हरिजन आन्दोलन

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

हिंदू समाज में जिन जातियों या वर्गों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता था और आज भी कुछ हद तक वैसा ही विषम व्यवहार कहीं कहीं पर सुनने और देखने में आता है, उनको अस्पृश्य, अंत्यज या दलित नाम से पुकारते थे। यह देखकर कि ये सारे ही नाम अपमानजनक हैं, सन् 1932 के अंत में गुजरात के एक अंत्यज ने ही महात्मा गांधी को एक गुजराती भजन का हवाला देकर लिखा कि अंत्यजों को "हरिजन" जैसा सुंदर नाम क्यों न दिया जाए। उस भजन में हरिजन ऐसे व्यक्ति को कहा गया है, जिसका सहायक संसार में, सिवाय एक हरि के, कोई दूसरा नहीं है। गांधी जी ने यह नाम पसंद कर लिया और यह प्रचलित हो गया।

परिचय[संपादित करें]

वैदिक काल में अस्पृश्यता का उल्लेख पाया जाता। वर्णव्यवस्था के विकृत हो जाने और जाति पाँति की भेद भावना बढ़ जाने के कारण अस्पृश्यता को जन्म मिला। इसके ऐतिहासिक, राजनीतिक आदि और भी कई कारण बतलाए जाते हैं। किंतु साथ ही साथ, इसे एक सामाजिक बुराई भी बतलाया गया। "वज्रसूचिक" उपनिषद् में तथा महाभारत के कुछ स्थलों में जातिभेद पर आधारित ऊँचनीचपन की निंदा की गई है। कई ऋषि मुनियों ने, बुद्ध एवं महावीर ने कितने ही साधु संतों ने तथा राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती प्रभृति समाजसुधारकें ने इस सामाजिक बुराई की ओर हिंदू समाज का ध्यान खीचा। समय समय पर इसे मिटाने के जहाँ तहाँ छिट पुट प्रयत्न भी किए गए, किंतु सबसे जोरदार प्रयत्न तो गाँधी जी ने किया। उन्होंने इसे हिंदूधर्म के माथे पर लगा हुआ कलंक माना और कहा कि "यदि अस्पृश्यता रहेगी, तो हिंदू धर्म का - उनकी दृष्टि में "मानव धर्म" का - नाश निश्चित है।" स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए गाँधी जी ने जो चतु:सूत्री रचनात्मक कार्यक्रम देश के सामने रखा, उसमें अस्पृश्यता का निवारण भी था। परंतु इस आंदोलन ने देशव्यापी रूप तो 1932 के सितंबर मास में धारण किया, जिसका संक्षिप्त इतिहास यह है-

लंदन में आयोजित ऐतिहासिक गोलमेज़ परिषद् के दूसरे दौर में, कई मित्रों के अनुरोध पर, गांधी जी सम्मिलित हुए थे। परिषद् ने भारत के अल्पसंख्यकों के जटिल प्रश्न को लेकर जब एक कमेटी नियुक्त की, तो उसके समक्ष 12 नवम्बर 1931 को गांधी जी ने अछूतों की ओर से बोलते हुए कहा - "मेरा दावा है कि अछूतों के प्रश्न का सच्चा प्रतिनिधित्व तो मैं कर सकता हूँ। यदि अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन मान लिया गया, तो उसके विरोध में मैं अपने प्राणों की बाजी लगा दूँगा।" गांधी जी को विश्वास था कि पृथक् निर्वाचन मान लेने से हिंदू समाज के दो टुकड़े हो जाएँगे और उसका यह अंगभंग लोकतंत्र तथा राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ा घातक सिद्ध होगा और अस्पृश्यता को मानकर सवर्ण हिंदुओं ने जो पाप किया है उसका प्रायश्चित्त करने का अवसर उनके हाथ से चला जाएगा।

गोलमेज परिषद् से गांधी के आते ही स्वातंत्र्य आंदोलन ने फिर से जोर पकड़ा। गांधी जी को तथा कांग्रेस के कई प्रमुख नेताओं को जेलों में बंद कर दिया गया। गांधी जी ने यरवदा जेल से भारत मंत्री श्री सेम्युएल होर के साथ इस बारे में पत्रव्यवहार किया। प्रधान मंत्री को भी लिखा। किंतु जिस बात की आशंका थी वही होकर रही। ब्रिटिश मंत्री रैमजे मैकडानल्ड ने अपना जो सांप्रदायिक निर्णय दिया, उसमें उन्होंने दलित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचन को ही मान्यता दी।

13 सितंबर 1932 को गांधी जी ने उक्त निर्णय के विरोध में आमरण अनशन का निश्चय घोषित कर दिया। सारा भारत काँप उठा इस भूकंप के जैसे धक्के से। सामने विकट प्रश्न खड़ा था कि अब क्या होगा। देश के बड़े बड़े नेता इस गुत्थी को सुलझाने के लिए इकट्ठा हुए। मदनमोहन मालवीय, च. राजगोपालचारी, तेजबहादुर सप्रू, एम. आर. जयकर, अमृतलाल वि. ठक्कर, घनश्याम बिड़ला आदि, तथा दलित वर्गों के नेता डाक्टर अंबेडकर, श्रीनिवासन्, एम. सी. राजा और दूसरे प्रतिनिधि। तीन दिन तक खूब विचारविमर्श हुआ। चर्चा में कई उतार चढ़ाव आए। अंत में 24 सिंतबर को सबने एकमत से एक निर्णीत समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, जो "पूना पैक्ट" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पूना पैक्ट ने दलित वर्गों के लिए ब्रिटिश भारत के अंतर्गत मद्रस, बंबई (सिंध के सहित) पंजाब, बिहार और उड़ीसा, मध्यप्रांत, आसाम, बंगाल और संयुक्त प्रांत की विधान सभाओं में कुल मिलाकर 148 स्थान, संयुक्त निर्वाचन प्रणाली मानकर, सुरक्षित कर दिए, जबकि प्रधानमंत्री के निर्णय में केवल 71 स्थान दिए गए थे, तथा केंद्रीय विधान सभा में 18 प्रतिशत स्थान उक्त पैक्ट में सुरक्षित कर दिए गए। पैक्ट की अवधि 10 वर्ष की रखी गई, यह मानकर कि 10 वर्ष के भीतर अस्पृश्यता से पैदा हुई निर्योग्यताएँ दूर कर दी जाएँगी।

सर तेजबहादुर सप्रू और श्री जयकर ने इस पैक्ट का मसौदा तत्काल तार द्वारा ब्रिटिश प्रधान मंत्री को भेज दिया। फलत: प्रधान मंत्री ने जो सांप्रदायिक निर्णय दिया था, उसमें से दलित वर्गों के पृथक् निर्वाचन का भाग निकाल दिया।

समस्त भारत के हिंदुओं के प्रतिनिधियों की जो परिषद् 25 सिंतबर, 1932 को बंबई में पं. मदनमोहन मालवीय के सभापतित्व में हुई, उसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसका मुख्य अंश यह है - आज से हिंदुओं में कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के कारण "अछूत" नहीं माना जाएगा और जो लोग अब तक अछूत माने जाते रहे हैं, वे सार्वजनिक कुओं, सड़कों और दूसरी सब संस्थाओं का उपयोग उसी प्रकार का कर सकेंगे, जिस प्रकार कि दूसरे हिंदू करते हैं। अवसर मिलते ही, सबसे पहले इस अधिकार के बारे में कानून बना दिया जाएगा और यदि स्वतंत्रता प्राप्त होने से पहले ऐसा कानून न बनाया गया तो स्वराज्य संसद् पहला कानून इसी के बारे में बनाएगी।

26 सितंबर को गांधी जी ने, कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा अन्य मित्रों की उपस्थिति में संतरे का रस लेकर अनशन समाप्त कर दिया। इस अवसर पर भावविह्वल कवि ठाकुर ने स्वरचित "जीवन जखन शुकाये जाय, करुणा धाराय एशो" यह गीत गाया। गांधी जी ने अनशन समाप्त करते हुए जो वक्तव्य प्रकाशनार्थ दिया, उसमें उन्होंने यह आशा प्रकट की कि, "अब मेरी ही नहीं, किंतु सैकड़ों हजारों समाजसंशोधकों की यह जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ गई है कि जब तक अस्पृश्यता का उन्मूलन नहीं हो जाता, इस कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त नहीं क लिया जाता, तब तक कोई चैन से बैठ नहीं सकता। यह न मान लिया जाए कि संकट टल गया। सच्ची कसौटी के दिन तो अब आनेवाले हैं।"

इसके अनंतर 30 सितंबर को पुन: बंबई में पंडित मालवीय जी की अध्यक्षता में जो सार्वजनिक सभा हुई, उसमें सारे देश के हिंदु नेताओं ने निश्चय किया कि अस्पृश्यतानिवारण के उद्देश्य से एक अखिल भारतीय अस्पृश्यताविरोधी मंडल (ऐंटी-अन्टचेबिलिटी लीग) स्थापित किया जाए, जिसका प्रधान कार्यालय दिल्ली में रखा जाए और उसकी शाखाएँ विभिन्न प्रांतों में और उक्त उद्देश्य को पूरा करने के लिए यह कार्यक्रम हाथ में लिया जाए - (क) सभी सार्वजनिक कुएँ, धर्मशालाएँ, सड़कें, स्कूल, श्मशानघाट, इत्यादि दलित वर्गों के लिए खुले घोषित कर दिए जाएँ, (ख) सार्वजनिक मंदिर उनके लिए खोल दिए जाएँ, (ग) बशर्ते कि (क) और (ख) के संबंध में जोर जबरदस्ती का प्रयोग न किया जाए, बल्कि केवल शांतिपूर्वक समझानेबुझाने का सहारा लिया जाए।""

इन निश्चयों के अनुसार "अस्पृश्यता-विरोधी-मंडल" नाम की अखिल भारतीय संस्था, बाद में जिसका नाम बदलकर "हरिजनसेवक-संघ" रखा गया, बनाई गई। संघ का मूल संविधान गांधी जी ने स्वयं तैयार किया।

हरिजन-सेवक-संघ ने अपने संविधान में जो मूल उद्देश्य रखा वह यह है-"संघ का उद्देश्य हिंदूसमाज में सत्यमय एवं अहिंसक साधनों द्वारा छुआछूत को मिटाना और उससे पैदा हुई उन दूसरी बुराइयों तथा निर्योग्यताओं को जड़मूल से नष्ट करना है, जो तथाकथित अछूतों को, जिन्हें इसके बाद "हरिजन" कहा जाएगा, जीवन के सभी क्षेत्रों में भोगनी पड़ती हैं और इस प्रकार उन्हें पूर्ण रूप से शेष हिंदुओं के समान स्तर पर ला देना है।"

"अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हरिजन-सेवक-संघ भारत भर के सवर्ण हिंदुओं से संपर्क स्थापित करने का प्रयत्न करेगा और उन्हें समझाएगा कि हिंदूसमाज में प्रचलित छूआछूत हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों और मानवता की उच्चतम भावनाओं के सर्वथा विरुद्ध है, तथा हरिजनों के नैतिक, सामाजिक और भौतिक कल्याणसाधक के लिए संघ उनकी भी सेवा करेगा।""

हरिजन-सेवक-संघ का प्रथम अध्यक्ष श्री घनश्यामदास बिड़ला को नियुक्त किया गया और मंत्री का पद सँभाला श्री अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर ने, जो "ठक्कर बापा" के नाम से प्रसिद्ध थे। श्रीठक्कर ने सारे प्रांतों के प्रमुख समाजसुधारकों एवं लोकवेताओं से मिलकर कुछ ही महीनों में संघ को पूर्णतया संगठित कर दिया।

गांधी जी ने जेल के अंदर से ही हरिजन आंदोलन को व्यापक और सक्रिय बनाने की दृष्टि से तीन साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन कराया-अंग्रेजी में "हरिजन", हिंदी में "हरिजन सेवक" और गुजराती में "हरिजन बंधु"। इन साप्ताहिक पत्रों ने कुछ ही दिनों में "यंग इंडिया" और "नवजीवन" का स्थान ले लिया, जिनका प्रकाशन राजनीतिक कारणों से बंद हो गया था। हरिजन प्रश्न के अतिरिक्त अन्य सामयिक विषयों पर भी गांधी जी इन पत्रों में लेख और टिप्पणियाँ लिखा करते थे।

कुछ दिनों बाद, ठक्कर बापा के अनुरोध पर अस्पृश्यतानिवारणार्थ गांधी जी ने सारे भारत का दौरा किया। लाखों लोगों ने गांधी जी के भाषणों को सुना, हजारों ने छुआछूत को छोड़ा और हरिजनों को गले लगाया। कहीं कहीं पर कुछ विरोधी प्रदर्शन भी हुए। किंतु विरोधियों के हृदय को गांधी जी ने प्रेम से जीत लिया। इस दौरे में हरिजनकार्य के लिए जो निधि इकट्ठी हुई, वह दस लाख रुपए से ऊपर ही थी।

हरिजनों ने अपना जन्मजात अधिकार प्राप्त करने का साहस पैदा हुआ। सवर्णों का विरोध भी धीरे धीरे कम होने लगा। गांधी जी की यह बात लोगों के गले उतरने लगी कि "यदि अस्पृश्यता रहेगी तो हिंदू धर्म विनाश से बच नहीं सकता।"

हरिजन-सेवक-संघ ने सारे भारत में हरिजन-छात्र-छात्राओं के लिए हजारों स्कूल और सैकड़ों छात्रालय चलाए। उद्योगशालाएँ भी स्थापित कीं। खासी अच्छी संख्या में विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियाँ और अन्य सहायताएँ भी दीं। हरिजनों की बस्तियों में आवश्यकता को देखते हुए अनेक कुएँ बनवाए। होटलों, धर्मशालाओं तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों के उपयोग पर जो अनुचित रुकावटें थीं उनको हटवाया। बड़े बड़े प्रसिद्ध मंदिरों में विशेषत: दक्षिण भारत के मंदिरों में हरिजनों को सम्मानपूर्वक दर्शन पूजन के लिए प्रवेश दिलाया।

देश स्वतंत्र होते ही संविधान परिषद् ने, डॉ॰ अंबेडकर की प्रमुखता में जो संविधान बनाया, अस्पृश्यता को "निषिद्ध" ठहरा दिया। कुछ समय के उपरांत भारतीय संसद् ने अस्पृश्यता अपराध कानून भी बना दिया। भारत सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए विशेष आयुक्त नियुक्त करके हरिजनों की शिक्षा तथा विविध कल्याण कार्यों की दिशा में कई उल्लेखनीय प्रयत्न किए।

संसद् और राज्यों की विधान सभाओं में सुरक्षित स्थानों से जो हरिजन चुने गए, उनमें से अनेक सुयोग्य व्यक्तियों को केंद्र में एवं विभिन्न राज्यों में मंत्रियों के उत्तरदायित्वपूर्ण पद दिए गए। विभिन्न सरकारी विभागें में भी उनकी नियुक्तियाँ हुई। उनमें स्वाभिमान जाग्रत हुआ। आर्थिक स्थिति में भी यत्किंचित् सुधार हुआ। किंतु इन सबका यह अर्थ नहीं कि अस्पृश्यता का सर्वथा उन्मूलन हो गया है। स्पष्ट है कि समाजसंशोधन का आंदोलन केवल सरकार या किसी कानून पर पूर्णत: आधारित नहीं रह सकता। अस्पृश्यता का उन्मूलन प्रत्येक सवर्ण हिंदू का अपना कर्तव्य है, जिसके लिए उसका स्वयं प्रयत्न अपेक्षित है।