अचलताकारक कशेरूकाशोथ

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
'Ankylosing spondylitis'
वर्गीकरण एवं बाह्य साधन
An ankylosing spine in which the vertebrae become fused together.
आईसीडी-१० M08.1, M45.m
आईसीडी- 720.0
ओएमआईएम 106300
डिज़ीज़-डीबी 728
मेडलाइन प्लस 000420
ईमेडिसिन radio/41 
एम.ईएसएच D013167

अचलताकारक कशेरूकाशोथ (ए.एस., ग्रीक एंकिलॉज़, मुड़ा हुआ; स्पॉन्डिलॉज़, कशेरूका), जिसे पहले बेक्ट्रू के रोग, बेक्ट्रू रोगसमूह, और एक प्रकार के कशेरूकासंधिशोथ, मारी-स्ट्रम्पेल रोग के नाम से जाना जाता था, एक दीर्घकालिक संधिशोथ और स्वक्षम रोग है। यह रोग मुख्यतया मेरू-दण्ड या रीढ़ के जोड़ों और श्रोणि में त्रिकश्रोणिफलक को प्रभावित करता है।

यह सशक्त आनुवंशिक प्रवृत्तियुक्त कशेरूकासंधिरोगों के समूह का एक सदस्य है। संपूर्ण संयोजन के परिणामस्वरूप रीढ़ की हड्डी पूरी तरह से अकड़ जाती है, जिसे बांस जैसी रीढ़ (बैंबू स्पाइन) का नाम दिया गया है।[1]

Neela jhanda[संपादित करें]

इस प्रकार का रोगी कोई युवक होता है[2] जिसे 18-30 वर्ष की उम्र में इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम प्रकट होते हैं - रीढ़ की हड्डी के निचले भाग या कभी-कभी समूची रीढ़ में दीर्घकालिक दर्द और जकड़न जो अकसर एक या दूसरे नितंब या त्रिकश्रोणिफलक संधि से जांघ के पिछले हिस्से तक महसूस होती है।

स्त्रियों की अपेक्षा पुरूष 3:1 के अनुपात में प्रभावित होते हैं[2] और इस रोग के कारण पुरूषों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक दर्द का सामना करना पड़ता है।[3] 40% मामलों में अचलताजनक कशेरूकाशोथ में आँख का शोथ (परितारिका-रोमकपिंडशोथ और असितपटलशोथ) होता है जिससे आंखों का लाल हो जाना, दर्द होना, अंधापन, आंखों के सामने धब्बों का दिखना और प्रकाशभीति आदि लक्षण उत्पन्न 8होते हैं। एक और सामान्य लक्षण है व्यापक थकान और कभी-कभी मतली का होना. महाधमनीशोथ, फुफ्फुसशीर्ष की तन्तुमयता और त्रिकज नाड़ी मूल आवरणों का विस्फारण भी हो सकता है। सभी सीरमऋणात्मक कशेरूकासंधिरोगों की तरह नाखून नखशय्या से अलग हो निकल सकते हैं।[उद्धरण चाहिए]

18 वर्ष से कम की उम्र में होने पर यह रोग भुजा या पैरों के बड़े जोड़ों, विशेषकर घुटने में दर्द और सूजन उत्पन्न कर सकता है। यौवनारम्भ के पहले की उम्र के मामलों में दर्द और सूजन एड़ियों व पांवों में भी प्रकट हो सकती है जहां पार्ष्णिका प्रसर भी विकसित हो जाते हैं। रीढ़ की हड्डी बाद में प्रभावित हो सकती है।[उद्धरण चाहिए]

अकसर विश्राम की स्थिति में दर्द अधिक तीव्र होता है और शारीरिक गतिविधि से कम होता है, लेकिन कई लोगों को विश्राम और गतिविधि दोनों स्थितियों में विभिन्न मात्रा में शोथ व दर्द का अनुभव होता है।

ए.एस. सीरमऋणात्मक कशेरूकासंधिविकारों के समूह में से एक है जिनकी विशिष्ट विकृतिजन्य विक्षति है - एंथेसिस (हड्डी में तने हुए तंतुमय ऊतक के दाखिल होने का स्थान) का शोथ. कशेरूकासंधिरोगों के अन्य प्रकारों में व्रणीय ब्रहदांत्रशोथ, क्रोन्स रोग, अपरस और रीटर्स रोगसमूह (प्रतिक्रियात्मक संधिशोथ) पाए जाते हैं।[उद्धरण चाहिए]

विकारीशरीरक्रिया[संपादित करें]

संधिग्रह प्रक्रिया.

ए.एस. एक सार्वदैहिक आमवाती रोग है यानी यह सारे शरीर को प्रभावित करता है और सीरमऋणात्मक कशेरूकासंधिविकारों में एक है। लगभग 90% रोगी HLA-B27 जीनप्ररूप को परिलक्षित करते हैं। ट्यूमर नेक्रोसिस फैक्टर-अल्फा (TNF α) और IL-1 भी अचलताकारक कशेरूकाशोथ के कारणों में गिने जाते हैं। ए.एस. के विशिष्ट स्वप्रतिपिंडों की पहचान अभी नहीं हो पाई है। न्यूट्रोफिल-प्रतिरोधी जीवद्रव्यीय प्रतिपिंडों (ANCA) का संबंध अ. क. से पाया गया है, पर रोग की तीव्रता से वे परस्पर संबंधित प्रतीत नहीं हो पाए हैं।

HLA-B27 से ए.एस. का संबंध बताता है कि यह रोग CD8 कोशिकाओं से जुड़ा है जो HLA-B27 से अंतःक्रिया करती हैं। यह सिद्ध नहीं हुआ है कि इस अंतः क्रिया के लिये किसी स्वप्रतिजन की जरूरत होती है और कम से कम रीटर्ज़ रोगसमूह (प्रतिक्रियात्मक संधिरोग) में, जो संक्रमण के बाद होता है, आवश्यक प्रतिजनें संभवतः अंतर्कोशिकीय लघुजीवाणुओं से उत्पन्न होती हैं। लेकिन यह संभव है कि CD8 कोशिकाएं की इसमें असामान्य भूमिका हो क्योंकि HLA-B27 में अनेक असाधारण गुण देखे गए हैं जिनमें CD4 के साथ टी कोशिका ग्राहकों से अंतःक्रिया की क्षमता भी शामिल है। (सामान्यतः केवल सीडी8 युक्त टी-हेल्पर लसीकाकण ही HLAB प्रतिजन से प्रतिक्रिया करते हैं क्योंकि यह एक MHC कक्षा 1 प्रतिजन है।)

लंबे अर्से से यह दावा किया जा रहा है कि ए.एस. HLA-B27 और क्लेबसियेला जीवाणु स्ट्रेन के प्रतिजनों के बीच प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है (तिवाना और अन्य 2001).[4] इस विचार से कठिनाई यह है कि B27 से ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं देखी गई है (अर्थात्, यद्यपि क्लेबसियेला के प्रति प्रतिपिंड अनुक्रिया बढ़ सकती हैं, तथापि B27 के लिये कोई प्रतिपिंड अनुक्रिया नहीं होती है। अतः कोई प्रतिक्रिया होती नहीं लगती.) कतिपय अधिकारियों का तर्क है कि क्लेबसियेला के मुख्य पोषजों (स्टार्च) के निकास हो जाने पर रक्त में प्रतिजनों की मात्रा कम हो जाती है और पेशी व हड्डियों के लक्षणों में कमी आती है। लेकिन खान के तर्क के अनुसार क्लेबसियेला और ए.एस. के बीच संबंध अभी तक केवल गौण ही है और कम स्टार्च वाले आहार की यथेष्टता पर वैज्ञानिक शोध अभी तक नहीं हुआ है।[5] कम स्टार्च वाले आहार और ए.एस. पर अध्य़यन के लिये धन का प्रबंध भी कठिन हो सकता है जबकि औषधिनिर्माताओं द्वारा ईजाद नई दवाईयां अपना असर और उद्योग के लिये आर्थिक लाभदायकता सिद्ध कर सकती हैं। (जबकि आहार में परिवर्तन से ऐसा कुछ नहीं होगा। )

तोइवानेन (1999) ने प्राथमिक ए.एस. के कारणों में क्लेबसियेला की भूमिका का कोई सबूत नहीं पाया है।[6]

निदान[संपादित करें]

अचलताकारक स्पॉन्डिलाइटिस में पार्श्व काठ रीढ़ X-रे.
त्रिकश्रोणिफलक संधियों का मैग्नेटिक रेज़नेंस इमेजेसत्रिकश्रोणिफलक संधियों के द्वारा T1-वेह्टेड सेमी-कॉरोनल मैग्नेटिक रिसोनंस इमेज (क) पहले और (ख) अंतःशिरा इंजेक्शन के बाद.दाएं त्रिकश्रोणिफलक संधियों में वृद्धि देखा जाता है (तीर, बाएं की और छवि), त्रिकश्रोणिफलकशोथ का संकेत.इस मरीज अपरस संधिशोथ था, लेकिन इसी तरह के बदलाव अचलताजनक कशेरूकाशोथ में हो सकता है।
अचलताजनक कशेरूकाशोथ के साथ एक रोगी की बांस के जैसे रीढ़ का X-रे

ए.एस. के निदान के लिये कोई सीधी परीक्षा उपलब्ध नहीं है। चिकित्सकीय जांच और मेरू-दण्ड के एक्सरे अध्ययन जिसमें मेरू में विशिष्ट परिवर्तन और त्रिकश्रोणिफलकशोथ दिखाई देते हैं, इसके निदान के बड़े औजार हैं। एक्सरे निदान की एक कमी यह है कि ए.एस. के चिह्न और लक्षण सादी एक्सरे फिल्म पर दिखने के 8-10 साल पहले ही अपना स्थान बना चुके होते हैं, जिसका मतलब है कि पर्याप्त उपचार शुरू करने में 10 साल तक की देर हो जाती है। जल्दी निदान के उपायों में त्रिकश्रोणिफलक संधियों की टोमोग्राफी और मैग्नेटिक रेज़नेंस इमेजिंग उपलब्ध हैं लेकिन इन परीक्षाओं की विश्वसनीयता संदिग्ध है। जांच के समय शोबर्ज़ टेस्ट कटिप्रदेश की रीढ़ के आकंचन का एक उपयोगी चिकित्सकीय पैमाना है।[7]

तीव्र शोथीय कालों में ए.एस. के मरीजों के रक्त में सी-रिएक्टिव प्रोटीन (CRP) की मात्रा में वृद्धि और इरिथ्रोसाइट सेडिमेंटेशन रेट (ESR) में बढ़त देखी जाती है किंतु अनेक रोगियों में CRP और ESR नहीं बढ़ता है, अतः CRP और ESR सदैव व्यक्ति के वास्तविक शोथ की मात्रा को परिलक्षित नहीं करते हैं। कभी-कभी ए.एस. से पीड़ित लोगों में सामान्य परिणाम होते हैं लेकिन उनके शरीर में शोथ ध्यान देने योग्य मात्रा में होता है।

HLA-B जीन के विभिन्न प्रकार अचलताकारक कशेरूकाशोथ के उत्पन्न होने के जोखम को बढ़ाते हैं, यद्यपि यह इसके निदान की परीक्षा नहीं है।[8][8] HLA-B27 प्रकार वाले लोगों में सामान्य जनता की अपेक्षा इस रोग से ग्रस्त होने का अधिक जोखम होता है। HLA-B27 रक्त परीक्षा में दिखाए जाने पर यदाकदा निदान में मदद कर सकता है लेकिन पीठ के दर्द से ग्रस्त किसी व्यक्ति मे. ए.एस. का अपने आप निदान नहीं करता. ए.एस. का निदान किये हुए 95% से अधिक लोग HLA-B27 पाज़िटिव होते हैं, हालांकि यह अनुपात विभिन्न जनसमुदायों में भिन्न होता है (ए.एस. से ग्रस्त अफ्रीकी अमेरिकी रोगियों में केवल 50% में HLA-B27 पाई जाती है जबकि भूमध्यसागरीय देशों के ए.एस. मरीजों में लगभग 80% में यह देखी जाती है). कम उम्र में शुरू होने पर HLA-B7/B*2705 हेटेरोज़ाइगोट रोग के सर्वाधिक जोखम को परिलक्षित करते हैं।[9]

2007 में यूके, आस्ट्रेलिया और संयुक्त राज्य अमेरिका में शोधकर्मियों की अंतर्राष्ट्रीय टीम के संयुक्त प्रयास से ए.एस. के लिये जिम्मेदार दो जीनों, ARTS1 और IL23R की खोज हुई। यह जानकारी ‘नेचर जेनेटिक्स’ जो सामान्य और जटिल रोगों के जेनेटिक आधार पर शोध को बढावा देने वाली एक पत्रिका है, के नवंबर 2007 अंक में प्रकाशित हुई। [10] HLA-B27 के साथ, इन दो जीनों की बीमारी के कुल भार का लगभग 70 प्रतिशत के लिए खाते.

बाथ अचलताकारक कशेरूकाशोथ रोग गतिविधि पैमाना (BASDAI) जिसका विकास बाथ (UK) में किया गया, सक्रिय रोग के शोथ भार का पता लगाने के लिये बनाया गया एक पैमाना है। BASDAI अन्य कारकों जैसे HLA-B27 पाज़िटिविटी, लगातार होने वाला नितंब का दर्द जो कसरत से कम होता है और एक्सरे या MRI में त्रिकश्रोणिफलक के जोड़ों के ग्रस्त होने का सबूत दिखने की स्थिति में ए.एस. का निदान करने में मदद करता है। (देखिये: "निदान के औजार", नीचे)[11] इसकी गणना आसानी से की जा सकती है और रोगी के अतिरिक्त इलाज की आवश्यकता के विषय में निर्णय सही तरह से लिया जा सकता है; पर्याप्त NSAID पा रहे रोगी का स्कोर 10 में से 4 होने पर उसे बायोलॉजिक ऊपचार के लिये अच्छा उम्मीदवार माना जाता है।

बाथ अचलताकारक कशेरूकाशोथ फंक्शनल पैमाना (BASFI) एक क्रियात्मक पैमाना है जो रोगी में रोग से उत्पन्न क्रियात्मक क्षति और उपचार के बाद हुए सुधार को सही तरह से नाप सकता है। (देखिये, "निदान के औजार", नीचे)[12] BASFI को सामान्यतः निदान के औजार के रूप में प्रयोग में नहीं लाया जाता बल्कि रोगी की वर्तमान दशा और उपचार के बाद हुए लाभ का पता लगाने के औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

उपचार[संपादित करें]

ए.एस. का कोई पूर्ण रोगमुक्त करने वाला उपचार ज्ञात नहीं है, यद्यपि लक्षण और दर्द कम करने के लिये उपचार और दवाईयां उपलब्ध हैं।[13][14]

दवाईयों के साथ भौतिक उपचार और व्यायाम अचलताकारक कशेरूकाशोथ के इलाज का मूल हैं। फ़िज़ियोथेरेपी और शारीरिक व्यायाम औषधिक उपचार से शोथ और दर्द को कम करने के बाद कराए जाते हैं और सामान्यतः चिकित्सक की देख-रेख में किये जाते हैं। इस तरह की गतिविधियों से दर्द और अकड़न को कम करने में मदद मिलती है जबकि सक्रिय शोथीय स्थिति में कसरत से दर्द और बढ़ जाता है। रोग के लक्षणों के कारण सामान्य काम-धन्धों में व्यवधान आता है।

कुछ लोगों को लाठी जैसे चलने के सहारे की जरूरत पड़ती है जो चलने और खड़े रहने के समय संतुलन और प्रभावित जोड़ों पर जोर पड़ने से रोकता है। ए.एस. के कई रोगियों को 20 मिनट जितने लंबे समय तक बैठने या खड़े होने में बड़ी कठिनाई होती है इसलिये उन्हें बारी-बारी से बैठना, खड़ा होना और विश्राम करना पड़ता है।

ए.एस. के चिकित्सा-विशेषज्ञों का मानना है कि अच्छी शारीरिक मुद्रा बनाए रखने से निदान किये हुए लोगों के एक बड़े प्रतिशत में संयोजित या वक्र मेरू-दण्ड की संभावना कम की जा सकती है।[15][16]

दवाईयां[संपादित करें]

अचलताकारक कशेरूकाशोथ के उपचार के लिये तीन मुख्य प्रकार की औषधियां उपलब्ध हैं।

TNFα अवरोधकों को सबसे आशाजनक उपचार के रूप में दर्शाया गया है जिसने अधिकांश मामलों में ए.एस. की बढ़त धीमी की है और अनेक रोगियों के शोथ व दर्द में पूरी नहीं तो उल्लेखनीय कमी लाई है। उन्हें न केवल जोड़ों के संधिशोथ बल्कि ए.एस. से उत्पन्न मेरूदणड के संधिशोथ का इलाज करने में भी प्रभावकारी पाया गया है। महंगा होने के अलावा इन दवाओं की एक खामी यह है कि इनसे संक्रमण होने का जोखम बढ़ जाता है। इस वजह से किसी भी TNF-α अवरोधक से उपचार शुरू करने के पहले क्षयरोग के लिये परीक्षा (मैंटाक्स या हीफ) करने का नियम है। बारंबार संक्रमण होने की स्थिति में या गला खराब होने पर भी उपचार को रोक दिया जाता है क्योंकि स्वक्षम शक्ति कम हो जाती है। TNF दवाईयां ले रहे रोगियों को हिदायत दी जाती है कि वे ऐसे लोगों से दूर रहें जो किसी वाइरस (जैसे जुकाम या इनफ्लुएंज़ा) के वाहक हो या जीवाणु या फफूंदी संक्रमण से ग्रस्त हों.

शल्यचिकित्सा[संपादित करें]

ए.एस. के गंभीर मामलों में जोड़ों खासकर घुटनों और कूल्हों को बदल देने की शल्यक्रिया एक उपाय है। मेरूदण्ड, विशेषकर गर्दन की मुड़ जाने की गंभीर विकृति (तीव्र नीचे की ओर वक्रता) होने पर भी शल्यचिकित्सा द्वारा इलाज संभव है, यद्यपि यह प्रणाली काफी जोखमभरी मानी जाती है।

इसके अलावा ए.एस. के कुछ परिणाम एनेस्थीसिया को अधिक जटिल बना देते हैं।

ऊपरी सांसनली में आए परिवर्तनों के कारण सांसनली में नली डालने में कठिनाई हो सकती है, स्नायुओं के कैल्सीकरण के कारण स्पाइनल व एपीड्यूरल एनेस्थीसिया मुश्किल हो सकती है और कुछ मामलों में बड़ी धमनी में प्रत्यावहन रह सकता है। छाती की पसलियों की अकड़न के कारण श्वासक्रिया मध्यपटीय हो जाती है जिससे फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी हो सकती है।

भौतिक चिकित्सा[संपादित करें]

सभी भौतिक चिकित्साओं के लिये पहले आमवातीरोगविशेषज्ञ की सहमति ली जानी चाहिए क्योंकि जो गतिविधियां सामान्यतः स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त लाभदायक होती हैं, वे ही अचलताकारक कशेरूकाशोथ के रोगी को नुकसान पहुंचा सकती हैं ; मालिश और भौतिक हस्तोपचार केवल इस रोग से परिचित भौतिकचिकित्सा विशेषज्ञ द्वारा ही किये जाने चाहिये. कुछ चिकित्साएं जिन्हें ए.एस. के रोगियों के लिये लाभदायक पाया गया है उनमें शामिल हैः

  • भौतिक चिकित्सा/फिज़ियोथेरेपी, ए.एस. के रोगियों के लिये अत्यन्त उपयोगी;
  • तैराकी, वरीयता प्राप्त कसरतों में एक, क्योंकि यह कम गुरूत्वाकर्षण के वातावरण में सभी पेशियों और जोड़ों का समावेश करती है।
  • धीमी गति की, पेशियों को सीधा करने वाली कसरतें जैसे खींचना, योग, चढ़ाई, ताई ची, पिलेट्ज़ विधि आदि।

मध्यम से उच्च असर वाली कसरतों, जैसे धीमे चलने, की साधारणतः सिफारिश नहीं की जाती या कुछ रोक-टोक के साथ करने की सलाह दी जाती है क्योंकि प्रभावित कशेरूकाओं के हिल जाने से कुछ रोगियों में दर्द और अकड़न बढ़ सकती है।

पूर्वानुमान[संपादित करें]

ए.एस. हल्के से लेकर लगातार कमजोर करने वाली और इलाज से नियंत्रित से लेकर अनियंत्रित बीमारी तक हो सकती है। कुछ लोगों में सक्रिय शोथ के बाद कभी-कभार तकलीफ से छुटकारा भी मिलता है, जबकि अन्य लोगों को कभी छुटकारा नहीं मिलता और तीव्र शोथ व दर्द बना रहता है।

ए.एस. के बिना इलाज किये मामलों में, अधिक समय तक निदान न होने पर, जिनमें उंगली का शोथ या एंथेसाइटिस हुआ हो, खासकर जब मेरू-दण्ड का शोथ सक्रिय न हुआ हो, सामान्य आमवात का गलत निदान हो सकता है। अधिक समय तक निदान न होने पर मेरू-दण्ड का अस्थिह्रास या अस्थिसुषिरता हो सकती है जिससे अंततः दबावजनित अस्थिभंग और कूबड़ हो सकता है। विकसित ए.एस. के विशेष चिह्नों में एक्सरे में स्नायुप्रवर्धों का दृष्टिगोचर होना और मेरू-दण्ड पर अस्थिप्रवर्धों जैसे असामान्य प्रवर्धों का उत्पन्न होना आदि हैं। नाड़ियों के चारों ओर के ऊतकों के शोथ के कारण कशेरूकाओं के संयोजन की जटिलता उत्पन्न होती है।

ए.एस. से प्रभावित अवयवों में मेरूदण्ड और अन्य जो़ड़ों के अलावा हृदय, फेफड़े, आंखें, बृहदांत्र और गुर्दे शामिल हैं। अन्य जटिलताओं में बड़ी धमनी का प्रत्यावहन, अचिल्ज़ स्नायुशोथ, एवी नोड अवरोध और अमीलायडोसिस हैं।[17] फुफ्फुसीय तन्तुमयता के कारण छाती के एक्सरे में शीर्ष की तन्तुमयता दिख सकती है जबकि फेफड़े की कार्यक्षमता की परीक्षा में अवरोधक त्रुटि पाई जा सकती है। बहुत विरल जटिलताओं में नाड़ीतंत्र की समस्याएं जैसे कॉडा इक्विना रोगसमूह शामिल है।[17][18]

जानपदिकरोगविज्ञान[संपादित करें]

हर तीन पुरूषों के ए.एस. से ग्रस्त होले का निदान पर एक स्त्री का इससे ग्रस्त होने का निदान होता है, यह कुल जनसंख्या के 0.25 प्रतिशत में पाया जाता है। कई आमवाती रोगविशेषज्ञ यह मानते हैं कि ए.एस. से ग्रस्त सभी स्त्रियों का निदान नहीं हो पाता है क्योंकि अधिकांश स्त्रियां हल्के लक्षणों का अनुभव करती हैं।[3]

इतिहास[संपादित करें]

लियोनार्ड त्रासक, कमाल का अवैध.

ऐसा माना जाता है कि ए.एस. को पहली बार गालेन ने गठियारूप संधिशोथ से पृथक रोग के रूप में ईसा के बाद दूसरी शताब्दी में पहचाना;[19] लेकिन रोग का अस्थिकीय सबूत ("बंबू स्पाइन" के नाम से जाना जाने वाला मुख्यतः अक्षीय अस्थिपंजर के जोड़ों व एंथेसिस का अस्थिकरण) सबसे पहले एक प्रागैतिहासिक खुदाई में पाया गया जिसमें एक 5000 वर्ष पुरानी बंबू स्पाइन से ग्रस्त इजिप्शियन ममी को बाहर निकाला गया।[20]

शरीर-रचना वैज्ञानिक और शल्यचिकित्सक रियल्डो कोलंबो ने 1559 में इस रोग के बारे में जानकारी दी[21] और 1691 में बर्नार्ड कोनोर ने संभवतः ए.एस. से अस्थिपंजर में हुए परिवर्तनों का सर्वप्रथम विवरण दिया। [22] 1818 में बेंजामिन ब्रॉडी पहले चिकित्सक बने जिन्होंने सक्रिय ए.एस. के साथ परितारिका शोथ से ग्रस्त एक रोगी के बारे में बताया.[23] 1858 में डेविड टक्कर में एक छोटी सी किताब प्रकाशित की जिसमें लेनार्ड ट्रास्क नामक एक रोगी के बारे में स्पष्ट रूप से बताया गया जिसे ए.एस. के कारण गंभीर मेरूदंडीय विकृति हो गई थी।[24] 1833 में ट्रास्क एक घोड़े पर से गिर पड़ा जिससे उसकी तकलीफ बढ़ गई और गभीर विकृति हो गई। ऐसा टक्कर ने बताया.

It was not until he [Trask] had exercised for some time that he could perform any labor.... {H]is neck and back have continued to curve drawing his head downward on his breast.

यह कथन संयुक्त राज्य में ए.एस. का पहला दस्तावेज़ कहलाता है क्योंकि इसमें ए.एस. के शोथीय रोग लक्षणों और विकृतिकारक चोट का निर्विवाद विवरण है।

उन्नीसवीं शताब्दी (1893-1898) के अंत में, रूस के न्यरोफिजियोलॉजिस्ट व्लादीमीर बेक्ट्रेव ने 1893 में,[25] जर्मनी के अडॉल्फ स्ट्रम्पेल ने 1897 में[26] और फ्रांस की पियरे मारी ने 1898[27] में पहली बार पर्याप्त विवरण दिये जिससे गंभीर मेरूदंडीय विकृति होने के पहले ए.एस.का सही निदान संभव होने लगा। इसीलिये ए.एस. को बैक्ट्रू रोग या मारी-स्ट्रम्पेल रोग के नाम से भी जाना जाता है।

ए.एस में साथ जाने-माने प्रसिद्ध लोग[संपादित करें]

एक गैर विस्तृत सूची शामिल है:

शोध निर्देश[संपादित करें]

ए.एस. के अधिकांश रोगियों के रक्त में HLA-B27 प्रतिजन और इम्यूनोग्लॉबुलिन ए (IgA) के उच्च स्तर देखे जाते हैं। HLA-B27 प्रतिजन क्लेबसियेला जीवाणुऔं द्वारा भी प्रदर्शित की जाती है जो ए.एस. के रोगियों के मल में बड़ी मात्रा में पाए जाते हैं। एक सिद्धांत के अनुसार जीवाणुओं की उपस्थिति रोग के ट्रिगर का कार्य कर सकती है और आहार में स्टार्च (जिसकी जीवाणु को बढ़ने के लिये जरूरत पड़ती है) की मात्रा घटा देना ए.एस. के रोगियों के लिये लाभप्रद हो सकता है। इस प्रकार के आहार की एक परीक्षा में ए.एस. के रोगियों के लक्षणों और शोथ में कमी पाई गई तथा ए.एस. से ग्रस्त या स्वस्थ लोगों में IgA स्तर कम हो गए।[34] यह निश्चित करने के लिये कि आहार में परिवर्तन से रोग के मार्ग पर चिकित्सकीय प्रभाव लाया जा सकता है, अभी और शोध की आवश्यकता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • NASC, उत्तरी अमेरिकी ए.एस महासंघ
  • NIAMS, द नैशनल इंस्टीट्युट ऑफ़ अर्थ्रिटिस एंड मस्कुलोस्केलेटन एंड स्कीन डिज़ीज़
  • SAA, अमेरिका के स्पॉन्डिलाइटिस एसोसिएशन
  • AF, संधिशोथ फाउंडेशन

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Jiménez-Balderas FJ, Mintz G. (1993). "Ankylosing spondylitis: clinical course in women and men". J Rheumatol. 20 (12): 2069–72. PMID 7516975.
  2. Porter, Robert; Beers, Mark H.; Berkow, Robert (2006). The Merck manual of diagnosis and therapy. Rahway, NJ: Merck Research Laboratories. पपृ॰ 290. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-911910-18-2.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  3. "Arthritis Research Campaign - Ankylosing Spondylitis Case History". Arthritis Research Campaign. 2009. मूल से 7 मार्च 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2009-08-25.
  4. Tiwana H, Natt R, Benitez-Brito R, Shah S, Wilson C, Bridger S, Harbord M, Sarner M, Ebringer A (2001). "Correlation between the immune responses to collagens type I, III, IV and V and Klebsiella pneumoniae in patients with Crohn's disease and ankylosing spondylitis". Rheumatology (Oxford). 40 (1): 15–23. PMID 11157137. डीओआइ:10.1093/rheumatology/40.1.15.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  5. Khan MA. (2002). Ankylosing spondylitis: The facts. Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-19-263282-5.
  6. Toivanen P, Hansen D, Mestre F, Lehtonen L, Vaahtovuo J, Vehma M, Möttönen T, Saario R, Luukkainen R, Nissilä M (1 सितंबर 1999). "Somatic serogroups, capsular types, and species of fecal Klebsiella in patients with ankylosing spondylitis". J Clin Microbiol. 37 (9): 2808–12. PMID 10449457. पी॰एम॰सी॰ 85385. मूल से 3 जुलाई 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 मई 2010.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  7. Thomas E, Silman AJ, Papageorgiou AC, Macfarlane GJ, Croft PR. (1998). "Association between measures of spinal mobility and low back pain. An analysis of new attenders in primary care". Spine. 23 (2): 343–7. PMID 9507623. डीओआइ:10.1097/00007632-199802010-00011.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  8. http://www.hlab27.com Archived 2019-08-29 at the वेबैक मशीन Ankylosing Spondylitis Information Matrix. मुहम्मद असीम खान, एमडी.
  9. Harjacek M, Margetić T, Kerhin-Brkljacić V, Martinez N, Grubić Z (2008). "HLA-B*27/HLA-B*07 in combination with D6S273-134 allele is associated with increased susceptibility to juvenile spondyloarthropathies". Clin. Exp. Rheumatol. 26 (3): 498–504. PMID 18578977.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  10. Brionez TF, Reveille JD (2008). "The contribution of genes outside the major histocompatibility complex to susceptibility to ankylosing spondylitis". Curr Opin Rheumatol. 20 (4): 384–91. PMID 18525349. डीओआइ:10.1097/BOR.0b013e32830460fe. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  11. Garrett S, Jenkinson T, Kennedy L, Whitelock H, Gaisford P, Calin A (1994). "A new approach to defining disease status in ankylosing spondylitis: the Bath Ankylosing Spondylitis Disease Activity Index". J Rheumatol. 21 (12): 2286–91. PMID 7699630.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  12. Calin A, Garrett S, Whitelock H, Kennedy L, O'Hea J, Mallorie P, Jenkinson T (1994). "A new approach to defining functional ability in ankylosing spondylitis: the development of the Bath Ankylosing Spondylitis Functional Index". J Rheumatol. 21 (12): 2281–5. PMID 7699629.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  13. Toivanen A, Möttönen T. (1998). "Ankylosing spondylitis: current approaches to treatment". BioDrugs. 10 (3): 193–200. PMID 18020595. डीओआइ:10.2165/00063030-199810030-00003.
  14. Williams RO, Paleolog E, Feldmann M. (2007). "Cytokine inhibitors in rheumatoid arthritis and other autoimmune diseases". Curr Opin Pharmacol. 7 (4): 412–7. PMID 17627887. डीओआइ:10.1016/j.coph.2007.06.001.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  15. "www.arthritis.org". Ankylosing Spondylitis Understanding its caused, Diagnosis And Treatment. मूल से 4 अक्तूबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जून 2020. पाठ "Patients who are able to do so lie flat on their face or back on the floor for a prescribed cumulative period of time each week to prevent the chronic stooping which may otherwise result." की उपेक्षा की गयी (मदद)
  16. "Remicade.com". Living with Ankylosing Spondylitis. मूल से 25 जून 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2007-12-30.
  17. Alpert, Joseph S. (2006). The AHA Clinical Cardiac Consult. Lippincott Williams & Wilkins. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0781764904.
  18. Nicholas U. Ahn, Uri M. Ahn, Elizabeth S. Garrett; एवं अन्य (2001). "Cauda Equina Syndrome in AS (The CES-AS Syndrome): Meta-analysis of outcomes after medical and surgical treatments". J of Spinal Disorders. 14 (5): 427–433. PMID 11586143. डीओआइ:10.1097/00002517-200110000-00009. Explicit use of et al. in: |author= (मदद)सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  19. Dieppe P (1988). "Did Galen describe rheumatoid arthritis?". Annals of the Rheumatic Diseases. 47 (1): 84–87. PMID 3278697. डीओआइ:10.1136/ard.47.1.84-b. पी॰एम॰सी॰ 1003452.
  20. Calin A (1985). "Ankylosing spondylitis". Clin Rheum Dis. 11 (1): 41–60. PMID 3158467. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  21. Benoist M (1995). "Pierre Marie. Pioneer investigator in ankylosing spondylitis". Spine. 20 (7): 849–52. PMID 7701402. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  22. BLUMBERG BS (1958). "Bernard Connor's description of the pathology of ankylosing spondylitis". Arthritis Rheum. 1 (6): 553–63. PMID 13607268. डीओआइ:10.1002/art.1780010609. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  23. Leden I (1994). "Did Bechterew describe the disease which is named after him? A question raised due to the centennial of his primary report". Scand J Rheumatol. 23 (1): 42–5. PMID 8108667. डीओआइ:10.3109/03009749409102134.
  24. "Life and sufferings of Leonard Trask" (PDF). Ankylosing Spondylitis Information Matrix. मूल से 8 जुलाई 2011 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 15 जून 2020.
  25. Bechterew W. (1893). "Steifigkeit der Wirbelsaule und ihre Verkrummung als besondere Erkrankungsform". Neurol Centralbl. 12: 426–434.
  26. Strumpell A. (1897). "Bemerkung uber die chronische ankylosirende Entzundung der Wirbelsaule und der Huftgelenke". Dtsch Z Nervenheilkd. 11: 338–342. डीओआइ:10.1007/BF01674127.
  27. Marie P. (1898). "Sur la spondylose rhizomelique". Rev Med. 18: 285–315.
  28. "संग्रहीत प्रति". मूल से 16 जून 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 मई 2010.
  29. "संग्रहीत प्रति". मूल से 28 दिसंबर 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 मई 2010.
  30. "संग्रहीत प्रति". मूल से 5 जनवरी 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 मई 2010.
  31. "संग्रहीत प्रति". मूल से 11 जनवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 मई 2010.
  32. "संग्रहीत प्रति". मूल से 20 मई 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 मई 2010.
  33. "Probe into arthritis pain". (Specifically: ankylosing spondylitis). बीबीसी न्यूज़. 24 अगस्त 2002. मूल से 11 अक्तूबर 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2007-09-06. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "bbc812" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  34. Ebringer A, Wilson C (1996). "The use of a low starch diet in the treatment of patients suffering from ankylosing spondylitis". Clin Rheumatol. 15 Suppl 1: 62–66. PMID 8835506. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

नैदानिक उपकरण[संपादित करें]