आनन्दलहरी

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आनंदलहरी भगवती भुवनेश्वरी (पार्वती) की स्तुति में विरचित 103 स्तोत्रों का संग्रह है जिसे आद्य शंकराचार्य की कृति कहा जाता है। इसका 'सौंदर्यलहरी' नाम विशेष प्रसिद्ध है। कुछ विद्वानों का अब यह मत हो चला है कि यह रचना बाद के किसी शंकराचार्य की है किंतु जनमत अभी इस पक्ष में नहीं है। काव्य की दृष्टि से तो यह रचना सौंदर्यपूरति है ही, तांत्रिक रहस्यों के समावेश के कारण इसमें दुरूहता भी भरी हुई है। आश्चर्य होता है कि आद्य शंकराचार्य ने अपनी 32 वर्षों की अल्पायु में अन्य कृतियों, यात्राओं आदि के बीच समय निकालकर इसकी रचना कैसे की। भारत के सभी मतानुयायी और भाषायी क्षेत्रों में इसका समादर है तथा कई विदेशी भाषाओं में भी इसका अनुवाद हो चुका है। भुवनेश्वरी (पार्वती) के स्तुतिरूप में कहे गए इन 103 श्लोकों में महान्‌ तांत्रिक ज्ञान निहित है।

इसका 11वां श्लोक विशेष महत्वपूर्ण है (तंत्रशास्त्र की दृष्टि से) जिसमें 43 दलोंवाले 'श्रीयंत्र' का वर्णन है। मध्य में बिंदु के स्थान पर शिव हैं। इसके बाद चतुरस्र यंत्र में श्रीकंठ आदि चार शंकर, पाँच कोणों में पाँच शिवयुवती, इसके बाद नौ कोणों में नौ मूल प्रकृति और बाद के आठ कोणों में कुसुमा आदि आठ देवियाँ। तब 16 कोणों में श्री आदि 16 देवियाँ और फिर तीन रेखाओं में चतुर्द्वार। इस प्रकार 43 कोणों को माँ भुवनेश्वरी के चरण बतलाकर प्रत्येक कोण में एक देवी की स्थापना की गई है। यह तांत्रिकों के अध्ययन साधना की सामग्री प्रस्तुत करता है।

कुछ पांडुलिपियों में केवल 100 स्तोत्र मिलते हैं।

स्तोत्र[संपादित करें]

भवानि स्तोतुं त्वां प्रभवति चतुर्भिर्न वदनैः
प्रजानामीशानस्त्रिपुरमथनः पंचभिरपि।

न षड्भिः सेनानीर्दशशतमुखैरप्यहिपति-
स्तदामन्येषां केषां कथय कथमस्मिन्नवसरः॥१॥

घृतक्षीरद्राक्षामधुमधुरिमा कैरपि पदै-
र्विशिष्यानाख्येयो भवति रसनामात्रविषयः।
तथा ते सौन्दर्यं परमशिवदृंमात्रविषयः
कथंकारं ब्रूमः सकलनिगमागोचरगुणे॥२॥

मुखे ते तांबूलं नयनयुगले कज्जलकला
ललाटे काश्मीरं विलसति गले मौक्तिकलता।
स्फुरत्कांची शाटी पृथुकटितटे हाटकमयी
भजामि त्वां गौरीं नगपतिकिशोरीमविरतम्॥३॥

विराजन्मन्दारद्रुमकुसुमहारस्तनतटी-
नदद्वीणानादश्रवणविलसत्कुण्डलगुणा।
नतांगी मातंगी रुचिरगतिभंगी भगवती
सती शंभोरंभोरुहचटुकचक्षुर्विजयते॥४॥

नवीनार्कभ्राजन्मणिकनकभूषापरिकरै-
र्वृतांगी सारंगीरुचिरनयनांगीकृतशिवा।
तटित्पीता पीतांबरललितमज्जीरसुभगा
ममापर्णा पूर्णा निरवधिसुखैरस्तु सुमुखी॥५॥

हिमाद्रेः संभूता सुललितकरैः पल्लवयुता
सुपुष्पा मुक्ताभिर्भ्रमरकलिता चालकभरैः।
कृतस्थाणुस्थाना कुचफलनता सूक्तिसरसा
रुजां हन्त्री गन्त्री विलसति चिदानन्दलतिका॥६॥

सपर्णामाकीर्णां कतिपयगुणैः सादरमिह
श्रयन्त्यन्ये वल्लीं मम तु मतिरेवं विलसति।
अपर्णैका सेव्या जगति सकलैर्यत्परिवृतः
पुराणोऽपि स्थाणुः फलति किल कैवल्यपदवीम्॥७॥

विधात्री धर्माणां त्वमसि सकलांनायजननी
त्वमर्थानां मूलं धनदनमनीयां‌घ्रिकमले।
त्वमादिः कामानां जननि कृतकन्दर्पविजये
सतां मुक्तेर्बीजं त्वमसि परमब्रह्ममहिषी॥८॥

प्रभूता भक्तिस्ते यदपि न ममालोलमनस-
स्त्वया तु श्रीमत्या सदयमवलोक्योऽहमधुना।
पयोदः पानीयं दिशति मधुरं चातकमुखे
भृशं शंके कैर्वा विधिभिरनुनीता मम मतिः॥९॥

कृपापांगालोकं वितर तरसा साधुचरिते
न ते युक्तोपेक्षा मयि शरणदीक्षामुपगते।
न चेदिष्टं दद्यादनुपदमहो कल्पलतिका
विशेषः सामान्यैः कथमितरवल्लीपरिकरैः॥१०॥

महान्तं विश्वासं तव चरणपंकेरुहयुगे
निधायान्यन्नैवाश्रितमिह मया दैवतमुमे।
तथापि त्वच्चेतो यदि मयि न जायेत सदयं
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥११॥

अयः स्पर्शे लग्नं सपदि लभते हेमपदवीं
यथा रथ्यापाथः शुचि भवति गंगौघमिलितम्।
तथा तत्तत्पापैरतिमलिनमन्तर्मम यदि
त्वयि प्रेम्णा सक्तं कथमिव न जायेत विमलम्॥१२॥

त्वदन्यस्मादिच्छाविषयफललाभे न नियम-
स्त्वमज्ञानामिच्छाधिकमपि समर्था वितरणे।
इति प्राहुः प्रांचः कमलभवनाद्यास्त्वयि मन-
स्त्वदासक्तं नक्तंदिवमुचितमीशानि कुरु तत्॥१३॥

स्फुरन्नानारत्नस्फटिकमयभित्तिप्रतिफल-
त्त्वदाकारं चंचच्छशधरकलासौधशिखरम्।
मुकुन्दब्रह्मेन्द्रप्रभृतिपरिवारं विजयते
तवागारं रंयं त्रिभुवनमहाराजगृहिणि॥१४॥

निवासः कैलासे विधिशतमखाद्याः स्तुतिकराः
कुटुंबं तॆलोक्यं कृतकरपुटः सिद्धिनिकरः।
महेशः प्राणेशस्तदवनिधराधीशतनये
न ते सौभाग्यस्य क्वचिदपि मनागस्ति तुलना॥१५॥

वृषो वृद्धो यानं विषमशनमाशा निवसनं
श्मशानं क्रीडाभूर्भुजगनिवहो भूषणविधिः।
समग्रा सामग्री जगति विदितैव स्मररिपो-
र्यदेतस्यैश्वर्यं तव जननि सौभाग्यमहिमा॥१६॥

अशेषब्रह्माण्डप्रलयविधिनैसर्गिकमतिः
श्मशानेष्वासीनः कृतभसितलेपः पशुपतिः।
दधौ कण्ठे हालाहलमखिलभूगोलकृपया
भवत्याः संगत्याः फलमिति च कल्याणि कलये॥१७॥

त्वदीयं सौन्दर्यं निरतिशयमालोक्य परया
भियैवासीद्गंगा जलमयतनुः शैलतनये।
तदेतस्यास्तस्माद्वदनकमलं वीक्ष्य कृपया
प्रतिष्ठामातन्वन्निजशिरसि वासेन गिरिशः॥१८॥

विशालश्रीखण्डद्रवमृगमदाकीर्णघुसृण-
प्रसूनव्यामिश्रं भगवति तवाभ्यंगसलिलम्।
समादाय स्रष्टा चलितपदपांसून्निजकरैः
समाधत्ते सृष्टिं विबुधपंकेरुहदृशाम्॥१९॥

वसन्ते सानन्दे कुसुमितलताभिः परिवृते
स्फुरन्नानापद्मे सरसि कलहंसालिसुभगे।
सखीभिः खेलन्तीं मलयपवनान्दोलितजले
स्मरेद्यस्त्वां तस्य ज्वरजनितपीडापसरति॥२०॥

॥आनन्दलहरी संपूर्णा॥

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]