जयशंकर प्रसाद

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से


जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889- 15 नवंबर 1937)[1][2], हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कामनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के, प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के, प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि 'खड़ीबोली' हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।

जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत्‌ १९४६ वि॰ तदनुसार 30 जनवरी 1890 ई॰ दिन-गुरुवार)[2] को काशी के गोवर्धनसराय में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी भी दान देने के साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी।

प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई थी, परंतु यह शिक्षा अल्पकालिक थी। छठे दर्जे में वहाँ शिक्षा आरंभ हुई थी[3] और सातवें दर्जे तक ही वे वहाँ पढ़ पाये।[4] उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध घर पर ही किया गया, जहाँ हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन इन्होंने किया। प्रसाद जी के प्रारंभिक शिक्षक श्री मोहिनीलाल गुप्त थे। वे कवि थे और उनका उपनाम 'रसमय सिद्ध' था। शिक्षक के रूप में वे बहुत प्रसिद्ध थे।[5] चेतगंज के प्राचीन दलहट्टा मोहल्ले में उनकी अपनी छोटी सी बाल पाठशाला थी।[3] 'रसमय सिद्ध' जी ने प्रसाद जी को प्रारंभिक शिक्षा दी तथा हिंदी और संस्कृत में अच्छी प्रगति करा दी।[5] प्रसाद जी ने संस्कृत की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। उनके निकट संपर्क में रहने वाले तीन सुधी व्यक्तियों के द्वारा तीन संस्कृत अध्यापकों के नाम मिलते हैं। डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा के अनुसार "चेतगंज के तेलियाने की पतली गली में इटावा के एक उद्भट विद्वान रहते थे। संस्कृत-साहित्य के उस दुर्धर्ष मनीषी का नाम था - गोपाल बाबा। प्रसाद जी को संस्कृत साहित्य पढ़ाने के लिए उन्हें ही चुना गया।"[6] विनोदशंकर व्यास के अनुसार "श्री दीनबन्धु ब्रह्मचारी उन्हें संस्कृत और उपनिषद् पढ़ाते थे।"[4] राय कृष्णदास के अनुसार रसमय सिद्ध से शिक्षा पाने के बाद "प्रसाद जी ने एक विद्वान् हरिहर महाराज से और संस्कृत dffwc


। वे लहुराबीर मुहल्ले के आस-पास रहते थे। प्रसाद जी का संस्कृत प्रेम बढ़ता गया। उन्होंने स्वयमेव उसका बहुत अच्छा अभ्यास कर लिया था। बाद में वे स्वाध्याय से ही वैदिक संस्कृत में भी निष्णात हो गये थे।"[5] बनारस हिन्दू huविश्वविद्यालय के संस्कृत-अध्यापक महामहोपाध्याय पं॰ देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती को प्रसाद जी का काव्यगुरु माना जाता है।[7]

घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की Slipkzk




में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था।[8] उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्यशास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान-पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे।[9] इनकी पहली कविता ‘सावक पंचक’ सन १९०६ में भारतेंदु पत्रिका में कलाधर नाम से ही प्रकाशित हुई थी। वे नियमित रूप से गीता-पाठ करते थे, परंतु वे संस्कृत में गीता के पाठ मात्र को पर्याप्त न मानकर गीता के आशय को जीवन में धारण करना आवश्यक मानते थे।[10]

प्रसाद जी का पहला विवाह 1909 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी के साथ हुआ था।[11] उनकी पत्नी को क्षय रोग था। सन् 1916 ई॰ में विंध्यवासिनी देवी का निधन हो गया। उसी समय से उनके घर में क्षय रोग के कीटाणु प्रवेश कर गये थे। सन् 1917 ई॰ में सरस्वती देवी के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ।[11] दूसरा विवाह होने पर उनकी पहली पत्नी की साड़ियों आदि को उनकी द्वितीय पत्नी ने भी पहना और कुछ समय बाद उन्हें भी क्षय रोग हो गया और दो ही वर्ष बाद 1919 ई॰ में उनका देहांत भी प्रसूतावस्था में क्षय रोग से ही हुआ।[12] इसके बाद पुनः घर बसाने की उनकी लालसा नहीं थी, परंतु अनेक लोगों के समझाने और सबसे अधिक अपनी भाभी के प्रतिदिन के शोकमय जीवन को सुलझाने के लिए उन्हें बाध्य होकर विवाह करना पड़ा। सन् १९१९ ई॰ में उनका तीसरा विवाह कमला देवी के साथ हुआ। उनका एकमात्र पुत्र रत्नशंकर प्रसाद तीसरी पत्नी की ही संतान थे,[4] जिनका जन्म सन् १९२२ ई॰ में हुआ था।[11] स्वयं प्रसाद जी भी जीवन के अंत में क्षय रोग से ग्रस्त हो गये थे और एलोपैथिक के अतिरिक्त लंबे समय तक होमियोपैथिक तथा कुछ समय आयुर्वेदिक चिकित्सा का सहारा लेने के बावजूद इस रोग से मुक्त न हो सके और अंततः इसी रोग से १५ नवम्बर १९३७ (दिन-सोमवार) को प्रातःकाल (उम्र ४७) उनका देहान्त काशी में हुआ। सुप्रसिद्ध युवा कवि गोलेन्द्र पटेल ने अपनी कविता ‘कठौती और करघा’ में काशी के संदर्भ में कहा है कि

“रैदास की कठौती और कबीर के करघे के बीच/ तुलसी का दुख एक सेतु की तरह है/ जिस पर से गुज़रने पर/ हमें प्रसाद, प्रेमचंद व धूमिल आदि के दर्शन होते हैं!/

यह काशी/ बेगमपुरा, अमरदेसवा और रामराज्य की नाभि है।” (कवितांश : ‘कठौती और करघा’ से)[13]

लेखन-कार्य[संपादित करें]

कविता[संपादित करें]

प्रसाद ने कविता ब्रजभाषा में आरम्भ की थी। [14] उपलब्ध स्रोतों के आधार पर प्रसाद जी की पहली रचना 1901 ई॰ में लिखा गया एक सवैया छंद है, लेकिन उनकी प्रथम प्रकाशित कविता दूसरी है, जिसका प्रकाशन जुलाई 1906 में 'भारतेन्दु' में हुआ था।[15]

प्रसाद जी ने जब लिखना शुरू किया उस समय भारतेन्दुयुगीन और द्विवेदीयुगीन काव्य-परंपराओं के अलावा श्रीधर पाठक की 'नयी चाल की कविताएँ भी थीं। उनके द्वारा किये गये अनुवादों 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' का नवशिक्षितों और पढ़े-लिखे प्रभु वर्ग में काफी मान था। प्रसाद के 'चित्राधार' में संकलित रचनाओं में इसके प्रभाव खोजे भी गये हैं और प्रमाणित भी किये जा सकते हैं।[16]

1909 ई॰ में 'इन्दु' में उनका कविता संग्रह 'प्रेम-पथिक' प्रकाशित हुआ था। 'प्रेम-पथिक' पहले ब्रजभाषा में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसका परिमार्जित और परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में नवंबर 1914 में 'प्रेम-पथ' नाम से और उसका अवशिष्ट अंश दिसंबर 1914 में 'चमेली' शीर्षक से प्रकाशित हुआ।[17] बाद में एकत्रित रूप से यह कविता 'प्रेम-पथिक' नाम से प्रसिद्ध हुई।

डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के अनुसार :

" 'प्रेम-पथिक' का महत्त्व प्रसाद की व्यापक और उदार दृष्टि, सर्वभूत हित कामना, समता की इच्छा, प्रतिपद कल्याण करने का संकल्प, प्रकृति की गोद में सुख का स्वप्न आदि के बीजभाव के कारण तो है ही, प्रसाद ने प्रेम के अनुभूतिपरक अनेक रूपों का जो वर्णन किया है उसके कारण भी है।"[18]

'करुणालय' का प्रकाशन १९१३ ई॰ में 'इन्दु' में हुआ था। स्वयं प्रसाद जी ने इसे गीतिनाट्य के ढंग पर लिखा गया दृश्य काव्य कहा है। हालाँकि इसकी रचना गीतिपरक न होकर कवितात्मक ही है। केवल इसके अंत में एक गीतात्मक पद्य है। कविता का अधिकांश अतुकान्त है तथा मात्रिक छंद में वाक्यानुसार विरामचिह्न दिया गया है। इसलिए इसे गीतिनाट्य की अपेक्षा 'काव्य नाटक' कहना ही उचित है। १९१४ ई॰ में 'इन्दु' में प्रकाशित 'महाराणा का महत्त्व' शीर्षक कविता महाराणा प्रताप के साथ अमर सिंह पर भी केन्द्रित है। यह स्वाधीनता प्रेम, पराधीनता के खिलाफ संघर्ष, स्वतंत्रता को हर कीमत पर बनाये रखने के शौर्य और संकल्प की कथात्मक कविता है।[18]

प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनाओं का संग्रह 'चित्राधार' था, जिसका पहला संस्करण १९१८ ई॰ में प्रकाशित हुआ था; परंतु उनका पहला प्रकाशित काव्य-संग्रह 'कानन-कुसुम' था जिसका प्रथम प्रकाशन १९१३ ई॰ में हुआ था। इसके तीसरे संस्करण के विवरण से पता चलता है कि इसके प्रथम संस्करण में उस समय तक रचित प्रसाद जी की खड़ीबोली के साथ ब्रजभाषा की कविताएँ भी संकलित थीं। बाद के संस्करण में इसमें केवल खड़ीबोली की कविताएँ रखी गयीं तथा ब्रजभाषा में रचित कविताएँ 'चित्राधार' में संकलित कर दी गयीं।[19] चूँकि 'चित्राधार' में संकलित रचनाएँ कालक्रम से 'कानन-कुसुम' में संकलित रचनाओं से पहले की थीं, इसलिए प्रसाद जी की कृतियों में 'चित्राधार' को पहले और 'कानन-कुसुम' को दूसरे काव्य-संग्रह के रूप में स्थान दिया जाता है। 'कानन-कुसुम' की रचनाओं में संशोधन-परिवर्धन भी बहुत बाद तक होते रहा।[20]

सन् १९१८ ई॰ में प्रकाशित 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में ब्रजभाषा और खड़ी बोली में लिखी 'कलाधर' और 'प्रसाद' छाप की कविताएँ एक साथ संकलित थीं, परन्तु १९२८ ई॰ में प्रकाशित इसके दूसरे संस्करण में केवल ब्रजभाषा की ही रचनाएँ रखी गयीं। 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में 'करुणालय' एवं 'महाराणा का महत्त्व' शीर्षक कविताएँ भी संकलित थीं, परंतु १९२८ में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।[21] उर्वशी, बभ्रुवाहन, करुणालय, ब्रह्मर्षि, पंचायत, प्रकृति सौंदर्य, सरोज, भक्ति आदि रचनाओं को 'चित्राधार' के इस परवर्ती संस्करण में निकाल दिया गया।[22] 'चित्राधार' में संकलित कथामूलक भाव वाली कविताएँ तीन हैं -- 'वन मिलन', 'अयोध्या का उद्धार' और 'प्रेम राज्य'।[23] 'अयोध्या का उद्धार' कालिदास कृत 'रघुवंश' के सोलहवें सर्ग पर तथा 'वन मिलन' 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' पर आधारित है। 'प्रेम राज्य' विजयनगर और अहमदाबाद के बीच हुए तालीकोट युद्ध की ऐतिहासिक घटना को केंद्र में रखकर लिखा गया वीरगाथा काव्य है।

प्रसाद जी की खड़ीबोली की स्फुट कविताओं का प्रथम संग्रह 'कानन कुसुम' है। इसमें सन १९०९ से लेकर १९१७ तक की कविताएँ संगृहीत हैं। प्रायः सभी कविताएँ पहले 'इन्दु' में प्रकाशित हो चुकी थीं। यहाँ तक की कविताएँ प्रसाद जी के प्रारंभिक दौर की कविताएँ हैं, जिनमें काव्य-विकास की अपेक्षा विकास के संकेत ही अधिक उपस्थापित हो पाये हैं।

१९१८ ई॰ में ही प्रसाद जी के सुप्रसिद्ध संग्रह 'झरना' का प्रकाशन हुआ। जिसमें प्रसाद की प्रथम छायावादी कविता प्रथम प्रभात भी प्रकाशित हुई थी। इसमें प्रसाद जी के काव्य-विकास के संधिकाल की गीतिपरक कविताएँ संकलित हैं। आरंभ में इसमें कुल २४ कविताएँ थीं। इसका दूसरा संस्करण सन १९२७ ई॰ में प्रकाशित हुआ, जिसमें आचार्य शुक्ल के अनुसार ३३ रचनाएँ और जोड़ी गयीं, जिनमें रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्रविधान आदि सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला', 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'वसंत की प्रतीक्षा' इत्यादि उन्हीं पीछे जोड़ी गयीं रचनाओं में हैं जो पहले संस्करण में नहीं थीं।[24] 'झरना' एक दृष्टि से प्रेम के विविध अनुभवों का जीवन्त वर्णन है। इसके साथ ही इसमें लोकमंगल की भावना और दीन-दुखी तथा दलितों के दुख के अन्त की कामना भी है, जो प्रेम को उदार बनाती है।[25] अनेक समालोचकों के विचार से छायावाद की प्रतिष्ठापक कुछ कविताएँ इस संग्रह में संकलित थीं। इसमें प्रसाद जी के भावी उदात्त काव्य-विकास के संकेत तो प्रभूत मात्रा में मिलते हैं, परंतु जहाँ-तहाँ भाषा का अनगढ़पन, लय का अभाव तथा उदात्तीकरण की न्यूनता[26] रचनात्मक प्रौढ़ता में बाधा बनती भी दिखती है।

प्रसाद जी की काव्य रचना के दूसरे दौर का आरम्भ 'आँसू' से हुआ, जिसका प्रकाशन १९२५ ई॰ में साहित्य सदन, चिरगाँव (झाँसी) से हुआ था। इसके प्रथम संस्करण में १२६ छंद थे, जबकि १९३३ में भारती-भण्डार, रामघाट, बनारस सिटी से प्रकाशित द्वितीय संस्करण में १९० छंद हैं।[27] द्वितीय संस्करण में कुछ छंदों के पाठ में भी परिवर्तन किया गया था।[28][29] प्रसाद जी की अधिकांश काव्य-रचनाओं में न्यूनाधिक सिद्धि के साथ अन्तर्धारा के रूप में अनुस्यूत तत्त्व के बारे में 'प्रेम-पथिक' के सन्दर्भ में लिखते हुए डॉ॰ रमेशचन्द्र शाह ने कहा है :

"विषय-वस्तु इस कविता की वही है जो इस कवि के साथ एक स्थायी भाव सरीखा महत्त्व रखती जान पड़ती है : अर्थात् मानवीय प्रेम-भावना का दर्शन -- एक अत्यन्त उत्कट वैयक्तिक प्रेमासक्ति का धीरे-धीरे एक आदर्श विश्वव्यापी प्रेमानुभूति में रूपान्तरण।"[30]

इस भावना का प्रतिफलन 'प्रेम-पथिक' में जहाँ प्रारम्भिक रूप में हुआ था, वहीं 'आँसू' में यह अधिक व्यापक और काफी हद तक सिद्ध रूप में प्रतिफलित हुई है। डॉ॰ शाह के शब्दों में :

"...प्रेमानुभूति के विकास क्रम के दो स्तरों का सन्धान : एक तो आत्मान्वेषण के साधन के रूप में और दूसरे इस व्यक्तिगत 'आत्म को अतिक्रान्त करके विश्व-प्रेम और विश्व-करुणा की निर्वैयक्तिक मुक्ति की साधना के रूप में।"[30]

डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के अनुसार "आत्मपरकता की यह वस्तुपरकता प्रसाद को अच्छे लेखक से बड़ा लेखक बनाती है। 'आँसू' में भी इस प्रकार की चेतना मिलती है।"[31]

प्रसाद जी की गीतात्मक सृष्टि के शिखर 'लहर' का प्रकाशन १९३५ ई॰ में हुआ। इस संग्रह में १९३० से १९३५ ई॰ तक की रचनाएँ संकलित की गयीं।[32] इस संग्रह के नाम तथा इसमें अन्तर्व्याप्त भावधारा के सम्बन्ध में डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है " 'लहर' की पहली ही कविता में, जो रचना के नामकरण और प्रतीकार्थ का कारण भी है, सूखे तट पर 'करुणा की नव अंगड़ाई सी' और 'मलयानिल की परछाईं सी' छिटकने और छहरने की आकांक्षा है।"[31] प्रसाद जी के काव्य-शिल्प के प्रति असंतोष व्यक्त करने के बावजूद 'लहर' के सम्बन्ध में सुमित्रानंदन पंत ने 'छायावाद : पुनर्मूल्यांकन' नामक पुस्तक में लिखा है "लहर के प्रगीतों में गाम्भीर्य, मार्मिक अनुभूति तथा बुद्ध की करुणा का भी प्रभाव है। प्रसाद जी का भावजगत 'झरना' की प्रेम-व्याकुलता तथा चंचल भावुकता से बाहर निकलकर इसमें उनकी व्यापक जीवनानुभूति को अधिक सबल संगठित अभिव्यक्ति दे सका है।"[33] 'लहर' के अंत में ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित चार कविताएँ संकलित हैं जो कि प्रसाद के जीवन-दर्शन, देशप्रेम, सामयिक स्थिति, अन्तर्द्वन्द्व तथा नियतिबोध की कविताएँ हैं।[34]

सन् १९३६ ई॰ में 'कामायनी' का प्रकाशन हुआ। इसकी रचना में प्रसाद ने पूरे सात वर्ष लगाये थे।[35] इसकी पांडुलिपि तथा प्रथम संस्करण को मिलाकर पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि प्रसाद जी ने इसके पाठ में भी अनेक परिवर्तन करते हुए इसका स्वरूप निर्धारित किया था।[36] महाकाव्य के परम्परागत विधान में सचेत रूप से कुछ छोड़ते और बहुत-कुछ जोड़ते हुए पन्द्रह सर्गों में विभक्त यह महाकाव्य विभिन्न दृष्टियों से जयशंकर प्रसाद की रचनात्मकता का शिखर तो है ही, काफी हद तक छायावादी काव्य दृष्टि की भी रचनात्मक निष्पत्ति है।

कहानी[संपादित करें]

कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ १९१२ ई. में 'इन्दु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई।[14] उनके पाँच कहानी-संग्रहों में कुल मिलाकर सत्तर कहानियाँ संकलित हैं। 'चित्राधार' से संकलित 'उर्वशी' और 'बभ्रुवाहन' को मिलाकर उनकी कुल कहानियों की संख्या ७२ बतला दी जाती है। यह 'उर्वशी' 'उर्वशी चम्पू' से भिन्न है, परन्तु ये दोनों रचनाएँ भी गद्य-पद्य मिश्रित भिन्न श्रेणी की रचनाएँ ही हैं। 'चित्राधार' में तो कथा-प्रबन्ध के रूप में पाँच और रचनाएँ भी संकलित हैं,[37] जिनको मिलाकर कहानियों की कुल संख्या ७७ हो जाएँगी; परंतु कुछ अंशों में कथा-तत्त्व से युक्त होने के बावजूद स्वयं जयशंकर प्रसाद की मान्यता के अनुसार ये रचनाएँ 'कहानी' विधा के अंतर्गत नहीं आती हैं। अतः उनकी कुल कहानियों की संख्या सत्तर है।

कहानी के सम्बन्ध में प्रसाद जी की अवधारणा का स्पष्ट संकेत उनके प्रथम कहानी-संग्रह 'छाया' की भूमिका में मिल जाता है। 'छाया' नाम का स्पष्टीकरण देते हुए वे जो कुछ कहते हैं वह काफी हद तक 'कहानी' का परिभाषात्मक स्पष्टीकरण बन गया है। प्रसाद जी का मानना है कि छोटी-छोटी आख्यायिका में किसी घटना का पूर्ण चित्र नहीं खींचा जा सकता। परंतु, उसकी यह अपूर्णता कलात्मक रूप से उसकी सबलता ही बन जाती है क्योंकि वह मानव-हृदय को अर्थ के विभिन्न आयामों की ओर प्रेरित कर जाती है। प्रसाद जी के शब्दों में "...कल्पना के विस्तृत कानन में छोड़कर उसे घूमने का अवकाश देती है जिसमें पाठकों को विस्तृत आनन्द मिलता है।"[38] 'आनन्द' के साथ इस 'विस्तृत' विश्लेषण में निश्चय ही अर्थ की बहुआयामी छवि सन्निहित है; और इसीलिए छोटी कहानी भी केवल विनोद के लिए न होकर हृदय पर गम्भीर प्रभाव डालने वाली होती है। आज भी कहानी के सन्दर्भ में प्रसाद जी की इस अवधारणा की प्रासंगिकता अक्षुण्ण बनी हुई है, बल्कि बढ़ी ही है।

कवि एवं नाटककार के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अधिष्ठित होने के कारण प्रसाद जी की कहानियों पर लम्बे समय तक समीक्षकों ने उतना ध्यान नहीं दिया, जितना कि अपेक्षित था; जबकि विजयमोहन सिंह के शब्दों में :

"साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में समान प्रतिभा तथा क्षमता के साथ अधिकार रखने वाले प्रसाद जी ने सर्वाधिक प्रयोगात्मकता कहानी के क्षेत्र में ही प्रदर्शित की है। मुख्य रूप से उनके शिल्प प्रयोग विलक्षण हैं।"[39]

छायावादी और आदर्शवादी माने जाने वाले जयशंकर प्रसाद की पहली ही कहानी 'ग्राम' आश्चर्यजनक रूप से यथार्थवादी है। भले ही उनकी यह कहानी हिन्दी की पहली कहानी न हो, परन्तु इसे सामान्यतः हिन्दी की पहली 'आधुनिक कहानी' माना जाता है। इसमें ग्रामीण यथार्थ का वह पक्ष अभिव्यक्त हुआ है जिसकी उस युग में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इस कहानी में महाजनी सभ्यता के अमानवीय पक्ष का जिस वास्तविकता के साथ उद्घाटन हुआ है वह प्रसाद जी की सूक्ष्म और सटीक वस्तुवादी दृष्टि का परिचायक है।[39]

सामान्यतः प्रसाद जी को सामन्ती अभिरुचि का रचनाकार मानने की भूल भी की जाती रही है, जबकि एक ओर प्रसाद जी 'ममता' कहानी में "पतनोन्मुख सामन्त वंश का अन्त समीप" बतलाते हैं[40] तो दूसरी ओर अपनी शिखर कृति 'कामायनी' में 'देव संस्कृति' के विनाश को उसकी आन्तरिक कमियों के कारण ही स्वाभाविक मानते हैं। 'देव संस्कृति' और 'स्वर्ग की परिकल्पना' को प्रसाद जी अपनी कहानी 'स्वर्ग के खण्डहर में' भी ध्वस्त कर डालते हैं। इस कहानी में दुर्दान्त शेख से बिना डरे लज्जा कहती है "स्वर्ग ! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख ? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाय, शेख।"[41] यदि इस कहानी के ध्वन्यर्थ को इसके बाद हुए द्वितीय विश्वयुद्ध की परिणति से भी जोड़ कर देखें[42] तो प्रसाद जी की सर्जनात्मक दृष्टि की महत्ता और भी सहजता से समझ में आ सकती है।

वस्तुतः प्रसाद जी ने हिन्दी कहानी को अपने विशिष्ट योगदान के रूप में प्रेम की तीव्रता और प्रतीति के साथ कहानीपन को बनाए रखते हुए आन्तरिकता और अन्तर्मुखता के आयाम ही नहीं दिये बल्कि वास्तविकता के दोहरे स्वरूपों और जटिलताओं को पकड़ने, दरसाने और प्रस्तुत करने के लिए हिन्दी कहानी को सक्षम भी बनाया। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में :

"हिन्दी कहानी में प्रसाद का योगदान दृश्य प्रधान चित्रात्मकता और नाटकीयता के संरचनात्मक तत्त्वों के कारण ही नहीं है बल्कि इनके माध्यम से उस आन्तरिक संघर्ष और द्वन्द्व को अभिव्यक्त करने की क्षमता प्रदान करने में है, जो प्रसाद के पूर्व नहीं था। हिन्दी कहानी में संश्लिष्टता और भावों के अंकन की सूक्ष्मता प्रसाद ने ही विकसित की।"[43]

उपन्यास[संपादित करें]

प्रसाद जी ने तीन उपन्यास लिखे हैं : कंकाल, तितली और इरावती (अपूर्ण)। 'कंकाल' के प्रकाशित होने पर प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों से नाराज रहने वाले प्रेमचन्द ने अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की थी तथा इसकी समीक्षा करते हुए 'हंस' के नवंबर १९३० के अंक में लिखा था :

"यह 'प्रसाद' जी का पहला ही उपन्यास है, पर आज हिंदी में बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं, जो इसके सामने रक्खे जा सकें।"[44]

'कंकाल' में धर्मपीठों में धर्म के नाम पर होने वाले अनाचारों को अंकित किया गया है। उपन्यास में प्रसाद जी ने अपने को काशी तक ही सीमित न रखकर प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन, हरिद्वार आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों को भी कथा के केंद्र में समेट लिया है। इतना ही नहीं उन्होंने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त मुस्लिम और ईसाई समाज में भी इस धार्मिक व्यभिचार की व्याप्ति को अंकित किया है। मधुरेश की मान्यता है :

"जयशंकर प्रसाद उस समाज का वास्तविक चित्र देते हैं, सारी नग्नता और विद्रूपता के साथ, जहाँ धर्म के नाम पर मनुष्य की हीन वृत्तियों का नंगा नाच होता है।... समाज और सम्प्रदाय कोई भी हो, स्त्री की नियति सब कहीं हाशिए पर ही है और कुलीनता तथा पुरुष के वर्चस्ववादी अहंकार का शिकार उसी को होना है। लेकिन प्रसाद जी मनुष्य की संभावनाओं के प्रति कहीं भी उदासीन नहीं हैं।"[45]

'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। इसके प्रकाशित होने पर प्रेमचन्द ने 'हंस' के जुलाई १९३५ अंक में लिखा था :

"यद्यपि इसमें कंकाल की साहित्यिक छटा नहीं है, पर दृष्टिकोण की स्पष्टता और विचारों की प्रौढ़ता में उससे बढ़ा हुआ है।... हम चरित्रों की झलक सी देखते हैं। उनका संपूर्ण रूप हमारे सामने नहीं आता, मगर शायद यह उनका अधखुलापन ही है, जो उन्हें हृदय के समीप पहुँचा देता है। कला जितनी छिपाव में है, उतनी दिखाव में नहीं।"[46]

आरम्भिक समीक्षकों ने 'कंकाल' को यथार्थवादी और तितली को आदर्शोन्मुख यथार्थवादी रचना माना। परन्तु, बाद में प्रगतिशील दृष्टि-सम्पन्न आलोचकों ने 'तितली' की वास्तविक महत्ता को पहचाना और एक यथार्थवादी रचना के रूप में उसे पर्याप्त महत्त्व मिला। इसकी प्रासंगिकता बढ़ी ही। 'तितली' में जमींदारी प्रथा होने न होने के सन्दर्भ में किसान की समस्या तथा पूँजीवादी भूमि-सुधार को लेकर लेखकीय दृष्टि के बारे में डॉ॰ रामविलास शर्मा का कहना है कि ऐसा लगता है, प्रसाद जी ने ये बातें बीस साल पहले न लिखकर आज लिखी हों। इसलिए डॉ॰ शर्मा की स्पष्ट मान्यता है :

"प्रसाद जी ने अपने समाज-सम्बन्धी विचारों को 'तितली' उपन्यास में और भी मूर्त रूप दिया है। सन् '३० के बाद हिन्दी कथा-साहित्य में जिस नये यथार्थवाद की लहर आयी थी, 'तितली' उसी की देन है।... 'तितली' का यथार्थवाद हिन्दी कथा-साहित्य के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।"[47]

'इरावती' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया प्रसाद जी का अपूर्ण उपन्यास है। जिस ऐतिहासिक पद्धति पर प्रसाद जी ने नाटकों की रचना की थी उसी पद्धति पर उपन्यास के रूप में 'इरावती' की रचना का आरम्भ किया गया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में "इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुंगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करने वाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही चल बसे।"[48] मधुरेश के अनुसार :

"पात्रों के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व और ऐतिहासिक प्रामाणिकता की दृष्टि से उपन्यास महती संभावनाओं का संकेत देता है।"[49]

नाटक[संपादित करें]

जयशंकर प्रसाद ने 'उर्वशी' एवं 'बभ्रुवाहन' चम्पू तथा अपूर्ण 'अग्निमित्र' को छोड़कर आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल तेरह नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गयी है। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है।[14] 'बभ्रुवाहन' चम्पू को 'जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली ' में पूर्व में असंकलित रचना के रूप में संकलित किया गया है[50][51] परन्तु यह रचना पहले भी 'प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध' संग्रह में 'चित्राधार' से संकलित 'विविध' रचना के रूप में संकलित हो चुकी है।[52]

जयशंकर प्रसाद ने जिस समय नाटकों की रचना आरंभ की उस समय भारतेन्दु द्वारा विकसित हिन्दी रंगमंच की स्वतंत्र चेतना क्रमशः क्षीण हो चुकी थी।[53] हालाँकि पारसी थिएटर का भी एक समय ऐतिहासिक योगदान रहा था; स्वयं प्रसाद जी ने स्वीकार किया है कि "पारसी व्यवसायियों ने पहले-पहल नये रंगमंच की आयोजना की", परंतु विडंबना यह थी कि पारसी थियेटर का विकास लोकरुचि को उन्नत बनाते हुए सामाजिक समस्याओं को कलात्मक रूप से सामने लाने तथा उसके समाधान की ओर प्रेरित करने की अपेक्षा एक प्रकार की विकृत रुचि और भोंड़ेपन का प्रचार करने की ओर होते चला गया।[54] इसके विपरीत प्रसाद जी के पूर्व से ही वैचारिक क्षेत्र की स्थिति यह थी कि साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और अध्यात्म में विवेकानन्द का एक स्वर से आर्य साम्राज्य की एकता और आर्य संस्कृति को नष्ट होने से बचाने का, उसके विभिन्न गणों, समाजों और जातीयताओं को एक सूत्र में पिरोने का विवेकवादी और आनन्दवादी दोनों रूपों में प्रयत्न चल रहा था।[55] ऐसे में प्रसाद जी ने अपने साहित्य -- जिसमें नाटक प्रमुखता से शामिल थे -- की रचना हेतु गहन चिन्तन-मनन को एक आवश्यक उपादान के रूप में अपनाया, जिसके स्पष्ट प्रमाण 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में पर्याप्त रूप से मिलते हैं। जयशंकर प्रसाद की इस गहरी चिंतनशीलता ने हिन्दी नाटकों को पहली बार बौद्धिक अर्थवत्ता प्रदान की। उनके नाटकों की भूमिकाएँ उनकी अनुसन्धानपरक तथ्यान्वेषी दृष्टि का स्पष्ट संकेत देती हैं।[56] डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में :

"अपने समय को परिभाषित करने के क्रम में अपने अतीत के प्राणतत्त्व को आत्मसात करते चलना उनका स्वभाव था। विचार, भाषा, शिल्प, यथार्थबोध, सभ्यता-समीक्षा, राष्ट्रीय और मानवीय चेतना, दार्शनिकता, रंगमंचीयता आदि की दृष्टि से वे सतत जागरूक रचनाकार हैं। 'उर्वशी चम्पू' से लेकर 'ध्रुवस्वामिनी' तक की यात्रा नाटक की दृष्टि से अनवरत विकास और सतत जागरूकता की यात्रा है।"[56]

प्रसाद जी ने नाट्य लेखन के आरंभ से ही पौराणिक एवं ऐतिहासिक दोनों परिप्रेक्ष्य को वैचारिक उपादान के रूप में सामने रखा है। एक ओर जहाँ महाभारत के प्रसंगों पर आधारित 'सज्जन' में युधिष्ठिर की धर्मनिष्ठा और सज्जनता को एक मूल्य के रूप में प्रस्तुत करना उनका लक्ष्य रहा है, वहीं दूसरी ओर प्रसिद्ध ऐतिहासिक पात्र जयचन्द पर केंद्रित 'प्रायश्चित्त' में राष्ट्रप्रेम को मूल्य मानकर देशद्रोह का प्रायश्चित आत्मवध माना गया है;[57] तथा 'चन्द्रगुप्त' नाटक के आरंभिक रूप 'कल्याणी परिणय' में पहले ही दृश्य में चाणक्य के स्वर में 'अन्धकार हट रहा जगत जागृत हुआ'[58] के द्वारा प्रकृति और जागरण दोनों का संकेत किया गया है। स्वाभाविक है कि आरंभिक रचनात्मक प्रयत्न के रूप में इनमें पर्याप्त अनगढ़ता है, परंतु प्रसाद की दृष्टि एवं दिशा के संकेत स्पष्ट मिल जाते हैं। बाद में उन्होंने पौराणिक की अपेक्षा ऐतिहासिक कथानक को अधिक अपनाया तथा 'राज्यश्री' से लेकर 'ध्रुवस्वामिनी' तक में मौर्यकाल से लेकर हर्ष के समय तक से भारत के गौरवमय अतीत के प्रेरक चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरणीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी।

वैचारिक रूप से प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटक के पात्रों को लेकर एक समय प्रेमचन्द[59][60] एवं पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र[61] जैसे लेखकों ने भी अपनी निजी मान्यता एवं आरंभिक उत्साह के कारण 'गड़े मुर्दे उखाड़ने' अर्थात् सामन्ती संस्कारों को पुनरुज्जीवित करने के आरोप लगाये थे, जबकि 'स्कन्दगुप्त' में देवसेना बड़े सरल शब्दों में गा रही थी :

"देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे
हारते ही रहे न है कुछ अब
दाँव पर आपको न हारोगे
कुछ करोगे कि बस सदा रोकर
दीन हो दैव को पुकारोगे
सो रहे तुम, न भाग्य सोता है
आप बिगड़ी तुम्हीं सँवारोगे
दीन जीवन बिता रहे अब तक
क्या हुए जा रहे, विचारोगे ?"[62]

और पर्णदत्त भीख भी माँगता है तो भीख में जन्मभूमि के लिए प्राण उत्सर्ग कर सकने वाले वीरों को माँगता है। इसलिए डॉ॰ रामविलास शर्मा स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :

'स्कन्दगुप्त' में प्रसादजी ने दिखाया है कि हूणों के आक्रमण से त्रस्त और बिखरी हुई जनता में फिर से साहस-संचार करके स्कन्दगुप्त और उसके साथियों ने हूणों को समरभूमि में पराजित किया और उन्हें सिन्धु पार खदेड़ दिया। ब्रिटिश साम्राज्य से आक्रान्त देश में यह नाटक लिखकर प्रसाद जी ने सामयिक राजनीति की भी एक गुत्थी सुलझायी थी।[63]

स्पष्ट है कि प्रसाद जी अपने युग-जीवन के यथार्थ को मार्मिक रूप से अभिव्यक्त करते हुए एक तरह से आँख में उँगली डालकर जनता को जगा रहे थे। डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने बहुत ठीक लिखा है कि :

'स्कन्दगुप्त' एक प्रकार से प्रसाद द्वारा लड़ा जाता हुआ राष्ट्रीय संग्राम है जो साहित्य के द्वारा लड़ा जा रहा है।[64]

प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों पर लगाये जा रहे आरोपों में निहित संकीर्णता एवं अदूरदर्शिता को उस समय भी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे मूर्धन्य मनीषी तथा दूरदृष्टि-सम्पन्न आलोचक भली-भाँति समझ रहे थे तथा इस पद्धति के नाटकों की मौलिक सर्जनात्मकता की व्यापकता एवं गहराई को पहचानते हुए एक विशिष्ट साहित्यरूप के रूप में न केवल इसकी महत्ता को रेखांकित कर रहे थे बल्कि विरोधियों की मानसिकता एवं समझ पर पुरजोर शब्दों में तार्किक रूप से प्रश्नचिह्न भी लगा रहे थे।[65]

वस्तुतः राष्ट्रीय भावबोध की अभिव्यक्ति प्रसाद के नाट्य विधान का मूलाधार कहा जा सकता है। इतिहास के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को उद्दीप्त करने का सजग प्रयास उनके अधिकतर नाटकों में द्रष्टव्य है। प्रसाद का विश्लेषण था कि आधुनिक काल में सामाजिक समरसता और राष्ट्रीयता के आड़े तीन बाधाएँ आती हैं-- सांप्रदायिकता की भावना, प्रादेशिकता के तनाव तथा पुरुष-नारी के बीच असमानता की स्थिति। अपने प्रधान नाटकों 'अजातशत्रु', 'स्कन्दगुप्त', 'चन्द्रगुप्त' तथा 'ध्रुवस्वामिनी' में उन्होंने इन्हीं का समाधान देने का यत्न किया है।[66]

रंगमंचीय अध्ययन[संपादित करें]

प्रसाद जी के नाटकों पर अभिनेय न होने का आरोप भी लगता रहा है। आक्षेप किया जाता रहा है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे गये हैं, जिसका कारण यह बताया जाता है कि इनमें काव्यतत्त्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच-बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं। उनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी भारतीय परंपरा तो है ही, साथ ही पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा भारतेंदुयुगीन नाटकों एवं शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन मार्ग ग्रहण किया है। उनके नाटकों के आरंभ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो अत्यंत कलात्मक है।[67] इसके बावजूद बाबू श्यामसुंदर दास से लेकर बच्चन सिंह तक हिंदी आलोचना की तीन पीढ़ियाँ एक प्रवाद के रूप में मानती रही है कि प्रसाद के नाटक अभिनेय नहीं हैं। परंतु नयी पीढ़ी के वैसे आलोचक जो सीधे रंगमंच से जुड़े रहे हैं, बिल्कुल भिन्न विचार प्रकट करते हैं। शांता गांधी ने 'नटरंग' त्रैमासिक में लिखा था : "प्रसाद के नाटकों की सभी समस्याओं को सुलझाकर उन्हें अत्यंत सफलतापूर्वक रंगमंच पर प्रस्तुत किया जा सकता है और उनका अवश्य ही प्रदर्शन होना चाहिए।"[68]

इस दिशा में आगे बढ़ते हुए अनेक निर्देशकों ने प्रसाद के मुख्य नाटकों को रंगमंच पर प्रदर्शित किया तथा अनेक आलोचकों ने उनके अलग-अलग नाटकों का रंगमंचीय विमर्श भी प्रस्तुत किया है। श्री वीरेन्द्र नारायण द्वारा प्रस्तुत स्कन्दगुप्त का रंगमंचीय अध्ययन 'हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास' भाग-११ में साठ पृष्ठों में विन्यस्त है।[69] इस दिशा में एक समेकित प्रयत्न की तरह 'नाटककार जयशंकर प्रसाद' नामक संपादित पुस्तक में सत्येन्द्र कुमार तनेजा ने प्राचीन से लेकर विभिन्न नवीन लेखकों तक के विचार उपयुक्त रंगमंचीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किये हैं, जिसका एक प्रमुख अंश नाट्य निर्देशकों द्वारा प्रस्तुत विचार तथा रंग-समीक्षकों द्वारा प्रस्तुत समीक्षाएँ हैं।[70] इस दिशा में लम्बी सर्जनात्मक साधना के उपरान्त महेश आनंद ने 'जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि' एवं 'जयशंकर प्रसाद : रंगसृष्टि' नामक दो खंडों की पुस्तक में प्रसाद के सभी नाटकों के विविध रंगमंचीय आयामों को उपस्थापित किया है। इसके प्रथम खंड में प्रसाद के रंग-विचारों और सभी नाटकों के विस्तृत विश्लेषण द्वारा उनकी रंगदृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है,[71] जबकि उनके नाटकों और अन्य रचनाओं की प्रस्तुतियों के विभिन्न पक्षों का विवेचन, निर्देशकों के वक्तव्य, प्रमुख रंगकर्मियों से साक्षात्कार, पत्राचार तथा अन्य विवरणों का 'रंगसृष्टि' नामक पुस्तक के दूसरे भाग में विस्तृत विवेचन किया गया है।

प्रकाशित कृतियाँ[संपादित करें]

काव्य[संपादित करें]

  1. प्रेम-पथिक - १९०९ ई॰ (प्रथम संस्करण ब्रजभाषा में; संशोधित-परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में - १९१४)[17]
  2. करुणालय (काव्य–नाटक) - १९१३ ई॰ ('चित्राधार' के प्रथम संस्करण में 'करुणालय' संकलित थी, परंतु १९२८ में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।)
  3. महाराणा का महत्त्व - १९१४ ई॰ (यह भी 'चित्राधार' के प्रथम संस्करण में करुणालय के साथ ही संकलित थी, परंतु १९२८ में इसका भी स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।)
  4. चित्राधार - १९१८ ई॰ (संशोधित-परिमार्जित संस्करण - १९२८ ई॰)
  5. कानन कुसुम - १९१३ ई॰ (ब्रजभाषा मिश्रित प्रथम संस्करण-१९१३ ई॰; परिवर्धित संस्करण-१९१८ ई॰; संशोधित-परिमार्जित, खड़ीबोली संस्करण-१९२९ ई॰)
  6. झरना - १९१८ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९२७ ई॰)
  7. आँसू - १९२५ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९३३ ई॰)
  8. लहर- १९३५ ई॰
  9. कामायनी - १९३६ ई॰

संशोधन एवं परिवर्धन के पश्चात जयशंकर प्रसाद के काव्य–संग्रहों का कालानुक्रम

संशोधित वर्ष कृति प्रथम संस्करण वर्ष
१९१४ प्रेमपथिक १९०९
१९२७ झरना १९१८
१९२८ करुणालय १९१३
१९२८ महाराणा का महत्त्व १९१४
१९२८ चित्राधार १९१८
१९२९ कानन कुसुम १९१३ पुनः १९१८
१९३३ आँसू १९२५
१९३५ लहर
१९३६ कामायनी

कहानी-संग्रह एवं उपन्यास[संपादित करें]

  1. छाया - १९१२ ई॰
  2. प्रतिध्वनि - १९२६ ई॰
  3. आकाशदीप - १९२९ ई॰
  4. आँधी - १९३१ ई॰
  5. इन्द्रजाल - १९३६ ई॰
उपन्यास-
  1. कंकाल - १९२९ ई॰
  2. तितली - १९३४ ई॰
  3. इरावती - १९३८ ई॰

नाटक-एकांकी एवं निबन्ध[संपादित करें]

  1. उर्वशी (चम्पू) - १९०९ ई॰
  2. सज्जन - १९१० ई॰
  3. कल्याणी परिणय - १९१२ ई॰ (नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित; १९३१ ई॰ में कुछ संशोधनों के साथ 'चन्द्रगुप्त' नाटक में समायोजित।)[57]
  4. प्रायश्चित्त - १९१४ ई॰
  5. राज्यश्री - १९१५ ई॰
  6. विशाख - १९२१ ई॰
  7. अजातशत्रु - १९२२ ई॰
  8. जनमेजय का नाग-यज्ञ - १९२६ ई॰
  9. कामना - १९२७ ई॰
  10. स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य - १९२८ ई॰
  11. एक घूँट - १९३० ई॰
  12. चन्द्रगुप्त - १९३१ ई॰
  13. ध्रुवस्वामिनी - १९३३ ई॰
  14. अग्निमित्र (अपूर्ण)
निबन्ध-
  1. काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध - १९३९ (भारती भण्डार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित।[72])

रचना-समग्र[संपादित करें]

  1. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (चार खण्डों में) [संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र; लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित। चारों खण्ड अलग-अलग प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास तथा प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध के नाम से भी सजिल्द एवं पेपरबैक में उपलब्ध।]
  2. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (सात खण्डों में) - २०१४ ई॰ (सं॰ ओमप्रकाश सिंह; प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली से प्रकाशित। इसके द्वितीय खण्ड में समुचित शोध से प्राप्त, दो अधूरी कविताएँ सहित पूर्व में असंकलित कुल पैंतीस कविताओं को पहली बार संकलित किया गया है।[73] सभी खण्डों में संकलित रचनाओं के प्रथम प्रकाशन का विवरण दिया गया है। सप्तम खण्ड में 'आँसू' का प्रथम संस्करण भी संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त ५ व्यक्तियों के नाम लिखे गये ४६ पत्र, कई चित्र एवं हस्तलेख तथा कुछ अन्य सामग्री भी दी गयी हैं।)

सम्मान[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद', सं॰-पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-2001ई॰,पृ॰-2 (केवल तिथि एवं संवत् के लिए। ईस्वी यहाँ भी मोटे तौर पर संवत् में से 57 घटाकर1889 लिख दी गयी है जो कि गलत है, क्योंकि 1 जनवरी से लेकर चैत्र कृष्ण अमावस्या तिथि तक के ईस्वीवर्ष के लिए संवत् में से 56 वर्ष ही घटाये जाने चाहिए क्योंकि 1 जनवरी से इस तिथि तक ईस्वीवर्ष तो नया हो गया रहता है लेकिन संवत् पुराना ही रहता है। इसकी अगली तिथि अर्थात् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को नया संवत् आरंभ होने से उस तारीख से 31 दिसंबर तक 57 वर्ष घटाने चाहिए)।
  2. (क)हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१०, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-२०२८ वि॰ (=१९७१ई॰), पृ॰-१४५(तारीख एवं ईस्वी के लिए)। (ख) www.drikpanchang.com (30.1.1890 का पंचांग; तिथ्यादि से अंग्रेजी तारीख आदि के मिलान के लिए)।
  3. डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ १२.
  4. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; व्यास नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  5. राय कृष्णदास, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰, पृ॰ ३०.
  6. डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ ११.
  7. शिवपूजन रचनावली, चौथा खण्ड, श्री शिवपूजन सहाय, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, संस्करण-१९५९, पृष्ठ-४१२-४१३.
  8. डॉ॰ प्रेमशंकर, प्रसाद का काव्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1998, पृष्ठ-29.
  9. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; कोश नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  10. डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ १६-१७.
  11. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; वातायन नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  12. राय कृष्णदास, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰, पृ॰ ३२.
  13. विनोदशंकर व्यास, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰,पृ॰ ४३-४४.
  14. सुधाकर पांडेय, हिंदी विश्वकोश, खंड-७, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९६६ ई॰, पृष्ठ-४९०.
  15. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xxxix.
  16. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-१३.
  17. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-२०.
  18. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-२३.
  19. हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१०, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-२०२८ वि॰ (=१९७१ई॰), पृ॰-१४६.
  20. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xviii-xix.
  21. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-२, सं॰ धीरेन्द्र वर्मा एवं अन्य, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पुनर्मुद्रित संस्करण-२०११, पृष्ठ-२१०.
  22. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xix.
  23. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-१७.
  24. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, पेपरबैक संस्करण-२००१ ई॰, पृष्ठ-३६७.
  25. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-३१.
  26. डॉ॰ प्रेमशंकर, प्रसाद का काव्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1998, पृष्ठ-171.
  27. नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 'जयशंकर प्रसाद विशेषांक', वर्ष-९२-९४, संवत्-२०४४-४६ सं॰ शिवनंदनलाल दर एवं अन्य, पृष्ठ-७२.
  28. नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 'जयशंकर प्रसाद विशेषांक', वर्ष-९२-९४, संवत्-२०४४-४६ सं॰ शिवनंदनलाल दर एवं अन्य, पृष्ठ-७७.
  29. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xxi.
  30. जयशंकर प्रसाद (विनिबंध), रमेशचन्द्र शाह, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, पुनर्मुद्रित संस्करण-२०१५, पृष्ठ-२७.
  31. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-३६.
  32. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xx.
  33. सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली, भाग-६, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ-८०.
  34. प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-३९.
  35. हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-१०, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी; संस्करण-२०२८ वि॰ (=१९७१ई॰), पृ॰-१४६.
  36. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-२, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-v.
  37. प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-४१४-४२८.
  38. प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-८.
  39. विजयमोहन सिंह, समय और साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-२०१२, पृष्ठ-९.
  40. आकाशदीप संग्रह की कहानी 'ममता', प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-१२३.
  41. आकाशदीप संग्रह की कहानी 'स्वर्ग के खण्डहर में', प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, पूर्ववत्, पृष्ठ-१३५.
  42. विजयमोहन सिंह, समय और साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-२०१२, पृष्ठ-१३.
  43. प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-१६.
  44. प्रेमचंद रचनावली, खण्ड-9, भूमिका एवं मार्गदर्शन- डॉ॰ रामविलास शर्मा, संपादक- राम आनंद, जनवाणी प्रकाशन, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ-344-345.
  45. मधुरेश, हिन्दी उपन्यास का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, चतुर्थ संस्करण-2008, पृष्ठ-54.
  46. प्रेमचंद रचनावली, खण्ड-9, भूमिका एवं मार्गदर्शन- डॉ॰ रामविलास शर्मा, संपादक- राम आनंद, जनवाणी प्रकाशन, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ-409,411.
  47. डॉ॰ रामविलास शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-१९९५, पृष्ठ-१३९,१४१.
  48. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण- विक्रमसंवत् २०५८ (२००१ ई॰) पृष्ठ-२९४.
  49. मधुरेश, हिन्दी उपन्यास का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, चतुर्थ संस्करण-2008, पृष्ठ-55.
  50. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-१, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-xxxii.
  51. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-३, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-vii एवं ५५-७२.
  52. प्रसाद की सम्पूर्ण कहानियाँ एवं निबन्ध, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-२००९, पृष्ठ-४००-४१३.
  53. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-viii.
  54. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-ix.
  55. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-vii.
  56. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-xii.
  57. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-xiii.
  58. 'कल्याणी परिणय' (एकांकी), प्रथम दृश्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-६९.
  59. प्रेमचन्द का अप्राप्य साहित्य, खण्ड-१, संपादक- कमलकिशोर गोयनका, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-१९८८, पृष्ठ-४५०.
  60. प्रेमचंद रचनावली, खण्ड-9, भूमिका एवं मार्गदर्शन- डॉ॰ रामविलास शर्मा, संपादक- राम आनंद, जनवाणी प्रकाशन, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, पृष्ठ-338.
  61. डॉ॰ राजेन्द्रनारायण शर्मा, अंतरंग संस्मरणों में जयशंकर 'प्रसाद' , सं॰ पुरुषोत्तमदास मोदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-२००१ ई॰, पृष्ठ-६.
  62. 'स्कन्दगुप्त' (नाटक), पंचम अंक, तृतीय दृश्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-५५२.
  63. डॉ॰ रामविलास शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-१९९५, पृष्ठ-१३७.
  64. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, पूर्ववत्, पृष्ठ-xx.
  65. हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण- विक्रमसंवत् २०५८ (२००१ ई॰) पृष्ठ-२९१-२९२.
  66. डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, छठा संस्करण-१९९६, पृष्ठ-१८०.
  67. सुधाकर पांडेय, हिंदी विश्वकोश, खंड-७, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९६६ ई॰, पृष्ठ-४९०-४९१.
  68. डॉ॰ रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, छठा संस्करण-१९९६, पृष्ठ-१७८.
  69. वीरेन्द्र नारायण, हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास भाग-११, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-१९७२ ई॰, पृष्ठ-१८३-२४३.
  70. नाटककार जयशंकर प्रसाद, संपादक- सत्येन्द्र कुमार तनेजा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2004, पृष्ठ-68-100.
  71. महेश आनंद, जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली, वितरक- राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण-2010, पृष्ठ-19.
  72. इसका मद्रण भी लीडर प्रेस, इलाहाबाद में ही हुआ था। इसका विस्तृत 'प्राक्कथन' नन्ददुलारे वाजपेयी ने लिखा था। उस समय वे गीताप्रेस, गोरखपुर में कार्यरत थे। अतः दायीं ओर उनका नाम तथा बायीं ओर 'गीताप्रेस, गोरखपुर' एवं उसके नीचे 'प्राक्कथन' लिखने की तारीख ११-३-'३९ लिखा हुआ है। [द्रष्टव्य- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध, भारती भण्डार, लीडरप्रेस, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- संवत् १९९६ (=१९३९ ई॰), पृष्ठ-ii (प्रकाशन-विवरण) एवं पृष्ठ-२५.] संभवतः इस कारण 'जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली' के संपादक डॉ॰ ओमप्रकाश सिंह ने भूलवश लिख दिया है कि इस पुस्तक का प्रथम संस्करण गीताप्रेस, गोरखपुर से छपा था। [द्रष्टव्य- जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, खण्ड-७, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, संस्करण-२०१४, पृष्ठ-vii.
  73. जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली, भाग-२, संपादक- ओमप्रकाश सिंह, प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण-२०१४, पृष्ठ-vi एवं २८३-३५२.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]