कश्मीर विवाद

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कश्मीर विवाद

तिथि 22 October 1947 – ongoing
(76 साल, 5 माह और 5 दिन)
स्थान कश्मीर
Status Ongoing
योद्धा
 India  Pakistan[1]

पाकिस्तान हुर्रियत काँफ़्रेंस
जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट
हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी
लश्कर-ए-तैयबा
जैश-ए-मोहम्मद
हिज़बुल मुजाहिद्दीन
हरकत-उल-मुजाहिद्दीन
अल-बद्र
Ansar Ghazwat-ul-Hind (Since 2017)

सेनानायक
राम नाथ कोविन्द

जनरल बिपिन रावत
General Pranav Movva
Lt. Gen. P C Bhardwaj
बीरेंद्र सिंह धनोआ

General Qamar Javed Bajwa

अमानुल्लाह ख़ान
हाफिज़ मुहम्मद सईद
मसूद अज़हर
सैयद सलाहुद्दीन
फजलुर रहमान खलील
Farooq Kashmiri
Arfeen Bhai (until 1998)
Bakht Zameen

कश्मीर विवाद कश्मीर पर अधिकार को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच १९४७ से जारी है। भारत में विलय के लिए विलय-पत्र पर दस्तखत किए थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर को इसे मंजूरी दी। विलय-पत्र का खाका हूबहू वही था जिसका भारत में शामिल हुए अन्य सैकड़ों रजवाड़ों ने अपनी-अपनी रियासत को भारत में शामिल करने के लिए उपयोग किया था।[2] न इसमें कोई शर्त शुमार थी और न ही रियासत के लिए विशेष दर्जे जैसी कोई मांग। इस वैधानिक दस्तावेज पर दस्तखत होते ही समूचा जम्मू और कश्मीर, जिसमें पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला क्षेत्र भी शामिल है, भारत का अभिन्न अंग बन गया।

यह उस क्षेत्र पर विवाद है जो भारत और पाकिस्तान के बीच तीन युद्धों और कई अन्य सशस्त्र झड़पों में आगे बढ़ा। भारत इस क्षेत्र के लगभग 45% भू-भाग को नियंत्रित करता है जिसमें जम्मू, कश्मीर घाटी, लद्दाख का अधिकांश भाग, सियाचिन ग्लेशियर,[3] और इसकी 70% आबादी शामिल है; पाकिस्तान लगभग 35% भूमि क्षेत्र को नियंत्रित करता है जिसमें पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान शामिल हैं; और चीन शेष 20% भूमि क्षेत्र को नियंत्रित करता है जिसमें अक्साई चिन क्षेत्र, ज्यादातर निर्जन ट्रांस काराकोरम ट्रैक्ट और डेमचोक सेक्टर का हिस्सा शामिल है।[4][5][6][7][8][9][10]

स्थिति[संपादित करें]

यहां हम बात करेंगे कश्मीर की, जम्मू और लद्दाख की। भारत के इस उत्तरी राज्य के 3 क्षेत्र हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। दुर्भाग्य से भारतीय राजनेताओं ने इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति समझे बगैर इसे एक राज्य घोषित कर दिया, क्योंकि ये तीनों ही क्षे‍त्र एक ही राजा के अधीन थे। सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से ही जम्मू और लद्दाख भारत के साथ खुश हैं, लेकिन कश्मीर खुश क्यों नहीं? हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि पाकिस्तान की चाल में फिलहाल 2 फीसदी कश्मीरी ही आए हैं बाकी सभी भारत से प्रेम करते हैं। यह बात महबूबा मुफ्ती अपने एक इंटरव्यू में कह चुकी हैं। लंदन के रिसर्चरों द्वारा पिछले साल राज्य के 6 जिलों में कराए गए सर्वे के अनुसार एक व्यक्ति ने भी पाकिस्तान के साथ खड़ा होने की वकालत नहीं की, जबकि कश्मीर में कट्टरपंथी अलगाववादी समय समय पर इसकी वकालत करते रहते हैं जब तक की उनको वहां से आर्थिक मदद मिलती रहती है। वहीं से हुक्म आता है बंद और पत्थरबाजी का और उस हुक्म की तामिल की जाती है। आतंकवाद, अलगाववाद, फसाद और दंगे- ये 4 शब्द हैं जिनके माध्यम से पाकिस्तान ने दुनिया के कई मुल्कों को परेशान कर रखा है। खासकर भारत उसके लिए सबसे अहम टारगेट है। क्यों? इस ‘क्यों’ के कई जावाब हैं। भारत के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है। भारतीय राजनेता निर्णय लेने से भी डरते हैं या उनमें शुतुरमुर्ग प्रवृत्ति विकसित हो गई है। अब वे आर या पार की लड़ाई के बारे में भी नहीं सोच सकते क्योंकि वे पूरे दिन आपस में ही लड़ते रहते हैं, बयानबाजी करते रहते हैं। सीमा पर सैनिक मर रहे हैं पूर्वोत्तर में जवान शहीद हो रहे हैं इसकी भारतीय राजनेताओं को कोई चिंता नहीं। इस पर भी उनको राजनीति करना आती है। कहते जरूर हैं कि देशहित के लिए सभी एकजुट हैं लेकिन लगता नहीं है।

ये विचारणीय हैं : बात कश्मीर की है तो दोनों ही तरफ के कश्मीर के लोग चाहे वे मुसलमान हो या गैर-मुस्लिम, जहालत और दुखभरी जिंदगी जी रहे हैं। मजे कर रहे हैं तो अलगाववादी, आतंकवादी और उनके आका। उनके बच्चे देश-विदेश में घूमते हैं और सभी तरह के ऐशोआराम में गुजर-बसर करते हैं। भारतीय कश्मीर के हालात तो पाकिस्तानी कश्मीर से कई गुना ज्यादा अच्छे हैं। पाक अधिकृत कश्मीर से कई मुस्लिम परिवारों ने आकर भारत में शरण ले रखी है। पाकिस्तान ने दोनों ही तरफ के कश्मीर को बर्बाद करके रख दिया है। भूटान के 10वें हिस्से जितने क्षेत्रफल वाले ‘लैंड लॉक्ड आजाद देश’ से न भारत का भला होगा, न कश्मीरी मुसलमानों का। पाकिस्तान और चीन का इससे जरूर भला हो जाएगा और अंतत: यह होगा कि इसके कुछ हिस्से पाकिस्तान खा जाएगा और कुछ को चीन निगल लेगा। चीन ने तो कुछ भाग निगल ही लिया है। यह बात कट्टरपंथी कश्मीरियों को समझ में नहीं आती और वे समझना भी नहीं चाहते।

ये इतिहास है : 1947 को विभा‍जित भारत आजाद हुआ। उस दौर में भारतीय रियासतों के विलय का कार्य चल रहा था, जबकि पाकिस्तान में कबाइलियों को एकजुट किया जा रहा था। इधर जूनागढ़, कश्मीर, हैदराबाद और त्रावणकोर की रियासतें विलय में देर लगा रही थीं तो कुछ स्वतंत्र राज्य चाहती थीं। इसके चलते इन राज्यों में अस्थिरता फैली थी। जूनागढ़ और हैदराबाद की समस्या से कहीं अधिक जटिल कश्मीर का विलय करने की समस्या थी। कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक थे लेकिन पंडितों की तादाद भी कम नहीं थी। कश्मीर की सीमा पाकिस्तान से लगने के कारण समस्या जटिल थी अतः जिन्ना ने कश्मीर पर कब्जा करने की एक योजना पर तुरंत काम करना शुरू कर दिया। हालांकि भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो चुका था जिसमें क्षेत्रों का निर्धारण भी हो चुका था फिर भी जिन्ना ने परिस्थिति का लाभ उठाते हुए 22 अक्टूबर 1947 को कबाइली लुटेरों के भेष में पाकिस्तानी सेना को कश्मीर में भेज दिया। वर्तमान के पा‍क अधिकृत कश्मीर में खून की नदियां बहा दी गईं। इस खूनी खेल को देखकर कश्मीर के शासक राजा हरिसिंह भयभीत होकर जम्मू लौट आए। वहां उन्होंने भारत से सैनिक सहायता की मांग की, लेकिन सहायता पहुंचने में बहुत देर हो चुकी थी। नेहरू की जिन्ना से दोस्ती थी। वे यह नहीं सोच सकते थे कि जिन्ना ऐसा कुछ कर बैठेंगे। लेकिन जिन्ना ने ऐसे कर दिया।

भारत विभाजन के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ढुलमुल नीति और अदूरदर्शिता के कारण कश्मीर का मामला अनसुलझा रह गया। यदि पूरा कश्मीर पाकिस्तान में होता या पूरा कश्मीर भारत में होता तो शायद परिस्थितियां कुछ और होतीं। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता था, क्योंकि कश्मीर पर राजा हरिसिंह का राज था और उन्होंने बहुत देर के बाद निर्णय लिया कि कश्मीर का भारत में विलय किया जाए। देर से किए गए इस निर्णय के चलते पाकिस्तान ने गिलगित और बाल्टिस्तान में कबायली भेजकर लगभग आधे कश्मीर पर कब्जा कर लिया।

भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाते हुए, उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीरी क्षेत्र को पुनः प्राप्त करते हुए तेजी से आगे बढ़ रही थी कि बीच में ही 31 दिसंबर 1947 को नेहरूजी ने यूएनओ से अपील की कि वह पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी लुटेरों को भारत पर आक्रमण करने से रोके। फलस्वरूप 1 जनवरी 1949 को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध-विराम की घोषणा कराई गई। इससे पहले 1948 में पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में अपनी सेना को भारतीय कश्मीर में घुसाकर समूची घाटी कब्जाने का प्रयास किया, जो असफल रहा।

नेहरूजी के यूएनओ में चले जाने के कारण युद्धविराम हो गया और भारतीय सेना के हाथ बंध गए जिससे पाकिस्तान द्वारा कब्जा किए गए शेष क्षेत्र को भारतीय सेना प्राप्त करने में फिर कभी सफल न हो सकी। आज कश्मीर में आधे क्षेत्र में नियंत्रण रेखा है तो कुछ क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा। अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगातार फायरिंग और घुसपैठ होती रहती है।

इसके बाद पाकिस्तान ने अपने सैन्य बल से 1965 में कश्मीर पर कब्जा करने का प्रयास किया जिसके चलते उसे मुंह की खानी पड़ी। इस युद्ध में पाकिस्तान की हार हुई। हार से तिलमिलाए पाकिस्तान ने भारत के प्रति पूरे देश में नफरत फैलाने का कार्य किया और पाकिस्तान की समूची राजनीति ही कश्मीर पर आधारित हो गई यानी कि सत्ता चाहिए तो कश्मीर को कब्जाने की बात करो। इसका परिणाम यह हुआ कि 1971 में उसने फिर से कश्मीर को कब्जाने का प्रयास किया। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका डटकर मुकाबला किया और अंतत: पाकिस्तान की सेना के 1 लाख सैनिकों ने भारत की सेना के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया और ‘बांग्लादेश’ नामक एक स्वतंत्र देश का जन्म हुआ। इंदिरा गांधी ने यहां एक बड़ी भूल की। यदि वे चाहतीं तो यहां कश्मीर की समस्या हमेशा-हमेशा के लिए सुलझ जाती, लेकिन वे जुल्फिकार अली भुट्टो के बहकावे में आ गईं और 1 लाख सैनिकों को छोड़ दिया गया।

इस युद्ध के बाद पाकिस्तान को समझ में आ गई कि कश्मीर हथियाने के लिए आमने-सामने की लड़ाई में भारत को हरा पाना मुश्किल ही होगा। 1971 में शर्मनाक हार के बाद काबुल स्थित पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में सैनिकों को इस हार का बदला लेने की शपथ दिलाई गई और अगले युद्ध की तैयारी को अंजाम दिया जाने लगा लेकिन अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने लगे। 1971 से 1988 तक पाकिस्तान की सेना और कट्टरपंथी अफगानिस्तान में उलझे रहे। यहां पाकिस्तान की सेना ने खुद को गुरिल्ला युद्ध में मजबूत बनाया और युद्ध के विकल्पों के रूप में नए-नए तरीके सीखे। यही तरीके अब भारत पर आजमाए जाने लगे।

पहले उसने भारतीय पंजाब में आतंकवाद शुरू करने के लिए पाकिस्तानी पंजाब में सिखों को ‘खालिस्तान’ का सपना दिखाया और हथियारबद्ध सिखों का एक संगठन खड़ा करने में मदद की। पाकिस्तान के इस खेल में भारत सरकार उलझती गई। स्वर्ण मंदिर में हुए दुर्भाग्यपूर्ण ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार और उसके बदले की कार्रवाई के रूप में 31 अक्टूबर 1984 को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारत की राजनीति बदल गई। एक शक्तिशाली नेता की जगह एक अनुभव और विचारहीन नेता राजीव गांधी ने जब देश की बागडोर संभाली तो उनके आलोचक कहने लगे थे कि उनके पास कोई योजना नहीं और कोई नीति भी नहीं है। 1984 के दंगों के दौरान उन्होंने जो कहा, उसे कई लोगों ने खारिज कर दिया। उन्होंने कश्मीर की तरफ से पूरी तरह से ध्यान हटाकर पंजाब और श्रीलंका में लगा दिया। इंदिरा गांधी के बाद भारत की राह बदल गई। पंजाब में आतंकवाद के इस नए खेल के चलते पाकिस्तान की नजर एक बार फिर मुस्लिम बहुल भारतीय कश्मीर की ओर टिक गई। उसने पाक अधिकृत कश्मीर में लोगों को आतंक के लिए तैयार करना शुरू किया। अफगानिस्तान का अनुभव यहां काम आने लगा था। तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जिया-उल-हक ने 1988 में भारत के विरुद्ध ‘ऑपरेशन टोपाक’ नाम से ‘वॉर विद लो इंटेंसिटी’ की योजना बनाई। इस योजना के तहत भारतीय कश्मीर के लोगों के मन में अलगाववाद और भारत के प्रति नफरत के बीज बोने थे और फिर उन्हीं के हाथों में हथियार थमाने थे।

कई बार मुंह की खाने के बाद पाकिस्तान ने अपने से ज्यादा शक्तिशाली शत्रु के विरुद्ध 90 के दशक में एक नए तरह के युद्ध के बारे में सोचना शुरू किया और अंतत: उसने उसे ‘वॉर ऑफ लो इंटेंसिटी’ का नाम दिया। दरअसल, यह गुरिल्ला युद्ध का ही विकसित रूप है।

भारतीय राजनेताओं को सब कुछ मालूम था लेकिन फिर भी वे चुप थे, क्योंकि उन्हें भारत से ज्यादा वोट की चिंता थी, गठजोड़ की चिंता थी, सत्ता में बने रहने की चिंता था। भारतीय राजनेताओं के इस ढुलमुल रवैये के चलते कश्मीर में ‘ऑपरेशन टोपाक’ बगैर किसी परेशानी के चलता रहा और भारतीय राजनेता शुतुरमुर्ग बनकर सत्ता का सुख लेते रहे। कश्मीर और पूर्वोत्तर को छोड़कर भारतीय राजनेता सब जगह ध्यान देते रहे। ‘ऑपरेशन टोपाक’ पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे चरण में पहुंच गया। अब उनका इरादा सिर्फ कश्मीर को ही अशांत रखना नहीं रहा, वे जम्मू और लद्दाख में भी सक्रिय होने लगे। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और उसके बाद आतंकवाद का सिलसिला चल पड़ा। पहले चरण में मस्जिदों की तादाद बढ़ाना, दूसरे में कश्मीर से गैरमुस्लिमों और शियाओं को भगाना और तीसरे चरण में बगावत के लिए जनता को तैयार करना। अब इसका चौथा और अंतिम चरण चल रहा है। अब सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए जाते हैं और सरेआम भारत की खिलाफत ‍की जाती है, क्योंकि कश्मीर घाटी में अब गैरमुस्लिम नहीं बचे और न ही शियाओं का कोई वजूद है।

कश्मीर में आतंकवाद के चलते करीब 7 लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए और वे जम्मू सहित देश के अन्य हिस्सों में जाकर रहने लगे। इस दौरान हजारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया। हालांकि अभी भी कश्मीर घाटी में लगभग 3 हजार कश्मीरी पंडित रहते हैं लेकिन अब वे घर से कम ही बाहर निकल पाते हैं।

ब्रिटेन की ओर से विवाद शुरू करने की बात को स्वीकार करना[संपादित करें]

ब्रिटेन के पूर्व विदेश मंत्री जैक स्ट्रॉ के अनुसार कश्मीर विवाद और अरब-इसराइल टकराव जैसी समस्याएँ ब्रिटेन के औपनिवेशिक अतीत की उपज हैं। भारत की स्वतंत्रता के समय ब्रितानी शासन ने ढुलमुल रवैया अपनाया था जो इस विवाद का कारण बना।[11]

स्थिति के लिए नेहरू पर आरोप[संपादित करें]

भाजपा के वरिष्ठ नेता व सांसद शांता कुमार ने कहा कि कश्मीर का विवाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की देन है। आजादी के बाद पाकिस्तान सेना ने हमला कर दिया और इसके जवाब में जब भारतीय सेना ने आक्रमण किया तो पूरे कश्मीर को जीतने से पहले ही भारत सरकार ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी।[12]

पाकिस्तान का पक्ष[संपादित करें]

पाकिस्तान के विदेशी मामलों और राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज ने कश्मीर विवाद को उठाते हुए दोनों मुल्कों के बीच मुख्य मुद्दा बताया। प्रधान मंत्री नवाज़ शरीफ ने पाक अधिकृत कश्मीर की विधानसभा में एक सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि जब तक कश्मीरी जनता की महत्वाकांक्षाओं के अनुसार इस विवाद का हल नहीं किया जाता, यह क्षेत्र ‘अविश्वास और तनाव’ की गिरफ्त में बना रहेगा।[13]

कश्मीर युद्ध[संपादित करें]

1947-1948 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, कभी-कभी प्रथम कश्मीर युद्ध के रूप में जाना जाता था, भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर के रियासत और 1947 से 1948 तक जम्मू के बीच लड़ा गया था। यह चार भारत-पाकिस्तान युद्धों में से पहला था दो नए स्वतंत्र राष्ट्र कश्मीर को सुरक्षित करने के प्रयास में पाकिस्तान ने वजीरिस्तान से आदिवासी लश्कर (मिलिशिया) का शुभारंभ करके आजादी के कुछ हफ्तों बाद पाकिस्तान युद्ध शुरू कर दिया था, जिसकी भविष्य में शेष राशि में लटका हुआ था। युद्ध के अनिर्णायक परिणाम अभी भी दोनों देशों के भू राजनीति को प्रभावित करता है। महाराजा को पुंछ में अपने मुस्लिम विषयों द्वारा विद्रोह का सामना करना पड़ा, और अपने राज्य के पश्चिमी जिलों पर नियंत्रण खो दिया। 22 अक्टूबर 1947 को, पाकिस्तान की पश्तून आदिवासी सेनाएं राज्य की सीमा पार कर गईं। ये स्थानीय जनजातीय लड़ाकों और अनियमित पाकिस्तानी सेनाएं श्रीनगर ले जाने के लिए चली गईं, लेकिन बारमूला तक पहुंचने पर वे लूट ले गए और स्थगित हो गए। हरि सिंह ने भारत की सहायता के लिए एक याचिका दायर की और सहायता की पेशकश की गई, लेकिन यह भारत के लिए एक समझौता करने के साधन पर हस्ताक्षर करने के अधीन था।

युद्ध शुरू में जम्मू एवं कश्मीर राज्य बलों [पेज की जरूरत] और उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती प्रांत से जुड़े फ्रंटियर आदिवासी इलाकों से आदिवासियों द्वारा लड़ा गया था। [25] राज्य के प्रवेश के बाद, भारतीय सेनाओं को राज्य की राजधानी श्रीनगर से हवा में उठाया गया। ब्रिटिश कमांडरों के अधिकारियों ने शुरू में पाकिस्तान के सैनिकों को भारत में प्रवेश के हवाले से संघर्ष में प्रवेश से इनकार कर दिया। [23] हालांकि, बाद में 1948 में, वे चिंतित थे और पाकिस्तानी सेनाओं ने इसके बाद युद्ध में प्रवेश किया था। नियंत्रण रेखा के रूप में जाना जाने के साथ-साथ मोर्चों को धीरे-धीरे दृढ़ किया गया। 31 दिसंबर 1948 की रात को एक औपचारिक युद्धविराम 23:59 बजे घोषित किया गया। : 37 9 युद्ध का परिणाम अनिर्णायक था। हालांकि, अधिकांश तटस्थ मूल्यांकन मानते हैं कि भारत युद्ध के विजेता था क्योंकि यह कश्मीर घाटी, जम्मू और लद्दाख सहित लगभग दो-तिहाई कश्मीर का सफलतापूर्वक बचाव करने में सक्षम था।

भारत-पाकिस्तानी युद्ध[संपादित करें]

1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध पाकिस्तान और भारत के बीच अप्रैल 1965 और सितंबर 1965 के बीच हुई झड़पों की परिणति थी। पाकिस्तान के ऑपरेशन जिब्राल्टर के बाद यह संघर्ष शुरू हुआ, जिसे भारतीय शासन के खिलाफ विद्रोह के लिए जम्मू-कश्मीर में सेना घुसाने के लिए डिजाइन किया गया था। भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान पर एक पूर्ण पैमाने पर सैन्य हमले शुरू करने का जिक्र किया। सत्रह दिन के युद्ध ने दोनों पक्षों पर हज़ारों हताहतों की संख्या पैदा की और बख़्तरबंद वाहनों की सबसे बड़ी भागीदारी और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सबसे बड़ी टैंक लड़ाई देखी। [1 9] [20] संयुक्त राष्ट्र के अनिवार्य युद्धविराम के बाद सोवियत संघ और संयुक्त राज्य द्वारा राजनयिक हस्तक्षेप के बाद घोषित किए जाने और ताशकंद घोषणापत्र के बाद जारी होने के बाद दोनों देशों के बीच की लड़ाई समाप्त हो गई। [21] अधिकांश युद्ध कश्मीर में देश की जमीन बलों और भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा से लड़ा गया था। 1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन के बाद से इस युद्ध ने कश्मीर में सैनिकों का सबसे बड़ा हथियार देखा, जो कि भारत और पाकिस्तान के बीच 2001-2002 के सैन्य गतिरोध के दौरान ही ढंके हुए थे। अधिकांश युद्धपोत पैदल सेना और बख्तरबंद इकाइयों का विरोध करते हुए, वायु सेना से पर्याप्त समर्थन के साथ, और नौसेना के संचालन से लड़े गए। युद्ध ने पाकिस्तान के सैन्य प्रशिक्षण के अपर्याप्त मानकों, इसके गुमराहे के चयन के अधिकारियों, गरीब कमांड और नियंत्रण व्यवस्था, खराब खुफिया जानकारी और बुरी बुद्धिमत्ता प्रक्रियाओं का पर्दाफाश किया। इन कमियों के बावजूद, पाकिस्तानी सेना बड़ी भारतीय सेना से लड़ने में कामयाब रही। [22] इस युद्ध के अन्य विवरण, जैसे अन्य भारत-पाकिस्तान युद्धों की तरह, अस्पष्ट रहते हैं। [23]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Ganguly, Sumit; Paul Kapur (7 August 2012). India, Pakistan, and the Bomb: Debating Nuclear Stability in South Asia. Columbia University Press. पपृ॰ 27–28. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0231143752.
  2. "भारत में कश्मीर का विलय?".
  3. Malik, V. P. (2010). Kargil from Surprise to Victory (paperback संस्करण). HarperCollins Publishers India. पृ॰ 54. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789350293133.
  4. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Time नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  5. "Kashmir: region, Indian subcontinent". Encyclopædia Britannica
  6. "Jammu & Kashmir". European Foundation for South Asian Studies. अभिगमन तिथि 4 May 2020.
  7. Snow, Shawn (19 September 2016 Mr Dinesh kushwaha). "Analysis: Why Kashmir Matters". The Diplomat. अभिगमन तिथि 4 May 2020. |date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  8. Hobbs, Joseph J. (13 March 2008). World Regional Geography. CengageBrain. पृ॰ 314. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0495389507.
  9. Ie Ess Wor Reg Geog W/Cd. Thomson Learning EMEA. 2002. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780534168100. India now holds about 55% of the old state of Kashmir, Pakistan 30%, and China 15%.
  10. Margolis, Eric (2004). War at the Top of the World: The Struggle for Afghanistan, Kashmir and Tibet (paperback संस्करण). Routledge. पृ॰ 56. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781135955595.
  11. "संग्रहीत प्रति". मूल से 13 अगस्त 2004 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 फ़रवरी 2014.
  12. "संग्रहीत प्रति". मूल से 21 फ़रवरी 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 फ़रवरी 2014.
  13. "संग्रहीत प्रति". मूल से 6 मार्च 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 फ़रवरी 2014.