पुनर्गमनवाद

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पुनर्गमनवाद एक दार्शनिक दृष्टिकोण है जिससे याथार्थ्य की विवेचना भारतीय परम्परा में होती है। पुनर्गमन का अर्थ विधान अथवा व्यवस्था के रूप का विभिन्न स्थानों पर उत्थान। इसका उत्गम वेद के महावाक्य यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे है। एक ही समय पूरे ब्रह्माण्ड को ईश्वर का रूप और ईश्वर का आत्मा से समीकरण इस मत से आनुरूप्य हैं। पर इसका प्रमाण समकालीन विज्ञान में भी मिलता है।

यह विरोधाभास है और अनोखी बात है कि इसे दर्शन का नव्योत्तर विषय अथवा वैदिक विचार का प्रबन्ध माना जा सकता है। सुभाष काक ने इस दार्शनिक मत पर कई कृतियां लिखीं हैं।[1]

इस विचारधारा से एक प्राचीन वैदिक ज्योतिष का ज्ञान हुआ है, जिससे भारत की संस्कृति, विज्ञान और कालक्रम पर नया प्रकाश पड़ता है। इनमें से सबसे रोचक १०८ अंक, जो भारतीय संस्कृति में बहुत आता है, की व्याख्या है। प्रमुख देवी-देवताओं के १०८ नाम हैं, जपमाला में १०८ दाने, १०८ धाम हैं, आदि। सुभाष काक के शोध ने दिखाया है कि वैदिक काल में यह ज्ञान था कि सूर्य और चन्द्रमा पृथिवी से लगभग १०८ निजि व्यास के गुणा दूर हैं। आधुनिक ज्योतिष ने तो यह भी दिखाया है कि सूर्य का व्यास पृथिवी के व्यास से लगभग १०८ गुणा है।[2]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. जैसे प्रज्ञा सूत्र
  2. सु. काक,Birth and Early Development of Indian Astronomy. [1] Archived 2016-02-10 at the वेबैक मशीन In "Astronomy Across Cultures: The History of Non-Western Astronomy", Helaine Selin (editor), Kluwer Academic, Boston, 2000, pp. 303-340.

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