औद्योगिक क्रांति

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पावरलूम बुनाई का चित्रण

अट्ठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में कुछ पश्चिमी देशों के तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति में काफी बड़ा बदलाव आया। इसे ही औद्योगिक क्रान्ति (Industrial Revolution) के नाम से जाना जाता है। यह सिलसिला प्रारम्भ होकर पूरे विश्व में फैल गया। "औद्योगिक क्रांति" शब्द का इस संदर्भ में उपयोग सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक "लेक्चर्स ऑन दि इंड्स्ट्रियल रिवोल्यूशन इन इंग्लैंड" में सन् 1844 में किया।[1]

औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात वस्त्र उद्योग के मशीनीकरण के साथ आरम्भ हुआ।जिसमे रोजगार, निवेश की गयी पूँजी और उत्पादित माल का मूल्य आदि की दृष्टि से वस्त्र उद्योग ही औद्योगिक क्रांति का सबसे प्रमुख उद्योग था। वस्त्र उद्योग में ही सबसे पहले उत्पादन की 'आधुनिक' विधियों का उपयोग हुआ।[2] इसके साथ ही लोहा बनाने की तकनीकें आयीं और शोधित कोयले का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। कोयले को जलाकर बने भाप की शक्ति का उपयोग होने लगा। शक्ति-चालित मशीनों (विशेषकर वस्त्र उद्योग में) के आने से उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई। उन्नीसवी सदी के प्रथम् दो दशकों में पूरी तरह से धातु से बने औजारों का विकास हुआ। इसके परिणामस्वरूप दूसरे उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के निर्माण को गति मिली। उन्नीसवी शताब्दी में यह पूरे पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका में फैल गयी। विभिन्न इतिहासकार औद्योगिक क्रान्ति की समयावधि अलग-अलग मानते नजर आते हैं और इसके समाज पर प्रभाव के विषय में भी मतैक्य नहीं है। [3]कुछ इतिहासकार इसे क्रान्ति मानने को ही तैयार नहीं हैं।

इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि पिछले दो वित्तीय वर्षों यानी वित्त वर्ष 2019-20 और वित्त वर्ष 2020-21 के लिए धुबरी और पांडु के बीच ब्रह्मपुत्र में न्यूनतम उपलब्ध गहराई 2.2 मीटर थी। हाल की एलएडी रिपोर्ट के अनुसार, यह गहराई जनवरी, 2022 khanabdulमें और कम होकर 1.5 मीटर तक आ गई। चिलमारी से दाइखावा तक, बिटवा ने 2.2 मीटर की आवश्यक गहराई की पुष्टि की।

इतिहास[संपादित करें]

1835 में कार्यरत एक रॉबर्ट्स लूम । औद्योगिक क्रांति के समय वस्त्र उद्योग ही प्रमुख उद्योग था। कारखाने यंत्रीकृत हो गए जिनको एक केन्द्रीय (सेन्ट्रलाइज्ड) जल-चक्र से या भाप के इंजन से चलाया जाता था।
सन् १८६८ में जर्मनी के केमनीज (Chemnitz) शहर के एक कारखाने का मशीन-हाल

16वीं तथा 17वीं शताब्दियों में यूरोप के कुछ देशों ने अपनी नौसैैन्य शक्ति के आधार पर दूसरे महाद्वीपों पर आधिपत्य जमा लिया। उन्होंने वहाँ पर धर्म तथा व्यापार का प्रसार किया। उस युग में मशीनों का आविष्कार बहुत कम हुआ था। जहाज लकड़ी के ही बनते थे। जिन वस्तुओं का भार कम परंतु मूल्य अधिक होता उनकी बिक्री सात समुद्र पार भी हो सकती थी। उस युग में नए व्यापार से धनोपार्जन का एक नया प्रबल साधन प्राप्त किया और कृषि का महत्व कम होने लगा। व्यक्तियों में किसी सामंत की प्रजा के रूप में रहने की भावना का अंत होने लगा। अमरीका के स्वाधीन होने तथा फ्रांस में "भ्रातृत्व, समानता और स्वतंत्रता" के आधार पर होनेवाली क्रांति ने नए विचारों का सूत्रपात किया। प्राचीन शृंखलाओं को तोड़कर नई स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होने की भावना का आर्थिक क्षेत्र में यह प्रभाव हुआ कि गाँव के किसानों में अपना भाग्य स्वयं निर्माण करने की तत्परता जाग्रत हुई। वे कृषि का व्यवसाय त्याग कर नए अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। यह विचारधारा 18वीं शताब्दी के अंत में समस्त यूरोप में व्याप्त हो गई।

इंग्लैंड में उन दिनों कुछ नए यांत्रिक आविष्कार हुए। जेम्स के फ़्लाइंग शटल (1733), हारग्रीव्ज़ की स्पिनिंग जेनी (1767), आर्कराइट के वाटर पावर स्पिनिंग फ़्रेम (1769), क्रांपटन के म्यूल (1779),हम्फ्री डेवी (1815) और कार्टराइट के पावर लूम (1785) से वस्त्रोत्पादन में पर्याप्त गति आई। जेम्स वाट के भाप के इंजन (1789) का उपयोग गहरी खानों से पानी को बाहर फेंकने के लिए किया गया। जल और वाष्प शक्ति का धीरे-धीरे उपयोग बढ़ा और एक नए युग का सूत्रपात हुआ। भाप के इंजन में सर्दी, गर्मी, वर्षा सहने की शक्ति थी, उससे कहीं भी 24 घंटे काम लिया जा सकता था। इस नई शक्ति का उपयोग यातायात के साधनों में करने से भौगोलिक दूरियाँ कम होने लगीं। लोहे और कोयले की खानों का विशेष महत्व प्रकट हुआ और वस्त्रों के उत्पादन में मशीनों का काम स्पष्ट झलक उठा।

इंग्लैंड में नए स्थानों पर जंगलों में खनिज क्षेत्रों के निकट नगर बसे; नहरों तथा अच्छी सड़कों का निर्माण हुआ और ग्रामीण जनसंख्या अपने नए स्वतंत्र विचारों को क्रियान्वित करने के अवसर का लाभ उठाने लगी। देश में व्यापारिक पूँजी, उद्यमिता तथा अनुभव को नयाक्षेत्र मिला। व्यापार विश्वव्यापी हो सका। देश की मिलों को चलाने के लिए कच्चे माल की आवश्यकता हुई, उसे अमरीका तथा एशिया के देशों से प्राप्त करने के उद्देश्य से उपनिवेशों की स्थापना की गई। कच्चा माल प्राप्त करने और तैयार माल बेचने के साधन भी वे ही उपनिवेश हुए। नई व्यापारिक संस्थाओं, बैकों और कमीशन एजेंटों का प्रादुर्भाव हुआ। एक विशेष व्यापक अर्थ में दुनिया के विभिन्न हिस्से एक दूसरे से संबद्ध होने लगे। 18वीं सदी के अंतिम 20 वर्षों में आरम्भ होकर 19वीं के मध्य तक चलती रहने वाली इंग्लैंड की इस क्रांति का अनुसरण यूरोप के अन्य देशों ने भी किया।

हॉलैंड (वर्तमान नीदरलैंड), फ्रांस में शीघ्र ही, तथा जर्मनी, इटली आदि राष्ट्रों में बाद में, यह प्रभाव पहुँचा। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यापारियों ने अपने-अपने राज्यों में धन की वृद्धि की और बदले में सरकारों से सैन्य सुविधाएँ तथा विशषाधिकार माँगे। इस प्रकार आर्थिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में व्यापार तथा सेना का यह सहयोग उपनिवेशवाद की नींव को सुदृढ़ करने में सहायक हुआ। राज्यों के बीच, अपने देशों की व्यापारनीति को प्रोत्साहन देने के प्रयास में, उपनिवेशों के लिए युद्ध भी हुए। उपनिवेशों का आर्थिक जीवन "मूल राष्ट्र" की औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति करनेवाला बन गया। स्वतंत्र अस्तित्व के स्थान पर परावलंबन उनकी विशेषता बन गई। जिन देशों में औद्योगिक परिवर्तन हुए वहाँ मानव बंधनों से मुक्त हुआ, नए स्थानों पर नए व्यवसायों की खोज में वह जा सका, धन का वह अधिक उत्पादन कर सका। किंतु इस विकसित संपत्ति का श्रेय किसी हो और उसक प्रतिफल कौन प्राप्त करे, ये प्रश्न उठने लगे। 24 घंटे चलनेवाली मशीनों को सँभालनेवाले मजदूर भी कितना काम करें, कब और किस वेतन पर करें, इन प्रश्नों पर मानवता की दृष्टि से विचार किया जाने लगा। मालिक-मजदूर-संबंधों को सहानुभूतिपूर्ण बनाने की चेष्टाएँ होने लगीं। मानव मुक्त तो हुआ, पर वह मुक्त हुआ धनी या निर्धन होने के लिए, भरपेट भोजन पाने या भूखा रहने के लिए, वस्त्रों का उत्पादन कर स्वयं वस्त्रविहीन रहने के लिए। अतएव दूसरे पहलू पर ध्यान देने के लिए शासन की ओर से नए नियमों की आवश्यकता पड़ी, जिनकी दिशा सदा मजदूरों की कठिनाइयाँ कम करने, उनका वेतन तथा सुविधाएँ बढ़ाने तथा उन्हें उत्पादन में भागीदार बनाने की ओर रही।

इस प्रकार 18वीं शताब्दी के अंतिम 20 वर्षों में फ्रांस की राज्यक्रांति से प्रेरणा प्राप्त कर इंग्लैंड में 19वीं शताब्दी में विकसित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। उत्पादन की नई विधियों और पैमानों का जन्म हुआ। यातायात के नए साधनों द्वारा विश्वव्यापी बाजार का जन्म हुआ। इन्ही सबसे संबंधित आर्थिक एवं सामाजिक परिणामों का 50 वर्षों तक व्याप्त रहना क्रांति की संज्ञा इसलिए पा सका कि परिवर्तनों की वह मिश्रित शृंखला आर्थिक-सामाजिक-व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन की जन्मदायिनी थी।

औद्योगिक क्रांति के कारण[संपादित करें]

  • कृषि क्रांति
  • जनसंख्या विस्फोट
  • व्यापार प्रतिबंधों की समाप्ति
  • उपनिवेशों का कच्चा माल तथा बाजार
  • पूंजी तथा नयी प्रौद्योगिकी
  • पुनर्जागरण काल और प्रबोधन
  • राष्ट्रवाद
  • कारखाना प्रणाली
  • हाथों की बजाय मशीनों द्वारा कार्य

औद्योगिक क्रांति का प्रभाव[संपादित करें]

औद्योगिक क्रांति का मानव समाज पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। मानव समाज के इतिहास में दो प्रसिद्ध क्रांतियां हुई जिन्होंने मानव इतिहास को सर्वाधिक प्रभावित किया। एक क्रांति उस समय हुई जब उत्तर पाषाण युग में मानव ने शिकार छोड़कर पशुपालन एवं कृषि का पेशा अपनाया तो दूसरी क्रांति वह है जब आधुनिक युग में कृषि छोड़कर व्यवसाय को प्रधानता दी गई। [4] इस औद्योगिक क्रांति से उत्पादन पद्धति गहरे रूप से प्रभावित हुई। श्रम के क्षेत्र में मानव का स्थान मशीन ने ले लिया। उत्पादन में मात्रात्मक व गुणात्मक परिवर्तन आया। धन सम्पदा में भारी वृद्धि हुई। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भी बढ़ा। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का विस्तार भी औद्योगिक क्रांति का परिणाम था एवं नए वर्गों का उदय हुआ। इस क्रांति से किसी वर्ग को पूंजी जमा करने और शोषण करने का मौका मिला तो शोषित वर्ग को उस शोषण चक्र से मुक्ति के लिए तरह-तरह के प्रयत्न करने पड़े। फलतः श्रमिक आंदोलनों का जन्म हुआ। इतना ही नहीं इस क्रांति ने सांस्कृतिक रूपांतरण को भी गति प्रदान की तथा समाज में एक मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आया। प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन एवं प्रयोग तथा प्रकृति पर अधिकार करने की योग्यता से मानव का आत्मविश्वास ऊँचा हुआ। औद्योगिक क्रांति के परिणाम और प्रभावों को निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है।

आर्थिक परिणाम[संपादित करें]

१८४० में इंग्लैण्ड के मानचेस्तर का चित्रण ; कारखानों की चिमनियाँ देखिए
1781 में लोहे से निर्मित विश्व के प्रथम पुल का उद्घाटन हुआ। (Shropshire, England)
  • उत्पादन में असाधारण वृद्धि : कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन शीघ्र एवं अधिक कुशलता से भारी मात्रा में होने लगा। इन औद्योगिक उत्पादों को आंतरिक और विदेशी बाजारों में पहुंचाने के लिए व्यापारिक गतिविधियां तेज हुई जिससे औद्योगिक देश धनी बनने लगे। इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था उद्योग प्रधान हो गई। वहां औद्योगिक पूंजीवाद का जन्म हुआ। औद्योगिक एवं व्यापारिक निगमों का विस्तार हुआ। इन निगमो ने अपना विस्तार करने के लिए अपनी पूंजी की प्रतिभूतियां (Securities) बेचना आरंभ किया। इस तरह उत्पादन की असाधारण वृद्धि ने एक नई आर्थिक पद्धति को जन्म दिया।
  • शहरीकरण : बदलते आर्थिक परिदृश्य के कारण गांवों के कुटीर उद्योगों का पतन हुआ। फलतः रोजगार के तलाश में लोग शहरों की ओर भागने लगे क्योंकि अब बड़े-बड़े उद्योग जहां स्थापित हुए थे, वहीं रोजगार की संभावनाएं थी। स्वाभाविक तौर पर शहरीकरण की प्रक्रिया तीव्र हो गई। नए शहर अधिकतर उन औद्योगिक केन्द्रों के आप-पास विकसित हुए जो लोहे, कोयले और पानी की व्यापक उपलब्धता वाले स्थानों के निकट थे। नगरों का उदय व्यापारिक केन्द्र के रूप में, उत्पादन केन्द्र, बंदरगाह नगरों के रूप में हुआ। शहरीकरण की प्रक्रिया केवल इंग्लैंड तक सीमित नहीं रही बल्कि फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, इटली आदि में भी विस्तारित हुई। इस तरह शहरे अर्थव्यवस्था के आधार बनने लगे।
  • आर्थिक असंतुलन : औद्योगिक क्रांति से आर्थिक असंतुलन राष्ट्रीय समस्या के रूप में सामने आया। विकसित और पिछड़े देशों के मध्य आर्थिक असमानता की खाई गहरी होती चली गई। औद्योगीकृत राष्ट्र अविकसित राष्ट्रों का खुलकर शोषण करने लगे। आर्थिक साम्राज्यवाद का युग आरंभ हुआ। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर औपनिवेशिक साम्राज्यवादी व्यवस्था मजबूत हुई। औद्योगिक क्रांति के बाद राष्ट्रों की आपसी निर्भरता बहुत अधिक बढ़ गई जिससे एक देश में घटने वाली घटना दूसरे देश को सीधे प्रभावित करने लगी। फलतः अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक तेजी एवं मंदी का युग आरंभ हुआ।
  • बैकिंग एवं मुद्रा प्रणाली का विकास : औद्योगिक क्रांति ने संपूर्ण आर्थिक परिदृश्य को बदल दिया। उद्योग एवं व्यापार में बैंक एवं मुद्रा की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। विश्व मे सबसे पहले इंग्लैंड मे बैंकों की शुरुवात हुई बैंकों के माध्यम से लेन-देन सुगम हुआ, चेक और ड्राफ्ट का प्रयोग बढ़ गया। मुद्रा के क्षेत्र में भी विकास हुआ। धातु के स्थान पर कागजी मुद्रा का प्रचलन हुआ।
  • कुटीर उद्योगों का विनाश : औद्योगिक क्रांति का नकारात्मक परिणाम था कुटीर उद्योगों का विनाश। किन्तु यहाँ समझने की बात यह है कि यह नकारात्मक परिणाम औद्योगिक देशों पर नहीं बल्कि औपनिवेशिक देशों पर पड़ा। दरअसल औद्योगिक देशों में कुटरी उद्योगों के विनाश से बेरोजगार हुए लोगों को नवीन उद्योगों के रूप में एक विकल्प प्राप्त हो गया। जबकि उपनिवेशों में इस वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था नहीं हो पाई। भारत के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है।
  • मुक्त व्यापार : औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप संरक्षणवाद के स्थान पर मुक्त व्यापार की नीति अपनाई गई। 1813 के चार्टर ऐक्ट के तहत इंग्लैंड ने EIC के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर मुक्त व्यापार की नीति को बढ़ावा दिया।

सामाजिक परिणाम[संपादित करें]

  • जनसंख्या में वृद्धि : औद्योगिक क्रांति ने जनसंख्या वृद्धि को संभव बनाया। वस्तुतः कृषि क्षेत्र में तकनीकी प्रयोग ने खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर भोजन आवश्यकता की पूर्ति की। दूसरी तरफ यातायात के उन्नत साधनों के माध्यम से मांग के क्षेत्रों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर तथा उनकी पूर्ति कराकर भोजन की आवश्यकता को पूरा किया गया । बेहतर पोषण एवं विकसित स्वास्थ्य एवं औषधि विज्ञान के कारण नवजात शिशु एवं जीवन की औसत आयु में वृद्धि हुई। फलतः मृत्यु दर में कमी आई।
  • नए सामाजिक वर्गों का उदय : औद्योगिक क्रांति ने मुख्य रूप से तीन नए वर्गों को जन्म दिया। प्रथम पूंजीवादी वर्ग, जिसमें व्यापारी और पूंजीपति सम्मिलित थे। द्वितीय मध्यम वर्ग, कारखानों के निरीक्षक, दलाल, ठेकेदार, इंजीनियर, वैज्ञानिक आदि शामिल थे। तीसरा श्रमिक वर्ग जो अपने श्रम और कौशल से उत्पादन करते थे।

    विभिन्न वर्गों के उदय ने सामाजिक असंतुलन की स्थिति पैदा की। पूंजीपति वर्ग आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रभावी हो गया। ब्रिटिश संसद में उनका वर्चस्व था। मध्यम वर्ग बहुआयामी गतिविधियों में संलग्न था। यह अत्यंत महात्वाकांक्षी वर्ग था। अपने हितों के लिए यह वर्ग श्रमिकों को साथ लेकर उच्च वर्ग को नियंत्रित करने का प्रयास करता था। 1832 के ऐक्ट के तहत् बुुुुर्जुआ वर्ग की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हुआ। वस्तुतः 19वीं सदी तो बुर्जुआ युग के नाम जानी जाती है।

श्रमिक वर्ग अब कारखानों में काम करने लगा। उसे कम वेतन पर प्रायः 12-15 घंटे काम करना पड़ता था। फलतः उसका शोषण बढ़ा। कारखानों में प्रकाश, वायु और स्वच्छता का अभाव रहता था। उनका जीवन, आवास, शिक्षा, भोजन आदि का उचित प्रबंध नहीं होने के कारण नारकीय होने लगा। फलतः श्रमिक अंसतोष ने श्रमिक आंदोलनों को जन्म दिया। उन आंदोलनों से सामाजिक तनाव भी पैदा हुआ।

  • मानवीय संबंधों में गिरावट : परम्परागत, भावानात्मक मानवीय संबंधों का स्थान आर्थिक संबंधों ने ले लिया। जिन श्रमिकों के बल पर उद्योगपति समृद्ध हो रहे थे उनसे मालिक न तो परिचित था और न ही परिचित होना चाहता था। उद्योगों में प्रयुक्त होने वाली मशीन और तकनीकी ने मानव को भी मशीन का एक हिस्सा बना दिया। मानव-मानव का संबंध टूट गया और वह अब मशीन से जुड़ गया। फलतः संवेदनशीलता प्रभावित हुई। वर्तमान की सर्वप्रमुख समस्या के यप में में इसे समझा जा सकता है।

    औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप संयुक्त परिवार को आघात पहुंचा। वस्तुतः कृषि अर्थव्यवस्था में संयुक्त परिवार प्रथा का बहुत महत्व था। किन्तु औद्योगीकरण के बाद व्यक्ति का महत्व बढ़ने लगा और व्यक्ति अब घर से दूर जाकर कारखानों में काम करने लगा। जहां उसे परिवार रखने की सुविधा भी प्राप्त नहीं थी। इस तरह एकल परिवार को बढ़ावा मिला।
  • नैतिक मूल्यों में गिरावट : नए औद्योगिक समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट आई। भौतिक प्रगति से शराब और जुए का प्रचार बढ़ा। अधिक समय तक काम करने के बाद थकावट मिटाने के लिए श्रमिकों में नशे का चलन बढ़ा। पे्रमचंद ने "गोदान" में इस स्थिति का सजीव चित्रण किया है। इतना ही नहीं औद्योगिक केन्द्रों पर वेश्यावृत्ति फैलने लगी। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति बढ़ने से भ्रष्टाचार एवं अपराधों को बढ़ावा मिला।
१८७१ में ग्लासगो की एक मलिन-बस्ती (slum)
  • शहरी जीवन में गिरावट : शहरों में जनसंख्या के अत्यधिक वृद्धि के कारण निचले तबके को आवास, भोजन, पेयजल आदि का अभाव भुगतना पड़ता था। अत्यधिक जनसंख्या के कारण औद्योगिक केन्द्रों के आस-पास कच्ची बस्तियों का विस्तार होने लगा जहां गंदगी रहती थी। फलस्वरूप महामारी का प्रकोप भी होने लगा और श्रमिक वर्ग का स्वास्थ्य रूप से प्रभावित होने लगा।
  • सांस्कृतिक परिवर्तन : औद्योगिक क्रांति से पुराने रहन-सहन के तरीकों, वेश-भूषा, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यता, कला-साहित्य, मनोरंजन के साधनों में परिवर्तन हुआ। परम्परागत शिक्षा पद्धति के स्थान पर रोजगारपरक तकनीकी एवं प्रबन्धकीय शिक्षा का विकास हुआ।
  • बाल-श्रम : औद्योगिक क्रांति ने बाल-श्रम को बढ़ावा दिया और बच्चों से उनका “बचपन” छीन लिया। इस समस्या से आज सारा विश्व जूझ रहा है।
  • महिला आंदोलनों का जन्म : औद्योगिक क्रांति ने कामगारों की आवश्यकता को जन्म दिया जो केवल पुरूषों से पूरा नहीं हो पा रहा था। अतः स्त्री की भागीदारी कामगार वर्ग में हुई। अब स्त्रियों की ओर से भी अधिकारों की मांगे उठने लगी, उनमें चेतना जागृत हुई।

राजनीतिक परिणाम[संपादित करें]

समाजवादी विचारधारा: औद्योगिक क्रांति से कामगारों और मजदूरों की दशा जहां सोचनीय हुई, वहीं पूंजीपतियों की दशा में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। पूंजीपति अपना मुनाफा और बढ़ाने के लिए श्रमिकों का शोषण करने लगे। फलतः श्रमिकों की दशा और भी ज्यादा गिर गई। फलतः कुछ विचारकों ने मजदूरों की दशा सुधारने के लिए एक नवीन विचारधारा का प्रतिपादन किया जिसे समाजवादी विचारधारा कहते हैं। उनके अनुसार उत्पादन के साधनों पर एक व्यक्ति का अधिकार नही होना चाहिए बल्कि पूरे समाज का अधिकार होना चाहिए। इस संदर्भ में ब्रिटेन के उद्योगपति रॉबर्ट ओवेन, सेंट साइमन (फ्रांस), लुई ब्लां जैसे विचारकों का नाम महत्वपूर्ण है। किन्तु 1848 ई. में कार्ल मार्क्स एवं एन्जेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र जारी कर वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना की। औद्योगिक श्रमिकों को 'सर्वहारा' की संज्ञा दी जिसके पास खोने के लिए पांव की बेडि़यों के अतिरिक्त कुछ नहीं था और जीतने के लिए सारा संसार पड़ा था।

अन्य वैचारिक धारणाएँ भी औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न हुई जिसमें उपयोगितावाद, स्वच्छंदवाद (Romanticism) आदि प्रमुख हैं। आगे चलकर औद्योगिक क्रांति से वैश्वीकरण, (ग्लोबलाइजेशन), ग्लोबल वार्मिग, उपभोक्तावाद (कन्ज्यूमरिज्म) जैसी विचारधाराएं अस्तित्व में आई।

उपर्युक्त विवरण एवं विश्लेषण से स्पष्ट है कि औद्योगिक क्रांति ने मानव समाज को गहरे रूप से प्रभावित किया। इसके परिणामस्वरूप नई अर्थव्यवस्था ने एक नवीन समाज की रचना की। जिसकी तार्किक परिणति राजनीतिक, वैचारिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक इत्यादि क्षेत्रों में परिवर्तन के रूप में हुई। इसी परिवर्तन को "क्रांति" नामक शब्द से संबोधित किया गया क्योंकि औद्योगिक क्रांति के प्रभाव अर्थव्यवस्था तक सिमित रहकर विविध क्षेत्रों में व्यापकतापूर्वक हुए।

भारत में औद्योगिक क्रांति[संपादित करें]

प्राचीन काल में भारत एक संपन्न देश था। भारतीय कारीगरों द्वारा निर्यात माल अरब, मिस्र, रोम, फ्रांस तथा इंग्लैण्ड के बाजारों में बिकता था और भारतवर्ष से व्यापार करने के लिए विदेशी राष्ट्रों में होड़ सी लगी रहती थी। इसी उद्देश्य से सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना इंग्लैण्ड में हुई। यह कंपनी भारत में बना हुआ माल इंग्लैण्ड ले जाकर बेचती थी। भारतीय वस्तुएँ, विशेषकर रेशम और मखमल के बने हुए कपड़े, इंग्लैण्ड में बहुत अधिक पसंद की जाती थी; यहाँ तक कि इंग्लैण्ड की महारानी भी भारतीय वस्त्रों को पहनने में अपना गौरव समझती थीं। परंतु यह स्थिति बहुत दिनों तक बनी न रह सकी। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में माल बड़े पैमाने पर तैयार होने लगा और यह उपनिवेशों में बेचा जाने लगा। अंग्रेज व्यापारियों को अपनी सरकार का पूरा-पूरा सहयोग प्राप्त था। भारतीय कारीगर निर्बल और बिखरे हुए थे; अतएव वे मशीन की बनी वस्तुओं से प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ रहे। फलत: उन्हें अपना पुश्तैनी पेशा छोड़कर खेती का सहारा लेना पड़ा। इस प्रकार औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप भारतीय उद्योग धंधों का नाश हो गया तथा लाखों कारीगर भूखे मरने लगे। औद्योगिक क्रांति, जो इंग्लैण्ड के लिए वरदान स्वरूप थी, भारतीय उद्योगों के लिए अभिशाप सिद्ध हुई।

कई अर्थशास्त्रियों ने इस बात पर अपने विचार व्यक्त किए हैं कि औद्योगिक क्रांति चीन या भारत में न होकर यूरोप में क्यों हुई जबकि चीन के पास प्रिंटिंग प्रेस तथा मुवेबल टाइप (movable type) दोनों थे तथा भारत का वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों का स्तर भी अट्ठारहवीं शताब्दी के यूरोप के समतुल्य था।

आधुनिक रूप से भारतवर्ष का औद्योगीकरण 1850 ई. से प्रारंभ हुआ। सन् 1853-54 में भारत में रेल और तार की प्रणाली प्रारंभ हुई। यद्यपि रेल बनाने का मुख्य उद्देश्य कच्चे माल का निर्यात तथा निर्मित माल का आयात करना था, तो भी रेलों से भारतीय उद्योगों को विशेष सहायता मिली। प्रारंभ में भारतीय पूँजी से कुछ सूती मिलें और कोयले की खदानें स्थापित की गईं। धीरे-धीरे ये उद्योग बहुत उन्नत हो गए। कुछ समय के पश्चात् कागज बनाने और चमड़े के कारखाने भी स्थापित हो गए और 1908 ई. में भारतवर्ष में प्रथम बार लोहे और इस्पात का कारखाना भी प्रारंभ हुआ। प्रथम महायुद्ध (1914-1918) के अनंतर उद्योगों की उन्नति में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुई। सन् 1922 और 1939 ई. के बीच सूती कपड़ों का निर्माण दुगुना और कागज का उत्पादन ढाई गुना हो गया। 1932 ई. में शक्कर के कारखानों की स्थापना भी हुई और 1935-36 ई. में वे देश की 95 प्रतिशत आवश्यकताओं की पूर्ति करने लगे।

द्वितीय महायुद्ध काल में भारतीय उद्योगों ने और भी अधिक उन्नति की। पुराने उद्योगों की उत्पादन शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई और अनेक नवीन उद्योगों की भी स्थापना हुई। भारत में डीज़ल इंजन, पंप, बाइसिकलें, कपड़ा सीने की मशीनें, कास्टिक सोडा, सोड ऐश, क्लोरिन, आदि का उत्पादन प्रारंभ हुआ तथा देश के इतिहास में पहली बार वायुयानों, मोटरकारों तथा जहाजों की मरम्मत करने का कार्य प्रारंभ हुआ। द्वितीय महायुद्ध के अंत तक भारतवर्ष की गणना विश्व के प्रथम आठ औद्योगिक राष्ट्रों में होने लगी। उस समय भारतीय कंपनियों में लगी हुई कुल पूँजी 424.2 करोड़ रु. थी तथा उद्योगों में 25 लाख मजदूर कार्य करते थे। भारत शक्कर, सीमेंट तथा साबुन के क्षेत्र में पूर्णत: आत्मनिर्भर था तथा जूट के क्षेत्र में तो उसका एकाधिपत्य था।

स्वतंत्रताप्राप्ति के उपरांत औद्योगिक उन्नति का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। राष्ट्रीय सरकार ने देश की सर्वांगीण उन्नति के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनाईं। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल में सरकार ने 101 करोड़ रुपए की राशि उद्योगों में विनियोजित की तथा रासायनिक खाद, इंजन, रेल के डिब्बे, पेनीसिलिन, डी.डी.टी. तथा न्यूज़प्रिंट (अखबारों का कागज) बनाने के कारखानों की स्थापना की। देश के पूँजीपतियों ने भी, इस काल में, 340 करोड़ रुपए की पूँजी लगाकर अनेक नए कारखाने खोले तथा पुराने कारखानों की उत्पादन शक्ति बढ़ाई। द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य देश की औद्योगिक प्रगति को तीव्रतर करना था।

औद्योगिक क्रांति से सम्बंधित व्यक्ति[संपादित करें]

प्रमुख आविष्कार[संपादित करें]

बेसेमर कन्वर्टर - जो ढलवाँ लोहे को इस्पात में बदलने का कार्य करता था। (Kelham Island Museum, Sheffield, Inglaterra ; 2002)

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Hudson, Pat (1992). The Industrial Revolution. London: Edward Arnold. p. 11. ISBN 978-0-7131-6531-9.
  2. David S. Landes (1969). The Unbound Prometheus. Press Syndicate of the University of Cambridge. ISBN 978-0-521-09418-4.
  3. Eric Hobsbawm, The Age of Revolution: Europe 1789–1848, Weidenfeld & Nicolson Ltd., p. 27 ISBN 0-349-10484-0
  4. McCloskey, Deidre (2004). "Review of The Cambridge Economic History of Modern Britain (edited by Roderick Floud and Paul Johnson), Times Higher Education Supplement, 15 January 2004" Archived 2019-09-21 at the वेबैक मशीन