यान में रखकर निर्णय किया जाता है।

बाल रोग चिकित्सा में उपयोग[संपादित करें]

आयुर्वेद में आधुनिक पीड़िया-ट्रिक्स को कौमार भृत्य नाम दिया गया है। यदि प्रसूतागार का निर्माण वास्तुशास्त्र में बताये नियमों तथा पदार्थों (मैटेरियल्स) के अनुसार हो तो उसमें जन्मने वाले बालक हेतु शुभ होगा। घर के भीतर भी बालक का शयन कक्ष ज्योतिष शास्त्र के मानदंडों के अनुसार बनाना शुभ होता है। बालारिष्ट को योगों का ज्ञान करके बालक को निरोग रखने में मदद मिलती है। प्रसूता के स्तन्य (दूध) की मात्रा स्तनपायी शिशु हेतु पर्याप्त रहेगी अथवा अपर्याप्त रहेगी। इसे चिकित्सा ज्योतिष द्वारा ही जाना जा सकता है।

विष विज्ञान में उपयोग[संपादित करें]

विष विज्ञान को आयुर्वेद में अगदतंत्र कहा गया है। गद का अर्थ रोग तथा विष होता है अर्थात् कोई भी विजातीय पदार्थ जो शरीर के बाह्य या आभ्यांतरिक संपर्क में आने पर शरीर को हानि पहुँचाता है उसे गद या विष कहते हैं। अरबी में इसे जहर तथा आंग्ल भाषा में पॉइजन (Poison) तथा टॉक्सिन (Toxin) कहा जाता है। कभी-कभी कोई ऐसा अनिष्टकारी समय होता है जिसमें प्राणिज, खनिज अथवा जान्तव किसी भी प्रकार के विष प्रयुक्त होने पर वह रोगी के लिये मृत्युकारक अथवा मरणासन्न स्थिति उत्पन्न करने वाला होता है। इसी प्रकार किसी अश्विनी नक्षत्र में जन्मे हुए व्यक्ति पर कुचला का हानिकर प्रभाव न्यूनतम होगा क्योंकि कुचला अश्विनी नक्षत्र का वृक्ष है।

पशु चिकित्सा एवं पशुपालन में उपयोग[संपादित करें]

विशिष्ट ग्रह स्थिति में उत्पन्न दुधारू पशु तद्नुसार कम या अधिक दूध देने वाले होते हैं। वृष लग्न में उत्पन्न गाय या बैल ठीक रहते हैं परन्तु सिंह लग्न या धनु लग्न या मेष लग्न में प्रसूत होने वाले पशु अधिक मरखा (मरखना) होते हैं। कर्क या मकर या मीन लग्नोत्पन्न गाय, भैसें, यदि किसी पापग्रह से हष्ट न हों तो खूब दुधारू होते हैं, शुक्र एवं चन्द्र की दृष्टि लग्न एवं सप्तम भाव पर होने से पशु में दूध की मात्रा बढ़ाने वाली है। अल्प मात्रा में दूध देने वाले को यदि विहित मुहूर्त में शतावरी आदि वनस्पतियों का सेवन कराने पर उनके दूध में पर्याप्त वृद्धि उपलक्षित होती है।

भैषज्य निर्माण शास्त्र में उपयोग[संपादित करें]

भेषज्य निर्माण हेतु यदि किसी विज्ञ ज्योतिषी से मुहूर्त पूछकर निर्माण कार्य किया जावे तो चूर्ण, बटी, धृत, तैल, आसव, अरिष्ट, अर्क, अवलेह (इतरीफल, माजून लऊक आदि भी) रस, भस्म, रसायन, प्रतिविष एण्टीबायोटिक्स आदि के घान अत्यन्त गुणकारी निर्मित होते हैं। कृत्तिका नक्षत्र में भष्म श्रेष्ठ बनती है। अश्वनी नक्षत्र में वाजीकरण योगों का निर्माण उत्तम रहता है।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. "Programs-at-a-Glance : EDUCATION : Astronomical Society of the Pacific". astrosociety.org (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2022-10-26.