केरल की चित्रकला

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प्राचीन काल में जब से केरल की पर्वतीय गुफाओं में मनुष्य निवास करने लगे थे तभी से चित्रकला की परंपरा आरंभ हुई होगी। प्राचीन गुफाओं के चित्रांकन इसका प्रमाण हैं। इस प्रकार के चित्र जिन गुफाओं में उपलब्ध हैं वे हैं वयनाड की एडक्कल गुफा, इडुक्कि में मरयूर की एष़ुत्ताले गुफा, तिरुवनन्तपुरम के पेरुंकडविलयिल की पाण्डवन पारा गुफा (यह गुफा पत्थर के खनन के कारण अब नष्ट हो गयी) आदि। कोल्लम जिले के तेन्मला की चन्तरुणिवन गुफा में भी गुफाचित्र मिलते हैं। इन चित्रों में प्रधान हैं - पत्थर की दीवारों पर उत्कीर्ण किए गुफा चित्र (Engravings) और शिला चित्र (Rock carvings)।

गुफा चित्र[संपादित करें]

एडक्कल गुफा (एडक्कल) वयनाड के अंपलवयल के पास अंपुकुत्ति पहाडी पर स्थित है। यहाँ गुफा - भित्तियों पर उकेरे गये अतिप्राचीन चित्र मिलते हैं। अधिकांश चित्र पौन इंच से एक इंच तक चौड़ाई और एक इंच गहराई लिए हैं। चित्रों में मनुष्य की आकृतियाँ अनुष्ठान कलापरक नृत्य करते हुए उकेरी गई हैं। लगभग सभी मानव आकृतियों में पत्तों से बनाये केशालंकार दिखाई देते हैं। साथ में हाथी, शिकारी कुत्ते, हिरण आदि पशुओं की आकृतियाँ भी हैं। इनके अतिरिक्त ज्यामितीय आकार भी अंकित किये गये हैं। साथ ही धुरि सहित पहियों वाली गाड़ियाँ भी अंकित है। अनुमान है कि एडक्कल चित्र नवीन प्रस्तर युग में निर्मित किये गये हैं।

तीवरि पर्वत के पुराप्पारा नामक पत्थर के द्वार पर भी इस प्रकार के चित्र हैं। यहाँ अस्त्र, कुष़िप्पारा (एक तरह का औजार) आदि हथियारों एवं पक्षियों के चित्र भी दिखाई पड़ते हैं। मरयूर की एष़ुत्तालै नामक गुफा के चित्रों में हाथी, घोडा, जंगली भैंसा, हिरण आदि पशुओं के आकार और कतिपय अमूर्त चित्र भी हैं। एष़ुत्तालै के चित्र एक के ऊपर एक इस तरह से बनाये गये हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि ये चित्रकलाएँ विभिन्न युगों की है।

भित्ति चित्र, अनुष्ठानपरक रंगोली चित्र (कळमेष़ुत्तु), मुखौटे या मुख पर चित्रांकन आदि केरलीय चित्रकला के अन्य प्राचीन रूप हैं। भित्ति चित्रों को छोड शेष चित्र आज भी चित्रकला की परंपरा में जीवित है।

भित्तिचित्र[संपादित करें]

भित्तिचित्र मंदिर और राजमहलों की भित्तियों पर अंकित हैं। केरल के भित्ति चित्रों का हज़ार साल पुराना इतिहास है। ये भित्ति - चित्र एक समान शैली के नहीं हैं। जिन मंदिरों में भित्ति-चित्र अंकित हुए हैं उनके नाम हैं - तृश्शूर वडक्कुन्नाथ मंदिर, तिरुवंचिक्कुळम, एळंकुन्नप्पुष़ा, मुळक्कुळम, कोट्टयम ताष़त्तंगाडि वासुदेवपुरम, तृक्कोटित्तानं, कोट्टक्कल, तलयोलपरम्पु, पुण्डरीकपुरम, तृप्रयार पनयन्नारकावु, लोकनारकावु, आर्पुक्करा, तिरुवनन्तपुरम श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर, कोष़िक्कोड तळि, एट्टुमानूर तृच्चक्रपुरम, बालुश्शेरि, मूक्कुतला, पुन्नत्तूर कोट्टा आदि मंदिर। वे राजमहल जहाँ भित्ति चित्र उपलब्ध हैं - पद्मनाभपुरम, मट्टांचेरी, तिरुवनन्तपुरम करिवेलप्पुरमाळिका, कृष्णपुरम आदि। कुछ गिरजाघरों में भी भित्ति चित्र अंकित हुए हैं। ये हैं - अकप्परम्पु, कांजूर, तिरुवल्ला, कोट्टयम चेरियापळ्ळि, चेप्पाटु, अंकमालि आदि।

भित्ति - चित्रों में प्रयुक्त प्रधान रंग हैं गेरुआ - लाल, हरा, सफेद, काला। चायिल्यं (एक जडी बूटी जिसका लाल रंग है) मनयोला (पीत रंग की एक खनिज) गन्धक (sulpher), एरविक्करा (एक तरह का सरेस), नीलअमरि (एक पौधा) गोबर, वेट्टुकल्लु (एक प्रकार का पत्थर) गोमूत्र आदि कई वस्तुओं के योग से रंगों का निर्माण होता है। आधुनिक काल में मम्मियूर कृष्णन कुट्टि नायर के नेतृत्व में भित्ति-चित्रों के पुनरुद्धार का सार्थक प्रयास किया गया है।

कळमेष़ुत्तु[संपादित करें]

कळमेष़ुत्तु एक अनुष्ठान कला है जिसमें पाँच विभिन्न प्रकार की रंगीन बुकनियों से देवी - देवताओं की आकृतियाँ ज़मीन पर उतारी जाती है। कळमेष़ुत्तु का अनुष्ठान अनेक समुदाय के लोग करते हैं। कळमेष़ुत्तु अनेक अनुष्ठानपरक कलाओं का अंग है। भगवान को प्रसन्न करने केलिए और अमंगल दोष निवारण केलिए कळमेष़ुत्तु और संबन्धित गीतों का आयोजन किया जाता है। भगवती मंदिर के उत्सव तथा सर्पक्कावु तथा अय्यप्प कावु में विशिष्ट अवसरों पर भी कळमेष़ुत्तु का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर रंगीन बुकनियों से विभिन्न देवताओं की आकृतियाँ चित्रित की जाती हैं। कळमेष़ुत्तु को चित्रित करने वाले कलाकार अधिकांश समाज के निम्नवर्ग के होते हैं। इनमें प्रमुख हैं - वण्णान, कणियान, पुलवर, मलयन, पुलयर, माविलर, मुन्नूट्टान, परयन, पणियन, अवियर, वेलन, मण्णान, कोप्पालन, कुरवर, तीय्याट्टुण्णि, तीयाटि नंपिरयार, तेय्यंपाटि नंपियार, वारणाट्टु कुरुप्पन्मार, कल्लाट्टक्कुरुप्पन्मार, पुतुश्शेरि कुरुप्पन्मार, मारार इत्यादि।

मुखत्तेषु़त्तु[संपादित करें]

(चेहरे को रंगना)

अनुष्ठान कलाओं के कलाकारों के चेहरों को रंगने की क्रिया को मुखत्तेषु़त्तु कहते हैं। इसमें केरल की लोकप्रिय कला परम्परा स्पष्टतः झलकती है। मुडियेट्टु, तेय्यम, तिरा, कालिकेट्टु, काळियूट्टु, तुळ्ळल, कथकळि, कृष्णनाट्टम, कूडियाट्टम, कूत्तु इत्यादि सभी नृत्य कलाओं में चेहरे को रंगना आवश्यक है। मुखत्तेषु़त्तु के परंपरागत भेद हैं - पुल्लिट्टेष़ुत्तु, शंखिट्टेषु़त्तु, हनुमान कण्णिट्टेषु़त्तु, मान्कण्णिट्टेषु़त्तु, वट्टक्कण्णिट्टेषु़त्तु, अंचुपुळ्ळियेट्टेषु़त्तु आदि। मुखत्तेषु़त्तु उस देवता के चेहरे पर अभिव्यंजित भाव के अनुरूप ही किया जाता है जिसका वेश धारणकर अनुष्ठान कलाकार नृत्य करते हैं।

मुखौटे[संपादित करें]

पडयणि (पडेनि) के मुखौटे लोकचित्रकला का एक अन्यतम रूप है। ये मुखौटे सुपारी के पेड़ के पत्ते से लगे भाग में विविध रंगों का प्रयोग करके बनाये जाते हैं। तोल्पावक्कूत्तु केलिए निर्मित गुड़ियों में लोक चित्रकला का एक दूसरा रूप प्रकट होता है।

पद्मम्[संपादित करें]

'पद्मंगळ' उन रंगोलियों को कहते हैं, जो मांत्रिक-तांत्रिक कर्मों के लिए निर्मित होती हैं। तरह-तरह के रंगीन बुकनियों से निर्मित 'कमल' (पद्म) की आकृतियों पर मूर्ति रखी जाती है। ये पद्मम वर्त्तुल, त्रिकोण, चतुष्कोण, सीधी रेखा आदि विभिन्न आकृतियों में बनाये जाते हैं। सबसे पहले चावल के आटे से रेखाचित्र अंकित किया जाता है। बाद में पद्मों की आकृतियों को रंगीन बुकनियों भरा जाता है।

तांत्रिक विधि के अनुसार ब्राह्मणों द्वारा निर्मित पद्म इस प्रकार हैं - स्वस्तिक, नवक, नवक-पंचगव्य, चतुःशुद्धि, अष्टदल, द्वादशनाम, वास्तुबलि, सर्पबलि, नवग्रह, भद्रक, शक्तिदण्डक भद्र, चक्राब्ज, शिवमहाकुंभ स्वस्तिक भद्रक, षट्दल, शट्यावीथि स्वस्तिक, कलश पद्मम्।

कोलमेष़ुत्तु[संपादित करें]

(मांडने) केरल में बसे तमिल ब्राह्मणों के बीच कोलमेष़ुत्तु का प्रचार है। घर के प्रांगण में चावल के आटे से प्रतिदिन मांडने बनाए जाते है। यह काम घर की स्त्रियाँ ही करती हैं। कोलम या मांडने का उद्देश्य है समृद्धि के देवता का स्वागत करना। प्रमुख कोलम् के नाम इसप्रकार हैं - श्रीपोतिक्कोलम् और नालुमूलक्कोलम्। चित्र रचना में अशिक्षित स्त्रियों द्वारा तैयार किये गये ज्यामितीय आकृतियाँ देखकर देखनेवाला आशचर्यचकित रह जाता है।

आधुनिक चित्रकला[संपादित करें]

केरल में काफी समय तक ऐसी चित्रकला का विकास नहीं हुआ जो धार्मिक अनुष्ठान से परे हो। यहॉ मात्र अनुष्ठान के एक भाग के रूप में ही चित्रकला को स्थान दिया जाता था। भित्ति-चित्र को इससे पृथक माना जा सकता है। किन्तु भित्ति चित्रों का विषय अधिकतर धार्मिक हुआ करता था। आधुनिक चित्रकला का आविर्भाव इस परंपरा से हटकर हुआ है। आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास केरल से प्रारंभ होता है। राजा रविवर्मा आधुनिक भारतीय चित्रकला के जनक माने जाते हैं, उन्हीं से आधुनिक केरलीय चित्रकला का इतिहास शुरू होता है। रविवर्मा ने तैलरंग नामक नये माध्यम, कैनवास नामक नये फलक दोनों का यथार्थ रूप में परिचय करवाया दिया। इज़तरह रविवर्मा के द्वारा चित्रकला के धर्मनिरपेक्ष संसार में केरल का प्रवेश हुआ।


राजा रवि वर्मा कालीन[संपादित करें]

(1848 - 1906) राजा रवि वर्मा का जन्म तिरुवनन्तपुरम के किलिमानूर राजमहल में 29 अप्रैल 1848 को हुआ था। उनके प्रथम गुरु चित्रकार मातुल राजराजवर्मा थे। उन दिनों साफ किये गये फर्श पर चूने के आकृतियाँ बनवाकर प्रशिक्षण देने का रिवाज़ था। बाद में कागज़ पर पेंसिल से चित्र खिंचवाने की परम्पारा आरंभ हुई। उस काल में बाज़ार में रंगों का मिलना मुश्किल था। चित्रकार पौधों और फूलों से रंगों का निर्माण करते थे। परंपरागत शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत प्रशिक्षण पाने वाले प्रतिभावान बालक रविवर्मा मई 1862 ईं में अपने मातुल राजराजवर्मा के साथ तिरुवनन्तपुरम पहुँचे और उन्होंने आयिल्यम तिरुन्नाल महाराजा से भेंट की। महाराजा ने बालक को चित्रकला की शिक्षा प्राप्त करने केलिए तिरुवनन्तपुरम में ठहरने का आदेश दिया। तिरुवनन्तपुरम में रहने से यह लाभ हुआ कि राजमहल के चित्रों, जो इतालियन नवजागरण शैली के थे, को देखकर उन्हें काफी कुछ सीखने का अवसर मिला, साथ ही वे तमिलनाडु की चित्रकला भी सीख सके।

रविवर्मा पाश्चात्य चित्रकला तथा तैल चित्र निर्माण से तभी परिचित हो पाये जब सन् 1868 में तिरुवनन्तपुरम में थियडोर जेनसन नामक डच चित्रकार से उनकी मुलाकात हुई। रविवर्मा ने महाराजा और राज परिवार के सदस्यों के चित्र नवीन शैली में बनाये। सन् 1873 ईं से चेन्नै में आयोजित चित्रप्रदर्शनी में 'मुल्लप्पू चूटिया नायर स्त्री' (चमेली के फूलों से केशालंकार करती नायर स्त्री) नामक चित्र को प्रथम स्थान मिला जिससे रविवर्मा प्रसिद्ध हो गये। ऑस्ट्रिया के वियना में सम्पन्न हुई चित्र प्रदर्शनी में भी यही चित्र पुरस्कृत हुआ। अगले वर्ष उन्होंने 'तमिल महिला की संगीत साधना' (1874) नाम से जो चित्र बनाया था वह भी चेन्नै की प्रदर्शनी में पुरस्कार हुआ। यही चित्र 'दारिद्रय' शीर्षक से तिरुवनन्तपुरम की श्री चित्रा आर्ट गैलरी में प्रदर्शित है। 1876 ईं में 'शकुन्तला की प्रेम दृष्टि' चेन्नै प्रदर्शनी में पुरस्कृत हुई। पाँव में लगे काँटे को निकालने के बहाने दुष्यंत को मुडकर देखती 'अभिज्ञानशाकुन्तळम्' की शकुन्तला का चित्र उनके सर्वाधिक प्रसिद्ध चित्रों में एक है। ब्रिटिश प्राच्यविद् मेनियर विलियंस ने अपने शकुन्तलानुवाद के मुखपृष्ठ पर इसी चित्र को प्रस्तुत किया था।

तिरुवितांकूर के दीवान सर टी. माधवराव रविवर्मा को जानते थे। माधवराव बडौदा (बडोदरा) के महाराजा के सलाहकार थे। सन् 1880 ईं में माधवराव जब तिरुवनन्तपुरम पधारे तब उन्होंने रविवर्मा के कुछ चित्र खरीद लिये। रविवर्मा के जीवन में बडौ़दा के राज परिवार ने जो योग दान दिया, उसका आरंभ यहीं से हुआ।

रविवर्मा चित्र का सबसे बडा़ निजी संग्रहालय आज भी बडौदा राजपरिवार के पास है। 1881 ईं में बडौदा के महाराजा सयाजि राव गायकवाड़ के राज्याभिषेक के अवसर पर रविवर्मा को उसमें सम्मिलित होने केलिए आमंत्रित किया गया। रविवर्मा अपने अनुज राजराजवर्मा के साथ बडौ़दा गये और वहीं चार महीने ठहरे। इस कालावधि में अनेक ऐसे चित्र बनाए जो पुराणों के संदर्भों पर आधारित हैं। सन् 1885 ईं में मैसूर के महाराजा चामराजेन्द्रन ओडयार ने उनको निमंत्रित कर चित्र तैयार कराए। सन् 1888 से रविवर्मा का बडौदा काल शुरू हुआ। दो वर्ष के बडौदा जीवन में उन्होंने पुराण संबन्धी 14 चित्र बनाए। उत्तर भारत की व्यापक यात्राएँ कीं। सन् 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व प्रदर्शनी में दस चित्र प्रदर्शित किये।

जब उन्हें चित्रकार के रूप में ख्याति मिली तब उन्होंने सोचा कि अपने चित्रों को मुद्रित कर सस्ते दाम पर प्रदान किये जाएँ। चित्रकला को आधुनिक प्रौद्योगिकी से जोडने के इस निर्णय ने भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक नये अध्याय का प्रारंभ किया। सन् 1894 में उन्होंने विदेश से एक कलर ओलियोग्राफिक प्रेस खरीदकर मुम्बई में स्थापित की। इस प्रेस में उन्होंने चित्रों के सस्ते संस्करण मुद्रित किये। सन् 1897 में मुम्बई और पुणे में प्लेग फैला तो उन्हे अपना प्रेस बन्द करना पडा। अन्त में 21 जनवरी 1901 ईं में प्रेस सस्ते दामों में बेचना पडा तथा अस्सी से अधिक चित्र के प्रकाशनाधिकार को भी बेचना पडा।

भारत के राजा एवं ब्रिटिश शासक सभी रविवर्मा से चित्र बनवाने केलिए अत्यंत लालायित रहते थे। राजस्थान के उदयपुर महाराजा ने उन्हें निमंत्रित कर अपने पूर्वजों के चित्र बनवाये। इनमें महाराजा प्रताप का चित्र भी है जो छाया - चित्र रचना के मास्टरपीसों में एक है। सन् 1904 में चेन्नै के तत्कालीन ब्रिटिश राज्यपाल आर्थर हावलॉक के चित्र रचने का काम रविवर्मा को सुपुर्द कर दिया गया। इसी वर्ष ब्रिटिश सरकार ने रविवर्मा को 'केसर - ए - हिंद' पुरस्कार भी दिया। यह प्रसिद्व पुरस्कार पहली बार किसी एक कलाकार को प्रदान किया गया था।

रवि वर्मा के प्रमुख पुराण सम्बन्धी चित्र हैं - 'हंसदमयन्ति', 'सीतास्वयंवर', 'सीतापहरण', 'सीता धराप्रवेश', 'श्रीराम पट्टाभिषेक', 'विश्वामित्र और मेनका', 'श्रीकृष्ण जन्म', 'राधामाधव', 'अर्जुन और सुभद्रा' आदि। उनके अन्य प्रसिद्ध चित्र हैं - सद्यः 'स्नाता स्त्री', 'नर्तकी', 'विद्यार्थी', 'सरस्वति', 'विराट राजधानी की द्रौपदी', 'भारतीय संगीतज्ञ', 'मागंतुक पिता', 'उदयपुर राजमहल', 'सिपाही', 'लक्ष्मी', 'यशोदा व कृष्ण', 'कादंबरी' आदि। जीवन के अंतिम दिनों में वे किलिमानूर वापस आ गए और समृद्ध चित्र रचना में व्यस्त रहे। 2 अक्टूबर 1906 को चित्रों के महाराजा रवि वर्मा दिवंगत हो गए।

रवि वर्मा के चित्र संग्रह भारत के कई स्थानों के निजी संग्रह कर्त्ताओं के साथ साथ तिरुवनंतपुरम स्थित श्री चित्रा आर्ट गैलरी में प्रदर्शित है। दिल्ली के नैशनल गैलरी ऑफ माडेर्न आर्ट सहित अनेक संग्रहालयों में रवि वर्मा के चित्र रखे गए हैं।

रवि वर्मा - उत्तरकाल[संपादित करें]

राजा रवि वर्मा के भाई सी. राजराजवर्मा और बहन मंगलाभायि तंपुराट्टि दोनों अच्छे चित्रकार थे। केरल की ख्याति प्राप्त प्रथम महिला चित्रकार मंगलाभायि रही होगी। उन्होंने रवि वर्मा का छायाचित्र बनाया जो अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ। राजराजवर्मा की प्रवीणता भौगोलिक क्षेत्रों के चित्र बनाने में भी थी। रवि वर्मा के समकालीन अच्युतन पिल्लाई किष़क्केमठम् और पद्मनाभन तंपि दोनों तिरुवितांकूर राजमहल के चित्रकार थे।

रवि वर्मा के उपरांत जो चित्रकार प्रसिद्ध हुए वे हैं - रवि वर्मा के पुत्र राम वर्मा राजा, पी. जे. चेरियान, एन. एन. नंपियार, के. माधव मेनन, पी. गंगाधरन, रामकृष्णनाशारि, सी. वी. बालन नायर, पी. आई. इट्टूप्प आदि। चित्रकार पी. जे. चेरियान और आर्टिस्ट पी. जे. चेरियान नाम से विख्यात पी. जे. चेरियान (1891 - 1981), चित्रकार, चित्रकला शिक्षक, आरंभकालीन सिनेमा प्रवर्त्तक, नाटक अभिनेता आदि रूप में प्रसिद्ध रहे। उन्होंने चेन्नै में चित्रकला सीखी थी और पोट्रेट पैंटिंग में विशेष प्रशिक्षण लिया था। चेन्नै से वापस आकर वे उच्चशिक्षा के लिए मावेलिक्करा पहुँचे और राम वर्मा राजा का शिष्यत्व प्राप्त किया। दोनों ने मिलकर मावेलिक्करा में रवि वर्मा पैंटिंग स्कूल की स्थापना की। 1921 में चेरियान ने चेन्नै में भी एक स्टुडियो स्थापित किया। चेरियान ने नाटक और सिनेमा में भी योगदान दिया। वे 18 जनवरी 1981 को दिवंगत हो गए। उनकी कृतियाँ हैं - 'एन्टे कलाजीवितम्' (मेरा कला जीवन) और 'कलावीक्षणम' (कला दृष्टि)।

के. माधव मेनन ने बँगाल के शान्तिनिकेतन में चित्रकला में प्रशिक्षण लिया। उन्होंने केरलीय प्रतीकों को चित्रित किया। किन्तु मेनन ने शान्ति निकेतन के प्रभाव से अपने को मुक्त रखा जो उनके चित्रों से स्पष्ट होता है। माधव मेनन के चित्र में केरल की भौगोलिक प्रकृति, कुमुदिनियों से भरे तालाब, पक्षी, वर्षा, नारियल आदि यथेष्ट मिलते हैं। उनमें एक प्रकार का क्लासिज़्म है जो रोमान्टिक काव्यात्मकता प्रकट करता है (2)। माधव मेनन के चित्रों का पाश्चात्य शैली से दूर का रिश्ता भी नहीं। उनकी आस्था मात्र भारतीय शैली में रही।

इस काल में अनेक चित्रकार प्रसिद्ध हुए जिनमें डॉ॰ ए. आर. पोतुवाल का नाम विशेष उल्लेखनीय है जिन्होंने पश्चिमी वस्तुनिष्ठ अध्ययन को प्रधानता दी। रवि वर्मा से प्रभावित अन्य चित्रकार थे आर. गोविन्दनाशारि, वी. एस. वल्यत्तान, टी. ए. श्रीधरन्, टी. वी. बालकृष्णन नायर, आर. हरि आदि।

के. सी. एस. पणिक्कर काल[संपादित करें]

के. सी. एस. पणिक्कर (1911 - 1977) का पूरा नाम था किष़क्के चिरंपत्त शंकर पणिक्कर। वे भारतीय चित्रकला में नवीनता लाए। उन्होंने मद्रास स्कूल नाम से अभिहित चित्रकला प्रवृत्तियों को आगे बढाया और पश्चिमी प्रभाव से मुक्त आधुनिकता को प्रशस्त किया। उन्होंने चोलमण्डलम नामक कलाकार ग्राम स्थापित किया। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय चित्र कलाकारों में पणिक्कर का नाम अग्रगणनीय है। पणिक्कर ने उस समय चित्रकला प्रारंभ की जिस समय चित्रकला पर बंगाल स्कूल प्रभाव जमाइ हुई थी। साथ पश्चिमी शैली भी प्रभाव डाल रही थी। पणिक्कर ने दोनों प्रभावों से अपने को बचाये रखा। यद्यपि पणिक्कर केरल के बाहर ही जीवन बिताते थे तथापि उन्होंने अपनी चित्रकला में केरलीय रूपों - दृश्यों को प्रधानता दी। इस प्रकार उन्होंने आधुनिकता में देशीपन बनाए रखा।

यद्यपि पणिक्कर ने डाक विभाग में कर्मचारी रहते समय चित्र बनाने शुरू कर दिए थे तथापि उन्होंने नौकरी त्याग देने के बाद चित्रकला में प्रशिक्षण प्राप्त किया। सन् 1936 में वे नौकरी छोड़कर मद्रास स्कूल ऑफ आर्ट्स में भर्ती हुए। सन् 1940 में डिप्लोमा पाकर वहीं अध्यापक नियुक्त हो गए।

दक्षिण भारत में उन दिनों परम्परागत चित्रकला का ही प्राधान्य था। परंतु पणिक्कर उससे भिन्न चित्रकला शैली का स्वप्न देख रहे थे। सन् 1944 में उन्होंने चेन्नै में 'प्रोग्रसिव पैंटेर्स एस्सोसियेशन' नामक संस्था की स्थापना की। इसी के तत्त्वावधान में चित्रकला की आधुनिक प्रवृत्तियों पर चर्चाएँ एवं प्रदर्शनियाँ आयोजित कीं। इन्हीं वर्षों में नवीन चित्रकला शैली का आविर्भाव हुआ था। पणिक्कर ने उन चित्रकला प्रदर्शनियों में भाग लिया था जो चेन्नै, मुम्बई, कोलकात्ता, नई दिल्ली, लंदन आदि नगरों में आयोजित हुई थी। इस काल में उन्होंने जलरंग में अनेक मास्टरपीस रचनायें प्रस्तुत कीं। ये केरलीय ग्रामों के चित्र थे जो नहरों, उद्यानों से भरपूर थे। पणिक्कर को इस बात का ज्ञान हो गया था कि ग्राम चित्रों के सौन्दर्य के चित्रण के लिए सघन तैलरंग से उत्तम है जलरंग। 1954 में वे ललित कला अकादमी, नई दिल्ली की प्रशासन समिति के सदस्य चुने गए। इसी वर्ष इग्लैंड, फ्रांस, स्विटज़रलैंड, इटली आदि देशों की यात्रा की। पणिक्कर की प्रदर्शनी लंदन, पैरिस, लील आदि नगरों में संपन्न हुई। वे 1955 में स्कूल ऑफ आर्ट्स के उप प्राचार्य एवं 1957 में आचार्य बने। दस वर्ष के बाद वे सेवानिवृत्त हुए। इस कालावधि में उन्होंने विदेशों में अनेक प्रदर्शनियाँ लगाईं। इसी बीच मद्रास स्कूल नाम से विख्यात अनेक चित्रकला प्रवृत्तियाँ विकसित हुईं तथा पणिक्कर ने 'चोलमंडलम' की स्थापना की। न्यूयॉर्क में हुए वर्ल्ड आर्ट कांग्रेस (1963), टोक्यो इन्टरनेशनल एक्सिबिशन (1964), लंदन में हुए फेस्टिवल हॉल एक्सिबिशन (1965), वेनीस बिनैल (1967) आदि अन्तराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में पणिक्कर के चित्र लगाए गए। सन् 1966 में चेन्नै के समीपवर्ती प्रदेश इरिंचमबाक्कम में पणिक्कर की मानस रचना की 'चोलमंडलम' नामक कलाकार ग्राम की स्थापना हुई। सन् 1968 - 1976 की अवधि में उन्होंने अनेक कला प्रदर्शनियों में भाग लिया। सन् 1976 में ललित कला अकादमी ने उन्हें विशिष्ट सदस्यता प्रदान की। 15 जनवरी 1977 को वे चेन्नै में दिवंगत हुए। दो वर्ष बाद 30 मई 1979 को राज्य सरकार ने तिरुवनन्तपुरम में स्थित संग्रहालय में पणिक्कर के 65 से अधिक चित्रों वाली 'के. सी. एस. पणिक्कर्स गैलरी' आरंभ की।

पणिक्कर की चित्रकला को कई चरणों में बाँट सकते हैं। 1940 में निर्मित जलरंग चित्र भौगोलिक दृश्यों को प्रस्तुत करते हैं। तत्पश्चात् मानव आकृतियों के चित्र, वाक और प्रतीकों से भरे अमूर्त्त चित्र प्रस्तुत किए गए। मानव आकृतियों के जो चित्र निर्मित हुए वे उनकी कला विकास के कई चरण प्रस्तुत करते हैं। इनमें माँ और बच्चा (1954), पापिनी (1956), लाल रंग का कमरा (1960) आदि चित्र प्रमुख हैं। इस कालखण्ड के उनके दूसरे प्रमुख चित्र हैं - नर्त्तकियाँ, मन्दिर की ओर, पीटर का तिरस्कार, भीड़ में ईसा मसीह, नृत्य करती लड़की आदि। पणिक्कर के अमूर्त्त चित्रों के उदाहरण हैं वाक और प्रतीक चित्र परंपरा। इन चित्रों में प्रयुक्त मोटिफ्स केरलीय परंपरा से स्वीकृत हैं।

पणिक्कर के नेतृत्व में कलाकारों का जो संघ बना वह मद्रास स्कूल नाम से जाना जाता है। किसी वस्तु की आकृति में रेखा को प्राधान्य देना मद्रास स्कूल की देन है। मद्रास स्कूल के निपुण चित्र कलाकार हैं - संतानराज, आदिमूलम्, रेड्डप्पा नायडु, एम. वी. देवन, अक्कित्तम नारायणन, रामानुजम, के. वी. हरिदासन, नंपूतिरि, टी. के. पद्मिनी, पैरिस विश्वनाथन, पी. गोपीनाथ, ए. सी. के राजा, डग्लस, एन्टनीदास, अलफोन्सो, एस. जी. वासुदेव आदि। साठ का दशक मद्रास स्कूल का सुवर्णकाल माना जाता है। यही वह काल था जब साहित्य और कला आधुनिकता (Modernism) से प्रभावित हो रहे थे।

पणिक्कर - उत्तर कलाकार[संपादित करें]

केरल में आधुनिकतावादी चित्रकारों की काफी संख्या रही है, जैसे कि - सी. के. रा (सी. के रामकृष्णन नायर), अप्पुक्कुट्टनाशारि, एम. वी. देवन, के. वी. हरिदासन, ए. सी. के राजा, रुक्मिणी वर्मा, टी. के. पद्मिनी, टी. पी. राधामणि, एच. गीता, चिरयिनकीष़ श्रीकंठन नायर, काट्टूर नारायण पिळ्ळै, सनातनन, ए. रामचन्द्रन, एम. आर. डी. दत्तन, पी. एस. पुणिंचित्ताया, के. दामोदरन, पैरिस विश्वनाथन, मोहन कुमार, अक्कित्तम नारायणन, मुत्तुक्कोया, बालन नंपियार, सी. एन. करुणाकरन, कलाधरन, जयपालपणिक्कर आदि। इनमें टी. के पद्मिनी, ए. रामचन्द्रन, विश्वनाथन आदि के नाम विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

टी. के पद्मिनी (1940 - 1969) मात्र 29 वर्ष तक जीवित रही थी। किन्तु वे आधुनिक चित्रकला की प्रतिनिधि के रूप में विख्यात हुई। वे मद्रास स्कूल की देन थीं। उन्होंने चेन्नै स्कूल ऑफ आर्ट्स में शिक्षा पायी तथा 1968 में प्रसिद्ध चित्रकार के. दामोदरन से विवाह किया। 11 मई 1969 में प्रसव के समय उनका निधन हो गया।

पद्मिनी के चित्र नारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। केरलीय ग्राम-मंदिरों के शिल्पों को पद्मिनी ने अपने चित्रों में उकेरा है। दक्षिण भारत के मंदिर शिल्पों की उदात्त शैली के स्थान पर उन्होंने शुद्ध केरलीय शिल्पशैली में अपने चित्रों को आकार दिया। धूम और तैल मिश्रित तैलकालिमा वाली प्रतिमा शिल्पों का वर्ण विन्यास पद्मिनी को प्रिय था। रंगों का लालित्य उनके चित्रों की अन्य विशेषता है। उनमें नारी के नग्न तथा अर्द्धनग्न रूप भी उभरकर प्रकट होते हैं। इन कला रूपों की विशेषता है लम्बी तथा बड़ी आँखें। उन्होंने न संदर्भ का चित्रण किया, न घटनाओं की व्याख्या ही दी। इस प्रकार उनके चित्रों में आधुनिकता के गुण प्रकट हुए।

पद्मिनी के चित्रों में लगभग 30 तैलचित्र संहित 200 पैंटिंग तथा स्केच मिलते हैं। अनेक रचनाओं के शीर्षक नहीं हैं। उन चित्रों में आधुनिका की अमूर्त्त संकल्पनाएँ प्रस्फुटित हुई हैं। उदाहरणार्थ, 'जाता हुआ पक्षी', 'पतंग उड़ाती लड़की' आदि देखिए। ये सब केरलीय चित्र कला की अमूल्य संपत्ति हैं। पद्मिनी के अधिकतम चित्र ललित कला अकादमी गैलरी, तृश्शूर में रखे हुए हैं। उन्हें सन् 1967 में अकादमी पुरस्कार, 1965 में ऐसोसियेशन ऑफ यंग पैंटेर्स एण्ड स्कल्प्चेर्स अवार्ड प्राप्त हुए थे

आधुनिकोत्तर काल[संपादित करें]

अस्सी के दशकों में प्रसिद्ध हुए चित्रकारों में प्रमुख हैं टी. कलाधरन, अलेक्स मैथ्यु, वत्सन कोलेरि, एन. एन. मोहनदास, अजय कुमार, बाबु सेव्यर, गोपी कृष्णन, ज्योति बासु, सजिता शंकर, जॉर्ज, पुष्किन, ए. सजित आदि। अस्सी के अंत में कुछ युवा कलाकारों ने चित्र-शिल्प कलाओं में परिवर्तन लाने की कोशिश की। ये कलाकार आज भी सक्रिय हैं और इनमें आधुनिकोत्तर कालीन सौन्दर्य चेतना प्रमुख है।[1] [2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. शशिभूषण एम. जी., केरलतिले चुवरचित्रंगळ (केरल के भित्ति-चित्र), केरल भाषा इन्स्टिट्यूट, तिरुवनन्तपुरम, 2000 पृ 11
  2. विजयकुमार मेनन, भारतीय कला इरुपतां नूट्टान्डिल (भारतीय कलाः बीसवीं शताब्दी में), डी. सी. बुक्स, पृ 164

इन्हें भी देखें[संपादित करें]