कलिंग युद्ध

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कलिंग युद्ध
मौर्य साम्राज्य की विजय का भाग
कलिंग युद्ध से पहले मौर्य साम्राज्य का विस्तार
कलिंग युद्ध के बाद मौर्य साम्राज्य का विस्तार

तिथि शुरू ल. 262 ईशा पूर्व,
अंत ल. 261 ईशा पूर्व,
अशोक महान के राज्याभिषेक के 8वें वर्ष 268 ईसा पूर्व में
स्थान कलिंग, भारत
परिणाम निर्णायक मौर्य विजय[1]
क्षेत्रीय
बदलाव
कलिंग का मौर्य साम्राज्य में विलय
योद्धा
मौर्य साम्राज्य कलिंग साम्राज्य
सेनानायक
अशोक महान Unknown
शक्ति/क्षमता
Unknown Unknown
मृत्यु एवं हानि
Unknown 1,00,000 कलिंग सैनिक मारे गए,
1,50,000 कलिंग सैनिक निर्वासित किए गए,
(आंकड़े अशोक द्वारा दिए गए 13वे शिलालेख में )[2][3]


अशोक के तेरहवें अभिलेख के अनुसार उसने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद कलिंग युद्ध लड़ा और गिरनार के आठवें शिला अभिलेख के अनुसार वो 10वे वर्ष संघ में शामिल हो गए । यह युद्ध २६२-२६१ ई.पू. मे लड़ा गया इसमें सम्राट अशोक विजयी हुवे। सम्राट अशोक द्वारा आरंभित कलिंग युद्ध में लाखों कलिंग सैनिकों की मौत हो गई, जिससे अशोक महान को पछतावा हुआ, हालांकि उसने कलिंग को जीत लिया। एक क्रूर 'चंडशोक' से वह 'धर्माशोक' बन गया।[4] उसने धर्म को अपनाया और शांति और अहिंसा का संदेश दूर-दूर तक फैलाया।[5]

जौगड़ उड़ीसा के 'गंजाम ज़िले' में स्थित है, जहाँ से मौर्य सम्राट अशोक के 'चतुर्दश शिलालेख' प्राप्त हुए हैं। इन शिलालेखों को 'ग्यारहवें और तेरहवें लेखों' के स्थान के नाम से भी जाना जाता है जो कलिंग युद्ध के पश्चात सम्राट अशोक द्वारा लिखवाए गए :

संव-मुनि-सा मे पजा अथ पजाये इछामि किंति में सवेणा हितसुखेन युजेयू अथ पजाये इछामि किंति मे सतेन हित-सु-खेन युजेयू ति हिदलोगिक- पाललोकिकेण हेवंमेव में इछ सवमुनिसेसु

–अशोक का जौगड़ शिलालेख, ओड़िशा[6]

अनुवादः सब मनुष्य मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार मै अपनी सन्तान के लिए मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा वह सब प्रकार के इहलौकिक तथा पारलौकिक त और सुख से युक्त हो, उसी प्रकार मेरी इच्छा सब मनुष्यों के सम्बन्ध में है।

1.अठ-बष-अभंसितस देवनप्रिअस प्रिअद्रशिस रजो कलिग विजित दिअढ-मत्रे प्रण-शत-महखे ये ततो अपवुढे शत-सहस्र मत्रे तत्र हते बहु-तवतके व मुटे
2. ततो पच अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे घ्रम-शिलन घ्रम-कमत भ्रमनुशस्ति च देवनंप्रियस सो अस्ति अनुसोचनं देवनप्रिअस विजिनिति कलिगनि
3. अविजितं हि विजिनमनो यो तत्र वध व मरणं व अपवहो व जनस तं बढं वेदनिय मतं गुरु-मतं.च. देवनंप्रियम इदं पि चु ततो गुरुमततरं देवनंप्रियस ये तत्र
4. वसित ब्रमण व श्रमण व अंजे व प्रषंड ग्रहथ व येसु विहित एष अग्रभुटिसुश्रुष मत-पितुषु सुश्रुष गुरुन सुश्रुष मित्र संस्तुत-सहय
5. अतिकेषु दस-भटकनं सम्म प्रतिपति द्रिढ-भतित तेष तत्र भोति अपग्रथो व वधो व अभिरतन व निक्रमणं येष व पि सुविहितनं सि ने हो अविप्रहिनो ए तेष मित्र संस्तुत-सहय- अतिक वसन .....

अशोक महान, प्रमुख शिलालेख संख्या 13

अनुवाद : "राजा प्रियदर्शी (अशोक) ने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद कलिंग को जीत लिया। जिसमें एक लाख पचास हजार कलिंग सैनिकों को बंदी बनाया गया, एक लाख को युद्धभूमि पर मार डाला गया और बहुत से और अन्य कारणों से और भी लोग मर गए। कलिंग को जीतने के बाद, देवताओं के प्रिय को धर्म पालन की ओर एक मजबूत प्रवृत्ति, धर्म के प्रति प्रेम और धर्म के निर्देश में प्रेम का अनुभव हुआ। अब देवताओं के प्रिय को कलिंग को जीतने पर गहरा पछतावा है। क्योंकि यह विजय कोई विजय नहीं है। इसमें वध, मरण और निष्कासन होता है। वह देवताओं के प्रिय के द्वारा अत्यन्त वेदनीय और गम्भीरता से अनुभव किया गया है। इससे भी अधिक गम्भीर देवनांप्रिय के लिए यह है की ब्राह्मण, श्रमण या अन्य सम्प्रदाय या गहस्थ रहते हैं जिनमें अग्रजों की सेवा, मातापिता की सेवा, गुरु सेवा, मित्र, परिचित, सहायक, ज्ञातिजनों तथा दास-भतकों के प्रति सद्व्यवहार और दढ़ स्नेह पाया जाता है। किन्तु युद्ध में वहाँ आघात, वध और प्रियजनों का निष्कासन होता है। यही सब मनुष्यों की दशा होती है। फिर भी जो सुव्यवस्थित स्नेह वाले होते हैं उनके मित्र, परिचित और ज्ञातिजन संकट को प्राप्त होते हैं।...

युद्ध के कारण[संपादित करें]

१-कलिंग पर विजय प्राप्त कर अशोक अपने साम्राज्य मे विस्तार करना चाहता था।

२-सामरिक दृष्टि से देखा जाए तो भी कलिंग बहुत महत्वपूर्ण था। स्थल और समुद्र दोनो मार्गो से दक्षिण भारत को जाने वाले मार्गो पर कलिंग का नियन्त्रण था।

३-यहाँ से दक्षिण-पूर्वी देशो से आसानी से सम्बन्ध बनाए जा सकते थे।

४- संपूर्ण भारत के सभी प्रांतों को अपने अधीन करने के बाद कलिंग ही बच गया था, इसके मौर्य के अधीन होने से विदेशी शक्तियों द्वारा भारत पर आक्रमण से सुरक्षा में आसानी हो गयी।

परिणाम[संपादित करें]

मौर्य साम्राज्य का विस्तार हुआ। इसकी राजधानी [तोशाली] बनाई गई। इसने अशोक की साम्राज्य विस्तार की नीति का अन्त कर दिया । इसने अशोक के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला। उसने अहिंसा, सत्य, प्रेम, दान, परोपकार का रास्ता अपना लिया। अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भी किया। उसने अपने संसाधन प्रजा की भलाई मे लगा दिए। उसने 'धम्म' की स्थापना की। उसने दूसरे देशो से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए।

  • दूसरे पृथक कलिंग लेख में अशोक अपने पड़ोसी राज्यों के प्रति अपने विचारों को इस प्रकार व्यक्त करता है-

"नं किं-छांजे सु लाजा अफेसू ति [ ।] एताका वा मे इछ अन्तेसु पापुनेयु लाजा हेवं इछति अनविगिन ह्वेयू ममियाये अस्वसेयु च मे सुखंमेव च लहेयू ममते नो दुखं [ ।] हेवं च पापुनेयु खमिसति ने लाजा ए सकिये खमितवे ममं निमितं च धंमं चलेयू ति हिदलोगं च पललोगं च आलाधयेयू [ ।] एताये"

— द्वितीय पृथक कलिंग शिलालेख[7]

अनुवाद : मेरे पड़ोसी राजाओं को मुझसे डरना नहीं चाहिए, वे मुझ पर विश्वास करें। उनको मुझसे सुख मिलेगा, दुःख नहीं। उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि राजा (सम्राट अशोक) जहां तक हो सकेगा उन्हें क्षमा करेगा। उन्हें मेरे कहने से धर्म का अनुसरण करना चाहिए जिससे इस लोक तथा परलोक का लाभ प्राप्त हो।

युद्धग्लानि से बौध्य बनना[संपादित करें]

शांति स्तूप, धौली पहाड़ी वह क्षेत्र माना जाता है जहां संभवत: कलिंग युद्ध लड़ा गया था।

सिंहली अनुश्रुतियों दीपवंश एवं महावंश के अनुसार, अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निगोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी। तत्पश्चात् मोगाली पुत्र तिष्य के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था। 'दिव्यावदान' के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षुक को जाता है। अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में अशोक ने सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की थी। तदुपरांत अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में लुंबिनी की यात्रा की थी और लुंबिनी ग्राम को कर-मुक्त घोषित कर दिया था।

अशोक के गिरनार के अष्टम शिलालेख की दूसरी लाइन मे सम्राट अशोक कहते है की उन्होंने बुद्ध मार्ग का अनुसरण राज्याभिषेक के 10 वर्ष किया । इसलिए इतिहास को किताबों में भी यही पढ़ाया जाता है इनके परिवर्तित होने के समकाल के बारे में । दीपवंश में भी लिखी है की उन्होंने युद्ध के बाद करीब 2 साल तक बुद्ध की विचार धारा समझने में लगाया फिर उन्होंने बुद्ध संघ को अपनाया। अशोक को बौध्य संघ मे लाने का श्रेय उसके भाई उपगुप्त को दिया जाता है जिसका पूर्व बौध्य बनने से पूर्व तिश्य था ।

गिरनार अष्टम शिला अभिलेख

1. अतिकातं अंतरं राजानो विहारयातां अयासु एत मगव्या अजानि च एतारिसनि
2. अभीरमकानि अहंसु सो दवानंप्रियो पियदसि राजा दसवसाभिसितो संतो अयाय संबोधि
3. तेनेसा धंमयाता एतयं होति बाम्हणसमणानं दसणे च दाने च धैरानं दसणे च
4. हिरंणपटिविधानो च जानपदस च जनस दस्पनं धंमानुसस्टी च धंमपरिपुछा च
5. तदोपया एसा भुय रति भवति देवानंप्रियस प्रियदसिनो राजो भागे अंबे ।

(हिन्दी अनुवाद)

1. अतीत काल में (बहुत वर्षों से) राजा लोग विहार यात्रा के लिये जाया करते थे। यहां (इन विहार यात्राओं में) शिकार तथा इसी प्रकार के अन्य

2. आमोद प्रमोद हुआ करते थे। देवानांप्रिय प्रियदर्शी राजा ने अपने राज्याभिषेक के दस वर्ष पश्चात् संबोधि (बौध्य संघ) के मार्ग का अनुसरण किया।

3. तब से उसने इस धर्म यात्रा का शुरवात किया । इस प्रकार की यात्रा में यह सब कुछ होता है जैसे- ब्राह्मणों व श्रमणों का दर्शन करना और उन्हें दान देना, वृद्धों का दर्शन करना और

4. उन्हें सुवर्णदान देना जनपद निवासियों से मिलना तथा उन्हें धर्मोपदेश देना तथा उनके समीप जाकर उनसे धर्मसम्बन्धी चर्चा करना ।

कलिंग युद्ध और उसका परिणाम[संपादित करें]

तात्कालिक लाभ

कलिंग मगध साम्राज्य का एक प्रान्त बना लिया गया तथा राजकुल का कोई राजकुमार वहाँ का उपराजा (वायसराय) नियुक्त कर दिया गया। कलिंग में दो अधीनस्थ प्रशासनिक केन्द्र स्थापित किये गये –

  • उत्तरी केन्द्र ( राजधानी – तोसलि ) तथा
  • दक्षिणी केन्द्र ( राजधानी – जौगढ़)।

कलिंग ने फिर कभी स्वतन्त्र होने की चेष्टा नहीं की। मौर्य साम्राज्य की पूर्वी सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गयी। यह कलिंग युद्ध का तात्कालिक लाभ था।

दूरगामी परिणाम

परन्तु कलिंग युद्ध की हृदय विदारक हिंसा एवं नरसंहार की घटनाओं ने अशोक के हृदय-स्थल को स्पर्श किया और उसके दूरगामी परिणाम हुये। कलिंग युद्ध में हताहतों की संख्या से और हृदयविदारक भीषण परिणाम से अशोक अत्यंत दुखी हुए। उनके १३वें बृहद शिला लेख के अनुसार –

  • सो अस्ति अनुसोचनं देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [ । ]

अतः सम्राट अशोक ने धर्मपालन, धर्म की इच्छा और धर्मानुशासन को युद्ध पर वरीयता देना आरम्भ कर दिया। इसी को १३वें बृहद शिला प्रज्ञापन में इस तरह व्यक्त किया गया है —

  • ततो पचो अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्रमशिलनं ध्रमकमत ध्रमनुशस्ति च देवनं प्रियसर [ । ]

अपनी इस उद्घोषणा के लिये सम्राट अशोक ने कलिंग के लिये दो पृथक शिलाप्रज्ञापन स्थापित करके उद्घोषणा की –  कि ‘सब मनुष्य ( प्रजा )मेरी सन्तान हैं। जिस प्रकार सन्तान के लिए मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा वह सब प्रकार के इहलौकिक तथा पारलौकिक हित एवं सुख से युक्त हों, उसी प्रकार मेरी इच्छा सब मनुष्यों के सम्बन्ध में है।’

  • “सव-मुनि सा मे पजा [ । ] अथ पजाये इछामि किंति में सवेणा हितसुखेन युजेयू अथ पजाये इछामि किंति मे सवेन हित-सु- खेन युजेयू ति हिदलोगिक-पाललोकिकेण हेवंमेव में इछ सवमुनिसेसु [ । ]”

इस तरह अब सम्राट अशोक की नीति में स्थायी और दूरगामी परिणाम हुआ जिसका प्रभाव भारतीय इतिहास के स्वर्णिम काल का प्रतिनिधित्व करने वाले थे। यह एक विलक्षण उदाहरण है कि एक सम्राट ने जो समस्त विश्व विजय के लिये प्रयाण कर सकता था उसने प्रजा और जीवमात्र के लिये अपने साम्राज्य के समस्त संशाधनों को निवेशित कर दिया।

इस परिवर्तन को विभिन्न इतिहासकारों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायित किया है।

कलिंग युद्ध पर टिप्पणी करते हुये हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है — ‘मगध तथा समस्त भारत के इतिहास में कलिंग की विजय एक महत्त्वपूर्णघटना थी। इसके बाद मौर्यों की जीतों तथा राज्य विस्तार का वह दौर समाप्त हुआ जो बिम्बिसार द्वारा अंग राज्य को जीतने के बाद से प्रारम्भ हुआ था। इसके बाद एक नये युग का सूत्रपात हुआ और यह युग था – शान्ति, सामाजिक प्रगति तथा धार्मिक प्रचार का। यहीं से सैन्य विजय तथा दिग्विजय का युग समाप्त हुआ तथा आध्यात्मिक विजय और धम्मविजय का युग प्रारम्भ हुआ।[8]

इस प्रकार कलिंग युद्ध ने अशोक के हृदय में महान् परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। उसका हृदय मानवता के प्रति दया एवं करुणा से उद्वेलित हो गया तथा उसने युद्ध-क्रियाओं को सदा के लिये बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। यह अपने आप में एक आश्चर्यजनक घटना थी जो विश्व इतिहास में सर्वथा बेजोड़ है। इस समय से सम्राट अशोक बौद्ध धर्मानुयायी बन गये तथा उन्होंने अपने साम्राज्य के सभी उपलब्ध साधनों को जनता के भौतिक एवं नैतिक कल्याण में नियोजित कर दिया।

अशोक की धार्मिक नीति[संपादित करें]

यद्यपि अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था, तथापि उसने किसी दूसरे धर्म व सम्प्रदाय के प्रति भी अनादर एवं असहिष्णुता प्रदर्शित नहीं की। विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के प्रति उदारता की अशोक की नीति का पता उसके विभिन्न अभिलेखों से भी लगता है।

12वें अभिलेख में अशोक कहता है,

यो हि कोचटि आत्पपासण्डं पूजयति परसासाण्डं व गरहति सवं आत्पपासण्डभतिया किंति आत्पपासण्डं दिपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासण्डं बाढ़तरं उपहनाति [ । ] त समवायों एव साधु किंति अञमञंस धंमं स्रुणारु च सुसंसेर च [ । ] एवं हि देवानं पियस इछा किंति सब पासण्डा बहुस्रुता च असु कलाणागमा च असु

12वा प्रमुख अभिलेख[9]

अनुवाद : मनुष्य को अपने संप्रदाय का आदर और दूसरे संप्रदाय की अकारण निन्दा नहीं करना चाहिए। जो कोई अपने संप्रदाय के प्रति और उसकी उन्नति की लालसा से दूसरे संप्रदाय की निन्दा करता है वह वस्तुतः अपने संप्रदाय की ही बहुत बड़ी हानि करता है। लोग एक-दूसरे के धम्म को सुनें। इससे सभी संप्रदाय बहुश्रुत (अर्थात् एक दूसरे के मत के अधिक ज्ञान वाले होंगे) तथा संसार का कल्याण होगा।

अशोक का यह कथन उसकी सर्वधर्म समभाव की नीति का परिचायक है। यही नीति उसके निम्न कार्यों में भी परिलक्षित होती है[10]-

  • राज्याभिषेक के 12वें वर्ष अशोक ने बराबर (गया जिला) की पहाड़ियों पर आजीवक सम्प्रदाय के संन्यासियों को निवास हेतु गुफाएँ निर्मित कराकर प्रदान की थीं, जैसे सुदामा गुफा और कर्णचौपर गुफा।
  • यवन जातिय तुषास्प को अशोक ने काठियावाड़ प्रान्त का गवर्नर नियुक्त किया। तुषास्प ने सुदर्शन झील से नहरें निकलवायीं। सुदर्शन झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के समय सौराष्ट्र प्रान्त के गवर्नर पुष्यगुप्त ने करवाया था। राज्यतरंगिणी से पता चलता है कि अशोक ने कश्मीर के विजयेश्वर नामक शैव मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था।
  • अशोक ने इसी प्रकार की भावना अपने सप्तम शिला लेख में भी इस प्रकार की है-

"देवानां पियो पियदसिराजा रछति सबै पाषण्डा बसेयु। सवे ते संयमं च भावशुद्धि च इछति। जनो तु उचाउच छन्दो उचाउच रागो। ते सर्वे व कासन्ति एक देसं. व कासन्ति। विपुले तु पि दाने यस नास्ति। संयमें भवसुचिता व कतनता व दड़मतिता च निचावाई"

–सप्तम प्रमुख शिलालेख[11]

अनुवाद : देवानां प्रियदर्शी (सम्राट अशोक) की इच्छा है कि सर्वत्र सभी सम्प्रदाय निवास करें। वे सभी संयम और भाव शुद्धि चाहते हैं किन्तु लोगों के ऊँच-नीच विचार और भाव होते हैं। वे या तो सम्पूर्ण कर्त्तव्य करते हैं अथवा उसका अंश। जिसने बहुत दान दिया हैं किन्तु यदि उसने संयम, भावशुद्धि, कृतज्ञता, दृढ़- भक्ति नहीं है तो वह (दान) निश्चय ही निम्न कोटि का है।


सभी सम्प्रदायों के कल्याण तथा उनमें धम्म की प्रतिस्थापना के उद्देश्य से धर्म-महाभर्भाव नामक अधिकारियों की नियुक्ति ।
–प्रमुख शिलालेख 5

लोकप्रिय संस्कृति में[संपादित करें]

  • लेखक अंशुल दुपारे की पुस्तक "अशोक एंड द नाइन अननोन" कलिंग युद्ध के परिणामों पर आधारित है।[12]

बाहरी कड़ियां[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. “Page 61: "Asoka's inscriptions credit him with only one conquest, viz, that of Kalinga."Munishi, K.M. (1953). The Age Of Imperial Unity Volume II. पृ॰ 60-63.
  2. Ashoka (साँचा:Reign BCE), Edicts of Ashoka, Major Rock Edict 13.
  3. Radhakumud Mookerji (1988). Chandragupta Maurya and His Times. Motilal Banarsidass Publ. ISBN 81-208-0405-8.
  4. Sastri 1988, pp 211-12
  5. Senāpati, Rabīndra Mohana (2004). Art and Culture of Orissa. Public Resource. Publications Division, Ministry of Information & Broadcasting, Government of India. पृ॰ 9. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-230-1171-4.
  6. Pandey Rajbali (1910). Ashok Ke Abhilekh Vasundhara Durga Kand. पृ॰ 106.
  7. Banarshidas, Motilal (2021-04-11). Bhartiya Puralekhon ka Adhyayan ,Part-1. पृ॰ 113.
  8. H. C. Ray Chaudhary 1953, पृ॰ 306-07.
  9. Baudha Dharm Darshan Dharma Nirapekshata Of Ramesh Kumar Dwivedi Sampurnananda Sanskrit University. पृ॰ 76.
  10. Shrivastava, Dr Brajesh Kumar (2023-11-25). NEP Bharat Ka Rajnitik Itihas भारत का राजनीतिक इतिहास Political History Of India [B. A. Ist Sem (Prachin Itihas) (Major & Minor)]. SBPD Publications. पृ॰ 75.
  11. Ashoka's Inscriptions /अशोक कालीन अभिलेख. 2021-09-26. पृ॰ 41.
  12. "Ashok and the Nine Unknown".