पुंसवन संस्कार

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हिन्दू मापन प्रणाली

हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें। गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय। उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाय। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाय, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है। वेद मंत्रों, यज्ञीय वातावरण एवं संस्कार सूत्रों की प्रेरणाओं से शिशु के मानस पर तो श्रेष्ठ प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों और परिजनों को भी यह प्रेरणा मिलती है कि भावी माँ के लिए श्रेष्ठ मनःस्थिति और परिस्थितियाँ कैसे विकसित की जाए।

उद्देश्य[संपादित करें]

यह संस्कार गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए गर्भिणी का किया जाता है। कहना न होगा कि बालक को संस्कारवान् बनाने के लिए सर्वप्रथम जन्मदाता माता-पिता को सुसंस्कारी होना चाहिए। उन्हें बालकों के प्रजनन तक ही दक्ष नहीं रहना चाहिए, वरन् सन्तान को सुयोग्य बनाने योग्य ज्ञान तथा अनुभव भी एकत्रित कर लेना चाहिए। जिस प्रकार रथ चलाने से पूर्व उसके कल-पुर्जों की आवश्यक जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, उसी प्रकार गृहस्थ जीवन आरम्भ करने से पूर्व इस सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी इकट्ठी कर लेनी चाहिए। यह अच्छा होता, अन्य विषयों की तरह आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में दाम्पत्य जीवन एवं शिशु निर्माण के सम्बन्ध में शास्त्रीय प्रशिक्षण दिये जाने की व्यवस्था रही होती। इस महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति संस्कारों के शिक्षणात्मक पक्ष से भली प्रकार पूरी हो जाती है। यों तो षोडश संस्कारों में सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार का विधान है, जिसका अर्थ यह है कि दम्पती अपनी प्रजनन प्रवृत्ति से समाज को सूचित करते हैं। विचारशील लोग यदि उन्हें इसके लिए अनुपयुक्त समझें, तो मना भी कर सकते हैं। प्रजनन वैयक्तिक मनोरंजन नहीं, वरन् सामाजिक उत्तरदायित्व है। इसलिए समाज के विचारशील लोगों को निमंत्रित कर उनकी सहमति लेनी पड़ती है। यही गर्भाधान संस्कार है। पूर्वकाल में यही सब होता था।

ग्रहस्थ एकान्त मिलन के साथ वासनात्मक मनोभाव न रखें, मन ही मन आदर्शवादी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहें, तो उसकी मानसिक छाप बच्चे की मनोभूमि पर अंकित होगी। लुक-छिपकर पाप कर्म करते हुए भयभीत और आशंकाग्रसित अनैतिक समागम-व्यभिचार के फलस्वरूप जन्मे बालक अपना दोष-दुर्गुण साथ लाते हैं। इसी प्रकार उस समय दोनों की मनोभूमि यदि आदर्शवादी मान्यताओं से भरी हुई हो, तो मदालसा, अर्जुन आदि की तरह मनचाहे स्तर के बालक उत्पन्न किये जा सकते हैं।

गर्भाधान संस्कार का प्रयोजन यही है। वस्तुतः वह प्रजनन-विज्ञान का आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्थिति का मार्गदर्शन कराने वाला सन्कार ही था। आज संस्कारों का जबकि एक प्रकार से लोप ही हो गया है, गर्भाधान का प्रचलन कठिन पड़ता है, इसलिए उसे आज व्यावहारिक न देखकर उस पर विशेष जोर नहीं दिया गया है, फिर भी उसकी मूल भावना यथावत् है। सन्तान उत्पादन से पूर्व उर्पयुक्त तथ्यों पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।

प्रयोजन[संपादित करें]

गर्भ सुनिश्चित हो जाने पर तीन माह पूरे हो जाने तक पुंसवन संस्कार कर देना चाहिए। विलम्ब से भी किया तो दोष नहीं, किन्तु समय पर कर देने का लाभ विशेष होता है। तीसरे माह से गर्भ में आकार और संस्कार दोनों अपना स्वरूप पकड़ने लगते हैं। अस्तु, उनके लिए आध्यात्मिक उपचार समय पर ही कर दिया जाना चाहिए। इस संस्कार के नीचे लिखे प्रयोजनों को ध्यान में रखा जाए। गर्भ का महत्त्व समझें, वह विकासशील शिशु, माता-पिता, कुल परिवार तथा समाज के लिए विडम्बना न बने, सौभाग्य और गौरव का कारण बने। गर्भस्थ शिशु के शारीरिक, बौद्धिक तथा भावनात्मक विकास के लिए क्या किया जाना चाहिए, इन बातों को समझा-समझाया जाए। गर्भिणी के लिए अनुकूल वातावरण खान-पान, आचार-विचार आदि का निर्धारण किया जाए। गर्भ के माध्यम से अवतरित होने वाले जीव के पहले वाले कुसंस्कारों के निवारण तथा सुसंस्कारों के विकास के लिए, नये सुसंस्कारों की स्थापना के लिए अपने संकल्प, पुरुषार्थ एवं देव अनुग्रह के संयोग का प्रयास किया जाए।

विशेष व्यवस्था[संपादित करें]

  1. औषिधि अवघ्राण के लिए वट वृक्ष की जटाओं के मुलायम सिरों का छोटा टुकड़ा, गिलोय, पीपल की कोपल-मुलायम पत्ते लाकर रखे जाएँ। सबका थोड़ा-थोड़ा अंश पानी के साथ सिल पर पीसकर एक कटोरी में उसका घोल तैयार रखा जाए।

‍# साबूदाने या चावल की खीर तैयार रखी जाए। जहाँ तक सम्भव हो सके, इसके लिए गाय का दूध प्रयोग करें। खीर गाढ़ी हो। तैयार हो जाने पर निर्धारित क्रम में मंगलाचरण, षट्कर्म, संकल्प, यज्ञोपवीत परिवर्तन, कलावा-तिलक एवं रक्षाविधान तक का यज्ञीय क्रम पूरा करके नीचे लिखे क्रम से पुंसवन संस्कार के विशेष कर्मकाण्ड कराएँ।

औषधि अवघ्राण[संपादित करें]

वट वृक्ष, विशालता और दृढ़ता का प्रतीक है। धीरे-धीरे बढ़ना धैर्य का सूचक है। इसकी जटाएँ भी जड़ और तने बन जाती हैं, यह विकास-विस्तार के साथ पुष्टि की व्यवस्था है, वृद्धावस्था को युवावस्था में बदलने का प्रयास है। गिलोय में वृक्ष के ऊपर चढ़ने की प्रवृत्ति है। यह हानिकारक कीटाणुओं की नाशक है, शरीर में रोगाणुओं, अन्तःकरण के कुविचार-दुर्भावों, परिवार और समाज में व्याप्त दुष्टता-मूढ़ता आदि के निवारण की प्रेरणा देती है। शरीर को पुष्ट कर, प्राण ऊर्जा की अभिवृद्धि कर सत्प्रवृत्तियों के पोषण की सार्मथ्य पैदा करती है। पीपल देवयोनि का वृक्ष माना जाता है। देवत्व के परमार्थ के संस्कार इसमें सन्निहित हैं। उनका वरण, धारण और विकास किया जाए। सूँघने और पान करने का तात्पर्य श्रेष्ठ संस्कारों का वरण करने, उन्हें आत्मसात् करने की व्यवस्था बनाना है। आहार तथा दिनचर्या का निर्धारण ऐसा किया जाए जिससे महापुरुषों के अध्ययन, श्रवण, चिन्तन द्वारा गर्भिणी अपने में, अपने गर्भ में श्रेष्ठ संस्कार पहुँचाए। इस कार्य में परिजन उसका सहयोग करें।

क्रिया भावना[संपादित करें]

औषधि की कटोरी गर्भिणी के हाथ में दी जाए। वह दोनों हाथों में उसे पकड़े। मन्त्र बोला जाए, गर्भिणी नासिका के पास औषधि को ले जाकर धीरे-धीरे श्वास के साथ उसकी गन्ध धारण करे। भावना की जाए कि औषधियों के श्रेष्ठ गुण और संस्कार खींजे जा रहे हैं। वेद मन्त्रों तथा दिव्य वातावरण द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग मिल रहा है। ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च, विश्वकर्मणः समर्वत्तताग्रे। तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति, तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥ -३१.१७

गर्भ पूजन[संपादित करें]

शिक्षण एवं प्रेरणा[संपादित करें]

गर्भ कौतुक नहीं, एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। उसे समझा जाए और उस जिम्मेदारी को उठाने की तैयारी मानसिक तथा व्यावहारिक क्षेत्र में की जाए। गर्भ के माध्यम से जो जीव प्रकट होना चाहता है, उसे ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर उसके लिए समुचित व्यवस्था बनाकर, उसके स्वागत की तैयारी करनी चाहिए। गर्भ पूज्य है। कोई पूज्य व्यक्ति सामने हो, तो अपने स्वभाव तथा परस्पर के द्वेष-वैर को भुलाकर भी शालीनता का वातावरण बनाया जाता है। गर्भ के लिए भी ऐसा ही किया जाए। गर्भ का पूजन केवल एक सामयिकता औपचारिकता न रह जाए। संस्कारित करने के लिए पूजा उपासना का सतत प्रयोग चले। घर में आस्तिकता का वातावरण रहे। गर्भिणी स्वयं भी नियमित उपासना करे। उसे आहार और विश्राम जितना ही महत्त्वपूर्ण मानकर चलाया जाए। अधिक न बने, तो गायत्री चालीसा पाठ एवं पंचाक्षरी मन्त्र 'ॐ र्भूभुवः स्वः' का जप ही कर लिया करे।

क्रिया और भावना[संपादित करें]

गर्भ पूजन के लिए गर्भिणी के घर परिवार के सभी वयस्क परिजनों के हाथ में अक्षत, पुष्प आदि दिये जाएँ। मन्त्र बोला जाए। मंत्र समाप्ति पर एक तश्तरी में एकत्रित करके गर्भिणी को दिया जाए। वह उसे पेट से स्पर्श करके रख दे। भावना की जाए, गर्भस्थ शिशु को सद्भाव और देव अनुग्रह का लाभ देने के लिए पूजन किया जा रहा है। गर्भिणी उसे स्वीकार करके गर्भ को वह लाभ पहुँचाने में सहयोग कर रही है। ॐ सुपर्णोऽसि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो, गायत्रं चक्षुबरृहद्रथन्तरे पक्षौ। स्तोमऽआत्मा छन्दा स्यंगानि यजूषि नाम। साम ते तनूर्वामदेव्यं, यज्ञायज्ञियं पुच्छं धिष्ण्याः शफाः। सुपर्णोऽसि गरुत्मान् दिवं गच्छ स्वःपत॥ -१२.४

आश्वास्तना[संपादित करें]

शिक्षण एवं प्रेरणा[संपादित करें]

गर्भ के माध्यम से प्रकट होने वाले जीव को अपेक्षा होती है कि उसे विकास के लिए सही वातावरण मिलेगा। जिस सत्ता ने गर्भ प्रदान किया है, वह भी उस उत्तरदायित्व को पूरा होते देखना चाहती है। दोनों को आश्वस्त किया जाना चाहिए कि उन्हें निराश नहीं होना पड़ेगा। पहला आश्वासन गर्भिणी दे। वह अपने र्कत्तव्य का ध्यान रखे। आहार-विहार, चिन्तन सही रखे। दूसरों के व्यवहार और वातावरण की शिकायत करने में समय और शक्ति न गँवाकर, धैर्यपूर्वक गर्भ को श्रेष्ठ संस्कार देने का प्रयास करे। प्रसन्न रहे, ईष्र्या, द्वेष, क्रोध आदि मनोविकारों से बचती रहे। धैर्यपूर्वक उज्ज्वल भविष्य की कामना करे। दूसरा आश्वासन उसके पति और परिजनों की ओर से होता है। गर्भिणी माता अपने शरीर तथा रक्त-मांस से बालक का शरीर बनाती है, अपना रक्त सफेद दूध के रूप में निकाल-निकाल कर बच्चे का पोषण करती है, उसके मल-मूत्र, स्नान, वस्त्र तथा दिनचर्या की हर घड़ी साज-सॅभाल रखती है। इतना भार तथा त्याग कुछ कम नहीं। माता इतना करके भी अपने हिस्से की जिम्मेदारी का बहुत बड़ा भाग पूरा कर लेती है। अब शिशु को सुसंस्कारी बनाने की उपयुक्त परिस्थितियाँ उत्पन्न करना, पिता का काम रह जाता है। उसे पूरा करने के लिए उतना ही त्याग करना, उतना ही कष्ट सहना और उतना ही ध्यान रखना, पिता का और परिजनों का भी र्कत्तव्य है। सब मिलकर प्रयास करें कि गर्भ पर अभाव और कुसंस्कारों की छाया न पड़ने पाए। गर्भिणी गलत आकांक्षाएँ पास न आने दे। परिजन उसकी उचित आकांक्षाएँ जानें और पूरी करें। क्या खाना चाहती है? यही पूछना पर्याप्त नहीं, कैसा व्यवहार चाहती है? यह भी पूछा जाय, समझा जाए और पूरा किया जाए।

क्रिया और भावना[संपादित करें]

गर्भिणी अपना दाहिना हाथ पेट पर रखे। पति सहित परिवार के सभी परिजन अपना हाथ गर्भिणी की तरफ आश्वासन की मुद्रा में उठाएँ। मन्त्र पाठ तक वही स्थिति रहे। भावना की जाए कि गर्भिणी गर्भस्थ शिशु तथा दैवी सत्ता को आश्वस्त कर रही है। सभी परिजन उसके इस प्रयास में भरपूर सहयोग देने की शपथ ले रहे हैं। इस शुभ संकल्प में दैवी शक्तियाँ सहयोग दे रही है। इस श्रेष्ठ संकल्प-पूर्ति की क्षमता दे रही हैं। ॐ यत्ते ससीमे हृदये हितमन्तः प्रजापतौ। मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं, माहं पौत्रमघन्नियाम्॥ - आश्व०गृ०सू० १.१३ आश्वास्तना के बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने का क्रम चलाएँ। उसके बाद विशेष आहुतियाँ प्रदान करें।

विशेष आहुति[संपादित करें]

शिक्षण एवं प्रेरणा[संपादित करें]

यज्ञीय जीवन भारतीय संस्कृति की विशेष उपलब्धि है। जीवन का हर चरण एक आहुति है। कृत्य विशेष को यज्ञमय बनाने के लिए विशेष क्रम बनाने होते हैं। विशेष आहुति उसी बोध को जीवन्त बनाती है। यज्ञ में पोषक, सात्त्विक पदार्थ खीर की आहुति डाली जाती है। इसी प्रकार अंतःकरण में दूध की तरह श्वेत, कलुषरहित भावों का संचार करें। दूध में घी समाया रहता है, अपने चिन्तन एवं आचरण में स्नेह समाया रहे। गर्भिणी स्वयं भी तथा परिवार के परिजन मिलकर गर्भस्थ शिशु के लिए ऐसा ही परमार्थपरक वातावरण बनाएँ।

क्रिया और भावना[संपादित करें]

गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ हो जाने के बाद खीर की पाँच आहुतियाँ विशेष मन्त्र से की जाएँ। भावना की जाय कि दिव्य मन्त्र शक्ति के संयोग से गर्भस्थ शिशु और सभी परिजनों के लिए अभीष्ट मंगलमय वातावरण बन रहा है। ॐ धातादधातु दाशुषे, प्राचीं जीवातुमक्षिताम्। वयं देवस्य धीमहि, सुमतिं वाजिनीवतः स्वाहा। इदं धात्रे इदं न मम॥ -आश्व०गृ०सू० १.१४

चरु प्रदान[संपादित करें]

शिक्षण एवं प्रेरणा[संपादित करें]

यज्ञ से बची खीर गर्भिणी को सेवन के लिए दी जाती है। यज्ञ से संस्कारित अन्न ही मन में देवत्व की वृत्तियाँ पैदा करता है। स्वार्थ वृत्ति से स्वाद को लक्ष्य करके तैयार किया गया भोजन अकल्याणकारी होता है। आहार प्रभु का प्रसाद बनाकर लिया जाए। बिना भोग लगाये न खाना, संयम की वृत्ति को पैदा करता है, पुष्ट करता है। नित्य का आहार भी यज्ञीय संस्कार युक्त हो, इसके लिए घर में बलिवैश्व परम्परा डाली जानी चाहिए। गर्भिणी विशेष रूप से नित्य बलिवैश्व करके, यज्ञ का प्रसाद बनाकर ही भोजन ले। भोजन में सात्विक पदार्थ हों। उत्तेजक, पेट और वृत्तियों को खराब करने वाले पदार्थ न हों। उन्हीं में रस लिया जाए।

क्रिया और भावन[संपादित करें]

‍विशेष आहुतियों के बाद शेष बची खीर प्रसाद रूप में एक कटोरी में गर्भिणी को दी जाए। वह उसे लेकर मस्तक से लगाकर रख ले। सारा कृत्य पूरा होने पर पहले उसी का सेवन करे। भावना करे कि यह यज्ञ का प्रसाद दिव्य शक्ति सम्पन्न है। इसके प्रभाव से राम-भरत जैसे नर पैदा होते हैं। ऐसे संयोग की कामना की जा रही है। ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधिषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्। -यजु० १८.३६

आशीर्वचन[संपादित करें]

सारा कृत्य पूरा हो जाने पर विसर्जन के पूर्व आशीर्वाद दिया जाए। आचार्य गर्भिणी को शुभ मन्त्र बोलते हुए फल-फूल आदि दें। गर्भिणी साड़ी के आँचल में ले। अन्य बुजुर्ग भी आशीर्वाद दे सकते हैं। सभी लोग पुष्प वृष्टि करें। गर्भिणी एवं उसका पति बड़ों के चरण स्पर्श करें, सबको नमस्कार करें।

विसर्जन और जयघोष करके आयोजन समाप्त किया जाए।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ी[संपादित करें]