अध्यास

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अध्यास, अद्वैत वेदांत का पारिभाषिक शब्द है। एक वस्तु में दूसरी वस्तु का ज्ञान अध्यास कहलाता है। रस्सी को देखकर सर्प का ज्ञान इसका उदाहरण है। यहाँ पर रस्सी सत्य है, किंतु उसमें सर्प का ज्ञान मिथ्या है। मिथ्या ज्ञान बिना सत्य आधार के संभव नहीं है, अत: अध्यास के दो पक्ष माने जाते हैं- सत्य और अनृत या मिथ्या.। मिथ्या का 'मिथुनीकरण' (अंगीकरण) अध्यास का मूल कारण है।

इस मिथुनीकरण में एक के धर्मों का दूसरे में आरोप होता है। रस्सी की वक्रता का सर्प में आरोप होता है, अत: सर्प का ज्ञान संभव है। साथ ही यह धर्मारोप कोई व्यक्ति जान-बूझकर नहीं करता; वस्तुत: अनजाने में ही यह आरोप हो जाता है, इसलिए सत्य और अनृत में अध्यासावस्था में परस्पर विवेक नहीं हो पाता। विवेक होते ही अध्यास का नाश हो जाता है। जिन दो वस्तुओं के धर्मों का परस्पर अध्यास होता है वे वस्तुत: एक-दूसरी से अत्यंत भिन्न होती हैं। उनमें तात्विक साम्य नहीं होता; किंतु औपचारिक धर्मसाम्य के आधार पर यथाकथंचित्‌ दोनों का मिथुनीकरण होता है।

शांकर भाष्य में अध्यास का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि एक वस्तु में तत्सदृश किसी पूर्वदृष्टि वस्तु का स्मरण होता है। यह स्मृतिरूप ज्ञान ही अध्यास कहलाती है। परंतु पूर्वदृष्ट वस्तु का स्मरण मिथ्या नहीं होता। किसी को देखकर 'यह वही व्यक्ति है', ऐसा उत्पन्न ज्ञान सत्य है। इसलिए 'स्मृतिरूप' शब्द का विशेष अर्थ यहाँ अभिप्रेत है। स्मृत वस्तु के रूप की तरह जिसका रूप हो, उस वस्तु का उससे भिन्न स्थान पर ज्ञान होना अध्यास का सर्वमान्य लक्षण माना गया है। रस्सी को देखकर सर्प का स्मरण होता है और तदनंतर सर्प का ज्ञान होता है। यह सर्पज्ञानस्मृति सर्पा से भिन्न वस्तु है। वाचस्पति मिश्र ने 'भामती' में कहा है-'सर्पादिभाव से रस्सी आदि का अथवा रक्तादि गुण से युक्त स्फटिक आदि का ज्ञान न होता हो, ऐसी बात नहीं है, किंतु इस ज्ञान से रस्सी आदि सर्प हो जाते हैं या उसमें सर्प का गुण उत्पन्न होता है, यह भी असंगत है। यदि ऐसा होता तो मरुप्रेदश में किरणों को दखकर उछलती तरंगों की माला से सुशोभित मंदाकिनी आ गई है ऐसा ज्ञान होता और लोग उसके जल से अपनी पिपासा शांत करते। इसलिए अध्यास से यद्यपि वस्तु सत्‌ जैसी लगती है, फिर भी उसमें वास्तविक सत्यत्व की स्थिति मानना मूर्खता है।

यह अध्यास यदि सत्यता से रहित हो तो बंध्यापुत्र आदि की तरह इसका ज्ञान नहीं होना चाहिए। किंतु सर्पज्ञान होता है, अत: यह अत्यंत असत्‌ नहीं है। साथ ही अध्यास ज्ञान को सत्‌ भी नहीं कर सकते, क्योंकि सर्प का ज्ञान कथमपि सत्य नहीं है। सत्‌ और असत्‌ परस्पर विरोधी हैं अत: अध्यास सदसत्‌ भी नहीं है। अंतत: अध्यास को सदसत्‌ से विलक्षण अनिर्वचनीय कहा गया है। इस क्रम से अध्यस्त जल वास्तविक जल की तरह है, इसीलिए वह पूर्वदृष्टि है। यह तो मिथ्याभूत अनिर्वचनीय (शब्दव्यापार से परे) है।

अध्यास दो प्रकार का होता है।

  1. अर्थाध्यास में एक वस्तु का दूसरी वस्तु में ज्ञान होता है-जैसे, मैं मनुष्य हूँ। यहाँ 'मैं' आत्मतत्व है और 'मनुष्यतत्व' जाति है। इन दोनों का 'मिथुनीकरण' हुआ है।
  2. ज्ञानाध्यास अर्थाध्यास से प्रेरित अभिमान का नाम है।

अध्यास भाष्य[संपादित करें]

आदि शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्र के भाष्य की जो भूमिका लिखी, उसे अध्यासभाष्य कहा जाता है। यह कोई भाष्य नहीं है बल्कि एक स्वतंत्र रचना है जो उनके मुख्य रचना (वेदान्तसूत्र भाष्य) के प्राक्कथन के रूप में था।

अध्यासभाष्य कई तरह से विलक्षण कृति है। यह एक लघु रचना है जिसमें ५० से भी कम श्लोक हैं जो पांच भागों में विभक्त हैं।

संदर्भ ग्रंथ[संपादित करें]

  • ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य (अध्यासभाष्य); वाचस्पति: भामती, 1,1,1

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]