वैदिक संस्कृत

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वैदिक संस्कृत
बोलने का  स्थान Bronze Age India, Iron Age India
क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप
मातृभाषी वक्ता
भाषा परिवार
भाषा कोड
आइएसओ 639-3 (
vsn
is proposed)[1][dated info]
लिंग्विस्ट लिस्ट vsn
  qnk Rigvedic
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ऋग्वेद में वैदिक संस्कृत का सब से प्राचीन रूप मिलता है
ऋग्वेद १०.९०:२ का श्लोक: यह पुरुष वह सर्वस्व है जो हुआ है (भूतं) या होगा (भव्यं)। अमरता का ईश्वर (ईशानः) अन्न से और भी विस्तृत (अतिऽरोहति) होता है।

वैदिक संस्कृत 600 ईसापूर्व से लेकर 2000 ईसापूर्व तक बोली जाने वाली एक हिन्द-आर्य भाषा थी।[2] यह संस्कृत की पूर्वज भाषा थी और आदिम हिन्द-ईरानी भाषा की बहुत ही निकट की सन्तान थी। वैदिक संस्कृत और अवस्ताई भाषा (प्राचीनतम ज्ञात ईरानी भाषा) एक-दूसरे के बहुत निकट हैं। वैदिक संस्कृत हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की हिन्द-ईरानी भाषा शाखा की सब से प्राचीन प्रामाणिक भाषा है।[3]

वैदिक संस्कृत भाषा में व्यापक प्राचीन साहित्य आधुनिक युग में बच गया है, और यह प्रोटो-इंडो-यूरोपीय और प्रोटो-इंडो-ईरानी इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए जानकारी का एक प्रमुख स्रोत रहा है।[4][5] पूर्व-ऐतिहासिक युग में काफी पहले, संस्कृत एक पूर्वी ईरानी भाषा, एवेस्टन भाषा से अलग हो गई थी। पृथक्करण की सटीक सदी अज्ञात है, लेकिन संस्कृत और अवस्थन का यह अलगाव 1800 ईसा पूर्व से पहले निश्चित रूप से हुआ था।[4][5] एवेस्टन भाषा प्राचीन फारस में विकसित हुई, जोरोस्ट्रियनिज्म की भाषा थी, लेकिन सासैनियन काल में एक मृत भाषा थी।[6][7] प्राचीन भारत में स्वतंत्र रूप से विकसित वैदिक संस्कृत, पाणिनि के व्याकरण और भाषायी ग्रंथ के बाद शास्त्रीय संस्कृत में विकसित हुई,[8] और बाद में कई संबंधित भारतीय उपमहाद्वीप भाषाओं में, जिनमें बौद्ध, हिंदू और जैन धर्म के प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य पाए जाते हैं।

हिन्दुओं के प्राचीन वेद धर्मग्रन्थ वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में श्रौत जैसे सख़्त नियमित ध्वनियों वाले मंत्रोच्चारण की हज़ारों वर्षों पुरानी परम्परा के कारण वैदिक संस्कृत के शब्द और उच्चारण इस क्षेत्र में लिखाई आरम्भ होने से बहुत पहले से सुरक्षित हैं। वेदों के अध्ययन से देखा गया है कि वैदिक संस्कृत भी सैंकड़ों वर्षों के दीर्घ काल में बदलती गई। ऋग्वेद की वैदिक संस्कृत, जिसे ऋग्वैदिक संस्कृत कहा जाता है, सब से प्राचीन रूप है। पाणिनि के नियमीकरण के बाद की शास्त्रीय संस्कृत और वैदिक संस्कृत में पर्याप्त अन्तर है। इसलिए वेदों को मूल रूप में पढ़ने के लिए संस्कृत ही सीखना पार्याप्त नहीं बल्कि वैदिक संस्कृत भी सीखनी पड़ती है।[9] अवस्ताई फ़ारसी सीखने वाले विद्वानों को भी वैदिक संस्कृत सीखनी पड़ती है क्योंकि अवस्तई ग्रन्थ कम बचे हैं और वैदिक सीखने से उस भाषा का भी अधिक विस्तृत बोध मिल जाता है।[10]

लौकिक संस्कृत का वैदिक संस्कृत से भेद[संपादित करें]

लौकिक संस्कृत-साहित्य का वैदिक साहित्य से अनेक प्रकार का भेद पाया जाता है। वैदिक साहित्य शुद्धतः धार्मिक है तथा इसमें सभी लौकिक तत्त्वों का बीज समाहित है। लौकिक संस्कृत साहित्य प्रधान रूप से धार्मिक-धर्ममनिरपेक्ष है अथवा धर्म में इसे लोक-परलोक से ही सम्बन्धित कहा जा सकता है। इस साहित्य में महाकाव्य (रामायण एवं महाभारत), पुराण एवं अन्य काव्य (जिनमें गद्यकाव्य भी सम्मिलित हैं) नाटक, अलंकारशास्त्र, दर्शन, सूत्र, विधि अथवा नियम, कला, वास्तुशास्त्र, औषधि (आयुर्वेद), गणित, मशीन, उद्योग सम्बन्धी ग्रंथ और अन्य विभिन्न विद्याओं की शाखाएं भी प्राप्त होती हैं।

लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है। दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं। इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं:

(१) शब्दरूप की दृष्टि से - उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे देवाः जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)। जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप 'देवासः', 'जनामः' भी बनते हैं। इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है। तृतीय बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ इस रूप के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' इन रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ यह रूप भी प्राप्त होता है।

(२) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है। वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है तथा उसमें कुछ और रूपों को उपलब्धि होती है जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बताने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं : लोट् और विधिलिंग जोक लट्प्रकृति अर्थात् वर्तमानकाल की धातु से बनते हैं।

उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं। वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो और लकार हैं : लट् लकार एवं निषेधात्मक लुङ्लकार (Injunctive) (जो लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ से प्रदर्शित होता है और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है।) इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुङ् प्रकृति से भी बनते हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। इसके अतिरिक्त लिङ् प्रत्यय सम्बन्धी भेद वैदिक संस्कृत में पाये जाते हैं जैसे मिनीमसि भी (लट्, उत्तम पुरुष बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है। जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।

(3) पुनश्च, लौकिक संस्कृत आगे चलकर अधिकाधिक कृत्रिम अथवा सुबद्ध होती गई है और इसके उदाहरण हमें सुबन्धु और बाणभट्ट के गद्यकाव्यों में प्रयुक्त भयावह समासों में मिलते हैं। इस कला में वह अपने क्षेत्र के अन्य गद्यकारों से अत्यन्त उत्कृष्ट हैं।

(4) कुछ वैदिक शब्द लौकिक संस्कृत में अप्राप्य हैं और कुछ नये शब्दों का उद्भव भी हो गया है। उदाहरणार्थ, वैदिक शब्द ‘अपस्’ का ‘कार्य’ के अर्थ में प्रयोग लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गया है। लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त ‘परिवार’ शब्द वैदिक संस्कृत में अनुपलब्ध है। यह वैदिक एवं लौकिक संस्कृत की अपनी विशेषता है।

शब्दार्थ विज्ञान की दृष्टि से कुछ शब्दों में एक विशिष्ट परिवर्तन हुआ है जैसे ‘ऋतु’ जिसका वैदिक संस्कृत में अर्थ है ‘शक्ति’ और लौकिक संस्कृत में उसका अर्थ 'यज्ञ' हो गया है।

ध्वनि अन्तर[संपादित करें]

वैदिक संस्कृत में 'फ़' (अंग्रेज़ी: f, अ॰ध॰व॰: [ɸ]) और 'ख़' (अ॰ध॰व॰: [x]) की ध्वनियाँ थीं जो बाद की संस्कृत में खोई गई।[11] इसमें 'ख़' के उच्चारण पर ध्यान दें क्योंकि यह 'ख' से बहुत भिन्न है, और 'ख़राब' और 'ख़ास' जैसे शब्दों में मिलती है। आधुनिक काल में एक ग़लत धारणा है कि 'फ़' और 'ख़' की ध्वनियाँ संस्कृत-परम्परा में विदेशज हैं। वर्गीकरण की दृष्टि से 'फ़' को 'उपध्मानीय' और 'ख़' को 'जिह्वामूलीय' कहा जाता है।[12] 'ख़' की ध्वनि को विसर्ग में अघोष कण्ठ्य वर्णों से पहले उच्चारित किया जाता था।[13]

अन्य अन्तर[संपादित करें]

भाषा में परिवर्तन के अतिरिक्त दोनों साहित्यों में कुछ और भिन्नताएँ प्राप्य हैं:

  • (1) प्रथमतः, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, वैदिक साहित्य, प्रधानतः धार्मिक है जब कि लौकिक संस्कृत अपने वर्ण्यविषय की दृष्टि से धर्म के साथ-साथ लौकिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बद्ध है।
  • (2) दोनों की आत्मा यद्यपि अभिन्न है तथापि अभिन्नता में भी भिन्नता के दर्शन होते हैं। वैदिक वाङ्मय, मुख्यतः जैसा कि ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में हमें प्राप्त होता है, आशावादी है जबकि लौकिक संस्कृत साहित्य निराशावादी है, इस निराशावाद की झलक बौद्धों के ‘सर्व दुःखं’ में भी है। बौद्धों के व्यवहार्यपक्ष ‘करुणा’ और ‘मैत्री’ का उद्घोष भी वैदिक साहित्य की मौलिकता है।
  • (3) वैदिक धर्म भी परवर्ती काल में अव्यक्त रूप से विशिष्ट परिवर्धित हुआ दिखाई देता है। यहाँ तक कि वैदिक युग के प्रधान देवता जैसे इन्द्र, अग्नि, वरुण को लौकिक संस्कृत में अपेक्षाकृत विशिष्टता प्राप्त नहीं हुई परन्तु ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों को वेदों में केवल गौण स्थान ही प्राप्त था, परवर्ती काल में इन्हें एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इस काल में कुछ नए देवी देवताओं : गणेश, कुबेर, लक्ष्मी और दुर्गा इत्यादि का भी वैदिक मूल से विकास हुआ।
  • (4) परवर्ती, विशेषतः आठवीं और नवीं शताब्दी के बाद के, कवियों में अत्युक्ति का आश्रय ग्रहण करने की ओर अधिक झुकाव है, जैसे माघ, श्रीहर्ष आदि में जबकि पूर्ववर्ती कवियों जैसे अश्वघोष (बौद्ध कवि), भास और कालिदास में अत्युक्ति का अभाव है। वैदिक वाङ्मय में अत्युक्ति का महा अभाव है।
  • (5) लौकिक संस्कृति में छन्दोबद्ध रूपों के प्रयोगों की ओर हमें एक विशिष्ट आग्रह दिखायी देता है। वैदिक युग में भी छन्दोबद्ध रूपों का आधिक्य मिलता है, किन्तु वहां विशेषतः यज्ञ सम्बन्धी साहित्य में गद्य का भी प्रयोग हुआ, जैसे यजुर्वेद और ब्राह्मणों में। लौकिक संस्कृत काल में छन्दोबद्ध रूपों के प्रयोग की ओर इतना अधिक झुकाव है कि यहाँ तक कि वैद्यक ग्रन्थ (चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता इत्यादि) भी पद्य में ही लिखे गये। आश्चर्य तो इस बात से होता है कि कोशों की रचना (जैसे अमरकोश) भी छन्दों में ही हुई। कुछ आगे चलकर परवर्ती काल में बाण और सुबन्धु ने गद्य काव्यों के लेखन की शैली का विकास किया, जो कि बड़े-बड़े समासों से मिश्रित होने के कारण अत्यन्त कृत्रिम कही जाती है। इसके अतिरिक्त पूर्ववर्ती काल में सूत्र-रूप में दार्शनिक ग्रंथों को लिखने की प्रणाली का भी प्रचलन हुआ।

आगे चलकर हमें छन्दों की प्रणाली का भी एक परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। वैदिक छन्द जगती, त्रिष्टुभ, अनुष्टुभ तो लौकिक संस्कृत में सर्वथा अनुपलब्ध है। जबकि लौकिक संस्कृत के छन्द वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा, शिखरिणी आदि वेदों में पूर्णतः अप्राप्य हैं। हां, यह अवश्य सच है कि लौकिक संस्कृत में प्रयुक्त श्लोक छन्द वैदिक अनुष्टुभ् छन्द का ही रूप हैं।

वैदिक एवं लौकिक संस्कृत की भिन्नताओं की ओर दृष्टिपात करते हुए यह ध्यान देना आवश्यक है कि सिद्धान्त की दृष्टि से दोनों एक दूसरे से काफी मिलती-जुलती हैं। वेदों में कुछ और अधिक ध्वनियां मिलती हैं, जैसे कि । अन्य ध्वनि-सिद्धान्त दोनों के समान ही हैं और उनमें कोई भी वैसा अन्तर नहीं दिखायी देता जैसा कि प्राकृत बोलियों में हमें प्राप्त होता है।

अवस्तई फ़ारसी और वैदिक संस्कृत की तुलना[संपादित करें]

१९वीं शताब्दी में अवस्ताई फ़ारसी और वैदिक संस्कृत दोनों पर पश्चिमी विद्वानों की नज़र नई-नई पड़ी थी और इन दोनों के गहरे सम्बन्ध का तथ्य उनके सामने जल्दी ही आ गया। उन्होने देखा के अवस्ताई फ़ारसी और वैदिक संस्कृत के शब्दों में कुछ सरल नियमों के साथ एक से दूसरे को अनुवादित किया जा सकता था और व्याकरण की दृष्टि से यह दोनों बहुत नज़दीक थे। अपनी सन् १८९२ में प्रकाशित किताब "अवस्ताई व्याकरण की संस्कृत से तुलना और अवस्ताई वर्णमाला और उसका लिप्यन्तरण" में भाषावैज्ञानिक और विद्वान एब्राहम जैक्सन ने उदाहरण के लिए एक अवस्ताई धार्मिक श्लोक का वैदिक संस्कृत में सीधा अनुवाद किया[14] -

मूल अवस्ताई
वैदिक संस्कृत अनुवाद
तम अमवन्तम यज़तम
सूरम दामोहु सविश्तम
मिथ़्रम यज़ाइ ज़ओथ़्राब्यो
तम आमवन्तम यजताम
शूरम धामसू शाविष्ठम
मित्राम यजाइ होत्राभ्यः

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "Change Request Documentation: 2011-041". SIL International. मूल से 5 जून 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.
  2. "How Sanskrit evolved in India". मूल से 7 जून 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 जून 2019.
  3. A brief history of India Archived 2016-12-24 at the वेबैक मशीन, Alain Daniélou, Kenneth Hurry, Inner Traditions / Bear & Co, 2003, ISBN 978-0-89281-923-2, ... The language of the Indian Aryans, Vedic Sanskrit, is the oldest of the languages known as Indo-European, of which written documents and spoken forms exist ...
  4. Philip Baldi (1983). An Introduction to the Indo-European Languages. Southern Illinois University Press. पपृ॰ 51–52. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8093-1091-3.
  5. Christopher I. Beckwith (2009). Empires of the Silk Road: A History of Central Eurasia from the Bronze Age to the Present. Princeton University Press. पपृ॰ 363–368. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-691-13589-4. मूल से 21 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.
  6. Ahmad Hasan Dani; B. A. Litvinsky (1996). History of Civilizations of Central Asia: The crossroads of civilizations, A.D. 250 to 750. UNESCO. पृ॰ 85. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-92-3-103211-0. मूल से 14 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.; Quote: "The oldest extant manuscript of the Avesta dates back to 1258 or 1278. In the Sasanian period, Avestan was considered a dead language."
  7. Hamid Wahed Alikuzai (2013). A Concise History of Afghanistan in 25 Volumes. Trafford. पृ॰ 44. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-4907-1441-7. मूल से 14 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.;Quote "The Avestan language is called Avestan because the sacred scriptures of Zoroastrianism, Avesta, were written in this old form. Avestan died out long before the advent of Islam and except for scriptural use not much has remained of it."
  8. Rens Bod (2013). A New History of the Humanities: The Search for Principles and Patterns from Antiquity to the Present. Oxford University Press. पपृ॰ 14–18. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-164294-4. मूल से 14 फ़रवरी 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 अप्रैल 2020.
  9. "A reminder: Panini didn't destroy lingual diversities with his Sanskrit grammar, he unified them". मूल से 27 मई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 जून 2019.
  10. Aufsätze zur Indoiranistik: Volume 3 Archived 2019-09-29 at the वेबैक मशीन, Karl Hoffmann, Johanna Narten, Reichert, 1992, ISBN 978-3-88226-532-3, ... Avestan Language. III. The grammar of Avestan: 'The morphology of Avestan nouns, adjectives, pronouns, and verbs is, like that of the closely related Old Persian, inherited from Proto-Indo-European via Proto-Indo-Iranian (Proto-Aryan), and agrees largely with that of Vedic, the oldest known form of Indo-Aryan. The interpretation of the transmitted Avestan texts presents in many cases considerable difficulty for various reasons, both with respect to their contexts and their grammar. Accordingly, systematic comparison with Vedic is of much assistance in determining and explaining Avestan grammatical forms ...
  11. A practical grammar of the Sanskrit language Archived 2015-01-19 at the वेबैक मशीन, Sir Monier Monier-Williams, Clarendon Press, 1864, ... An Ardha-visarga ... sometimes employed before k,kh and p,ph. Before the two former letters this symbol is properly called Jihva-muliya, and the organ of its enunciation said to be the root of the tongue ...
  12. The major languages of South Asia, the Middle East and Africa, Bernard Comrie, Taylor & Francis, 1990, ISBN 9780415057721, ... Certain sounds, however, have particular names: r ḥ ṁ χ φ, respectively, are called repha, visarjaniya, anusvara, jihvamuliya, upadhmaniya ...
  13. Sociolinguistic perspectives: papers on language in society, 1959-1994, Charles Albert Ferguson, Thom Huebner, Oxford University Press, 1996, ISBN 9780195092905, ... This weakened variant, also spelled with visarga, is described by grammarians as a weak voiceless fricative that varies in place of constriction in accordance with the following consonant: labial before /p, ph/, retroflex before /ṣ, ṭ, ṭh/, palatal before /ś, č, čh/, and velar before /k, kh/ ...
  14. An Avesta grammar in comparison with Sanskrit and The Avestan alphabet and its transcription Archived 2013-10-09 at the वेबैक मशीन, Abraham Valentine Williams Jackson, AMS Press, 1892, ISBN 978-0-404-09010-4