अन्विताभिधानवाद

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कुमारिल भट्ट के शिष्य प्रभाकर ने अपने गुरु के अभिहितान्वयवाद के विरुद्ध सबसे पहले इस मत का प्रतिपादन किया। आगे चल कर उनके इस बात से कई लोग जुड़े। "प्रभाकर मीमांसा" में माना गया है कि अर्थ का ज्ञान केवल शब्द से नहीं, विधिवाक्य से होता है। जो शब्द किसी आज्ञापरक वाक्य में आया हो उसी शब्द की सार्थकता है। वाक्य से बहिष्कृत शब्द का कोई अर्थ नहीं। "घड़ा" शब्द का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक इसका ("घड़ा लाओ" जैसे आज्ञार्थक) वाक्य में प्रयोग नहीं हुआ है। इसी सिद्धांत को अन्विताभिधानवाद कहते हैं अर्थात् हम कह सकते हैं कि इन्होंने माना कि वाक्य अपने आप में सार्थक है उसे सार्थक शब्दों के योग से बनाने की आवश्यकता नहीं।

इस सिद्धांत के अनुसार जब शब्द आज्ञार्थक वाक्य में अन्य शब्दों से अन्वित (संबंधित) होता है तभी वह अर्थविशेष का अभिधान करता है। प्रत्येक शब्द अर्थ का बोध कराने में अक्षम है किंतु व्यवहार के कारण शब्द का अर्थ सीमित हो जाता है। शब्दार्थ की इस सीमा का ज्ञान व्यवहार से ही होगा और भाषा में व्यवहार वाक्य के माध्यम से ही व्यक्त होता है, अत: शब्द का अर्थ वाक्य पर अवलंबित रहता है। इस सिद्धांत के अनुसार वाक्य ही भाषा की इकाई है।[1][2][3][4]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. देवेन्द्रनाथ, शर्मा. भाषा विज्ञान की भूमिका. पृ॰ 241. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788171197439.
  2. भोलानाथ, तिवारी. भाषा विज्ञान. पृ॰ 220. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 8122500072.
  3. हिन्दी साहित्य कोश भाग-१. पृ॰ 31.
  4. हिन्दी साहित्य कोश भाग-१. पृ॰ 41.