कादम्बरी

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(कादंबरी से अनुप्रेषित)
वाणभट्ट का उपन्यास- कादम्बरी

कादम्बरी संस्कृत साहित्य का महान उपन्यास है। इसके रचनाकार बाणभट्ट हैं। यह विश्व का प्रथम उपन्यास कहलाने का अधिकारी है। इसकी कथा सम्भवतः गुणाढ्य द्वारा रचित बड्डकहा (वृहद्कथा) के राजा सुमानस की कथा से ली गयी है। यह ग्रन्थ बाणभट्ट के जीवनकाल में पूरा नहीं हो सका। उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र भूषणभट्ट (या पुलिन्दभट्ट) ने इसे पूरा किया और पिता द्वारा लिखित भाग का नाम 'पूर्वभाग' एवं स्वयं द्वारा लिखित भाग का नाम 'उत्तरभाग' रखा।

जहाँ हर्षचरितम् आख्यायिका के लिए आदर्शरूप है वहाँ गद्यकाव्य कादम्बरी कथा के रूप में। बाण के ही शब्दों में इस कथा ने पूर्ववर्ती दो कथाओं का अतिक्रमण किया है। अलब्धवैदग्ध्यविलासमुग्धया धिया निबद्धेय-मतिद्वयी कथा-कदम्बरी। सम्भवतः ये कथाएँ गुणाढ्य की बृहत्कथा एवं सुबन्धु की वासवदत्ता थीं।

ऐसा प्रतीत होता है कि बाण इस कृति को सम्पूर्ण किए बिना ही दिवंगत हुए जैसा कि उनके पुत्र ने कहा है:

याते दिवं पितरि तद्वचसैव सार्ध
विच्छेदमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः।
दुःखं सतां यदसमाप्तिकृतं विलोक्य
प्रारण्य एव स मया न कवित्वदर्पात्॥

पुलिन्द अथवा भूषणभट्ट ने इस कथा को सम्पूर्ण किया।

कथावस्तु[संपादित करें]

कादम्बरी की कथा संक्षेप में इस प्रकार है:

इसमें एक काल्पनिक कथा है जिसमें चन्द्रापीड तथा पुण्डरीक के तीन जन्मों का उल्लेख है। कथानुसार विदिशा नरेश शूद्रक के दरबार में अतीव सुन्दरी चाण्डाल कन्या वैशम्पायन नामक तोते को लेकर आती है। यह तोता मनुष्य की बोली बोलता है। राजा के प्रश्नोत्तर में तोता बताता है कि उसकी (तोते की) माता मर चुकी है और उसके पिता को आखेटक ने पकड़ लिया तथा उसे जाबालि मुनि के शिष्य पकड़ कर आश्रम में ले गये। इसी के बीच ऋषि जाबालि द्वारा राजा चन्द्रापीड तथा उसके मित्र वैशम्पायन की कथा है।

उज्जयिनी में तारापीड नाम का एक राजा था जिसका शुकनास नाम का एक बुद्धिमान मंत्री था। राजा को चन्द्रापीड नाम के एक पुत्र की प्राप्ति हुई और मंत्री के पुत्री का नाम वैशम्पायन था। दिग्विजय के प्रसंग में चन्द्रापीड एक सुन्दर अच्छोदसरोवर पर पहुँचा जहाँ असमय में दिवंगत प्रेमी पुण्डरीक की प्रतीक्षा करती हुई कामपीड़ित कुमारी महाश्वेता नाम की एक सुन्दरी उसे मिली। महाश्वेता ने अपनी सखी कादम्बरी के विषय में चन्द्रापीड को बताया और उसके कादम्बरी के पास ले गयी। प्रथम दर्शन से ही कादम्बरी और चन्द्रापीड का प्रेम हो गया। तभी चन्द्रापीड के पिता ने उसे वापिस बुलाया और अपनी पत्रलेखा नाम की परिचारिका को कादम्बरी के पास छोड़कर चन्द्रापीड वापस आ गया। पत्रलेखा ने भी कादम्बरी-विषयक सूचना को भेजते हुए चन्द्रापीड को प्रसन्न रखा। बाण की कृति यहाँ समाप्त हो जाती है।

जहां तक कथानक का सम्बन्ध है, बाणभट्ट बृहत्कथा के ऋणी हैं। सोमदेव द्वारा रचित बृहत्कथा के संस्कृत संस्करण में उपलब्ध सोमदेव एवं कमरन्द्रिका की कथा चन्द्रापीड एवं कादम्बरी की कथा से साम्य रखती हैं। परन्तु शुकनास का चरित्र-चित्रण वैशम्पायन तथा महाश्वेता की प्रेमकथा इत्यादि बाण की कल्पना है। कथानक के आविष्कार के लिए बाण को यश प्राप्त नहीं हुआ बल्कि उदात्त चरित्र-चित्रण, विविध वर्णन, मानवीय भावों के चित्रण तथा प्रकृति सौन्दर्य के कारण ही बाण को कवियों में उच्च स्थान की प्राप्ति हुई है।

कादम्बरी के गद्यबद्ध संक्षेप[संपादित करें]

बाण संस्कृत-गद्य का एकच्छत्र सम्राट् है। बाण की कादम्बरी अपनी अद्भुत कथावस्तु, रसात्मकता तथा आश्चर्यजनक शैली के कारण सदा कौतूहल की वस्तु रही है। अलंकृत गद्य का चरम वैभव, अपनी समूची भव्याभव्य संभावनाओं के साथ, उसकी कादम्बरी में सम्पूर्ण सजधज के साथ प्रकट हुआ है। परन्तु इसके बृहदाकार, विकट शैली, विराट् वाक्यावली, अनन्त विशेषणतति से आच्छन्न अन्तहीन वर्णनों तथा दुस्साध्य भाषा ने इसे बहुधा श्रमसाध्य तथा विद्वद्गम्य बना दिया है। साधारण पाठक के लिए वह असाध्य तथा अगम्य है। वह उसके आस्वादन से वंचित रह जाता है। कादम्बरी की संस्कृत टीकाओं में भट्ट मथुरानाथ शास्त्री की 'चषक' टीका जो निर्णयसागरप्रेस, मुंबई से सन १९३६ में प्रकाशित हुई प्रसिद्ध है।[1] इस रोचक किन्तु कष्टसाध्य गद्यकाव्य को जनसुलभ बनाने के लिए इसके सरल एवं संक्षिप्त रूपान्तरों की परम्परा आरम्भ हुई। अब तक कादम्बरी के गद्य और पद्य में निबद्ध 12 सार प्रकाश में आ चुके हैं।

संस्कृत गद्य के अतुल ऐश्वर्य, उसकी सूक्ष्म भंगिमाओं, हृदयहारी मृदुता तथा उद्वेगकारी कर्कशता का जिस कौशल से दोहन किया जा सकता था, उसका राजसी ठाट कादम्बरी में विकीर्ण है। बाण की कला का स्पर्श पाकर कादम्बरी छन्दो-विहीन कविता बन गयी है। सुबन्धु ने गद्य के जिस शास्त्रीय पैटर्न का प्रवर्तन किया था, बाण ने उसे ग्रहण तो किया किन्तु उसमें 'काव्योचित सौन्दर्य' का समावेश कर उसे अपूर्व स्निग्धता प्रदान की है। कला-शिल्प तथा भावसबलता के मंजुल मिश्रण के कारण ही संस्कृत गद्यकारों में बाण का स्थान सर्वोपरि है।

रस-प्रवणता, कला-सौन्दर्य, वक्रोक्तिमय अभिव्यंजना-प्रणाली, सानुप्रासिक समासान्तपदावली, दीपक, उपमा और स्वाभावोक्ति की रुचिर योजना, जिसके बीच-बीच में श्लेष, विरोधाभास और परिसंख्या को गूॅंथ दिया गया है, बाण के गद्य की निजी विशेषता है। बाण के हाथ में आकर संस्कृत गद्य कविता की उदात्त भावभूमि को पहुॅंच गया है। परन्तु बाण की रसवन्ती 'कादम्बरी' में मिश्रित कर्कशता से खीझकर वेबर ने उसके गद्य की तुलना भारतीय कान्तार से कर डाली है, जिसमें पथिक को अपने धैर्य और श्रम की कुल्हाड़ी से भीषण समास आदि के झाड़-झंखाड़ों को काटकर अपना मार्ग स्वयं बनाना पड़ता है। उस पर भी उसे अप्रचलित शब्दों के रूप में उपस्थित वन्यजीवों की दहाड़ का सामना करना पड़ता है। वेबर का यह आक्षेप सर्वथा निराधार नहीं है। अपनी विकटबन्धता, समाससंकुलपदावली, श्लिष्ट एवं दीर्घ वर्णनावलि के कारण कादम्बरी पण्डितवर्ग के बौद्धिक विलास की वस्तु होने का आभास देती है। वस्तुतः कोई विषय, भाव तथा अभिव्यंजना-प्रकार ऐसा नहीं रहा, जिसका बाण ने आद्यन्त मन्थन न किया हो। सहृदय आलोचक ने 'बाणोच्छिष्टं जगत्सर्वम्' (सारा जगत बाण की जूठन है) कह बाण की इस उपलब्धि का अभिनन्दन किया है।

कादम्बरी की जटिलता तथा बृहदाकार के कारण इसके सरल एवं संक्षिप्त रूपान्तरों की परम्परा का सूत्रपात हुआ, जिससे सामान्य जन भी इसका रसास्वादन कर सकें। गद्य-पद्य में निबद्ध इसके लगभग 12 सार ज्ञात अथवा उपलब्ध है। कादम्बरी के उपलब्ध सारों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं। प्रथम कोटि के सार वे हैं, जिनमें कादम्बरी का विभिन्न लेखकों द्वारा स्वतन्त्र, स्वभाषा में पद्यबद्ध संक्षेप प्रस्तुत किया है। अभिनन्दकृत कादम्बरी-कथासार, मण्डनप्रणीत कादम्बरीदर्पण तथा धुण्डिराजकृत अभिनवकादम्बरी इस वर्ग के प्रतिनिधि हैं। लघुकादम्बरीसंग्रह, चन्द्रापीडचरित, चन्द्रापीडकथा, कादम्बरीकथासार, कादम्बरीसार तथा कादम्बरीसंग्रह बाण की शब्दावली में निबद्ध, कादम्बरी के गद्यात्मक संक्षेप हैं। इनके अतिरिक्त सूर्यनारायण शास्त्री-कृत कादम्बरीसार, कादम्बरी का गद्यबद्ध स्वतन्त्र संक्षेप हैं। इन द्विविध गद्यात्मक सारों को द्वितीय वर्ग का प्रतिनिधि माना जा सकता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. कादम्बरी, 'चषक' टीका (संस्कृत), भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, प्रकाशक निर्णयसागर प्रेस, मुम्बई, १९३६

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]