सैयद अहमद ख़ान

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सर सैयद अहमद ख़ान
सर सैयद अहमद ख़ान
व्यक्तिगत जानकारी
अन्य नामसैयद अहमद ख़ान
जन्मसैयद अहमद तक़्वी
17 अक्टूबर 1817
दिल्ली, भारत
मृत्यु27 मार्च 1898(1898-03-27) (उम्र 80)
अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
हृदय गति रुकने के कारण
वृत्तिक जानकारी
युगआधुनिक युग
क्षेत्रभारत(ब्रिटिश साम्राज्य)
मुख्य विचारसमाज सेवा, राजनीति और दर्शन
प्रमुख विचारअलीगढ़ आंदोलन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, दो राष्ट्र सिद्धांत

सर सैयद अहमद ख़ान (उर्दू: سید احمد خان بہا در‎‎, 17 अक्टूबर 1817 - 27 मार्च 1898) मुस्लिम नेता थे जिन्होंने भारत में रह रहे मुसलमानों के लिए मजहबी व दुनियावी शिक्षा की शुरुआत की।[1] इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की ।[2] उनके प्रयासों से अलीगढ़ विश्विद्यालय की शुरुआत हुई, जिसमें शामिल नेताओं ने मुसलमानों को मजहबी शिक्षा व आधुनिक युग व दुनियावी शिक्षा से शिक्षित करने का काम किया। सय्यद अहमद १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में यह सच है कि उन्होंने ग़ैर फ़ौजी अंग्रेज़ों को अपने घर में पनाह दी, बाद में जब सर सैयद अहमद को लगा कि भारत स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों को एक नेता की आवश्यकता है तो वे उनके नेता बने और अंग्रेजो के साथ उन्होंने अपने मुस्लिम समुदाय के लिए हिन्दुओ से अलग प्रवधान और विशेष अधिकार मांगने शुरू किए और अंग्रेजो से इस बात पर अधिकार मांगने शुरू किए की मुस्लिम आर्थिक रूप से कमजोर है और तादात में भी कम है बाद में अपने उग्र भाषणों से वे ब्रिटिश सरकार की निगाह में आए और भारत के विभाजन की नींव रखी गई [3] बाद में उस संग्राम के विषय में उन्होने एक किताब लिखी: असबाब-ए-बग़ावत-ए-हिन्द, उर्दू को भारतीय मुसलमानों की सामूहिक भाषा बनाने पर ज़ोर दिया।

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा[संपादित करें]

सैयद अहमद ख़ाँ का जन्म 17 अक्टूबर 1817 में दिल्ली के सादात (सैयद) ख़ानदान में हुआ था। उन्हे बचपन से ही पढ़ने लिखने का शौक़ था और उन पर पिता की तुलना में माँ का विशेष प्रभाव था। माँ के कुशल पालन पोषण और उनसे मिले संस्कारों का असर सर सैयद के बाद के दिनों में स्पष्ट दिखा, जब वह सामाजिक उत्थान के क्षेत्र में आए। 22 वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और थोड़ी सी शिक्षा के बाद ही उन्हें आजीविका कमाने में लगना पड़ा। उन्होने 1830 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी में लिपिक के पद पर काम करना शुरू किया, किंतु 1841 ई. में मैनपुरी में उप-न्यायाधीश की योग्यता हासिल की और विभिन्न स्थानों पर न्यायिक विभागों में काम किया। हालांकि सर्वोच्च ओहदे पर होने के बावज़ूद अपनी सारी ज़िन्दगी उन्होने फटेहाली में गुज़ारी।

कृतियाँ[संपादित करें]

  • अतहर असनादीद(उर्दू, 1847)
  • पैग़ंबर मुहम्मद साहब के जीवन पर लेख (उर्दू, 1870) जिसका उनके पुत्र के द्वारा एस्सेज़ ऑन द लाइफ़ ऑफ़ मुहम्मद शीर्षक से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया। साथ ही उनके बाइबिल तथा क़ुरान पर उर्दू भाषा में टीकाएँ सम्मिलित है।
  • असबाबे-बगावते-हिंद (उर्दू,1859)।
  • आसारुस्सनादीद (दिल्ली की 232 इमारतों का शोधपरक ऐतिहासिक परिचय)। गार्सां-द-तासी ने इसका फ़्रांसीसी भाषा में अनुवाद किया जो 1861 ई. में प्रकाशित हुआ।

राष्ट्रभक्ति की भावना[संपादित करें]

1857 की महाक्रान्ति और उसकी असफलता के दुष्परिणाम उन्होंने अपनी आँखों से देखा। उनका घर तबाह हो गया, निकट सम्बन्धियों का क़त्ल हुआ, उनकी माँ जान बचाकर एक सप्ताह तक घोड़े के अस्तबल में छुपी रहीं। अपने परिवार की इस बर्बादी को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उनके दिलो-दिमाग़ में राष्ट्रभक्ति की लहर करवटें लेने लगीं। इस बेचैनी से उन्होने परेशान होकर भारत छोड़ने और मिस्र में बसने का फ़ैसला किया। अंग्रेज़ों ने उनको अपनी ओर करने के लिए मीर सादिक़ और मीर रुस्तम अली को उनके पास भेजा और उन्हे ताल्लुका जहानाबाद देने का लालच दिया। यह ऐसा मौक़ा था कि वे इनके जाल में फँस सकते थे। वे धनाढ्य की ज़िन्दगी बसर कर सकते थे, लेकिन वे बहुत ही बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। उन्होने उस वक़्त लालच को बुरी बला समझकर ठुकरा दी और राष्ट्रभक्ति को अपनाना बेहतर समझा।

बाद में उन्होने यह महसूस किया कि अगर भारत के मुसलमानों को इस कोठरी से नहीं निकाला गया तो एक दिन हमारी क़ौम तबाह और बर्बाद हो जाएगी और वह कभी भी उठ न सकेगी। इसलिए उन्होंने मिस्र जाने का इरादा बदल दिया और कल्याण व अस्तित्व की मशाल लेकर अपनी क़ौम और मुल्क़ की तरफ़ बढ़ने लगे। यह सच है कि उन्होंने ग़ैर फ़ौजी अंग्रेज़ों को अपने घर में पनाह दी, लेकिन उनके समर्थक बिल्कुल न थे, बल्कि वह इस्लामी शिक्षा व संस्कृति के चाहने वाले थे। उनकी दूरदृष्टि अंग्रेज़ों के षड़यंत्र से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थी। उन्हें मालूम था कि अंग्रेज़ी हुकूमत भारत पर स्थापित हो चुकी है और उन्होने उन्हें हराने के लिए शैक्षिक मैदान को बेहतर समझा। इसलिए अपने बेहतरीन लेखों के माध्यम से क़ौम में शिक्षा व संस्कृति की भावना जगाने की कोशिश की ताकि शैक्षिक मैदान में कोई हमारी क़ौम पर हावी न हो सके। मुसलमान उन्हें कुफ्र का फ़तवा देते रहे बावज़ूद इसके क़ौम के दुश्मन बनकर या बिगड़कर न मिले बल्कि नरमी से उन्हें समझाने की कोशिश करते रहे। वे अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उनकी बातों की परवाह किये बिना वे अपनी मन्ज़िल पर पहुँचने के लिए कोशिश करते रहे। आज मुस्लिम क़ौम ये बात स्वीकार करती है कि सर सैयद अहमद खाँ ने क़ौम के लिए क्या कुछ नहीं किया।

संस्थाओं की स्थापना[संपादित करें]

  • 1858 में मुरादाबाद में आधुनिक मदरसे की स्थापना की।
  • 1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल की स्थापना की।
  • उन्होने "साइंटिफ़िक सोसाइटी" की स्थापना की, जिसने कई शैक्षिक पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया उर्दू तथा अंग्रेज़ी में द्विभाषी पत्रिका निकाली।
  • 1860 के दशक के अंतिम वर्षों का घटनाक्रम उनकी गतिविधियों का रुख़ बदलने वाला सिद्ध हुआ। उन्हें 1867 में हिन्दुओं की धार्मिक आस्थाओं के केंद्र, गंगा तट पर स्थित बनारस (वर्तमान वाराणसी) में स्थानांतरिक कर दिया गया। लगभग इसी दौरान मुसलमानों द्वारा पोषित भाषा, उर्दू के स्थान पर हिन्दी को लाने का आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन तथा साइंटिफ़िक सोसाइटी के प्रकाशनों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी लाने के प्रयासों से सैयद को विश्वास हो गया कि हिन्दुओं और मुसलमानों के रास्तों को अलग होना ही है। इसलीए उन्होंने इंग्लैंड की अपनी यात्रा 1869-1870 के दौरान 'मुस्लिम केंब्रिज' जैसी महान शिक्षा संस्थाओं की योजना तैयार कीं। उन्होंने भारत लौटने पर इस उद्देश्य के लिए एक समिति बनाई और मुसलमानों के उत्थान और सुधार के लिए प्रभावशाली पत्रिका तहदीब-अल-अख़लाक (सामाजिक सुधार) का प्रकाशन प्रारंभ किया।
  • उन्होने 1886 में ऑल इंडिया मुहमडन ऐजुकेशनल कॉन्फ़्रेंस का गठन किया, जिसके वार्षिक सम्मेलन मुसलमानों में शिक्षा को बढ़ावा देने तथा उन्हें एक साझा मंच उपलब्ध कराने के लिए विभिन्न स्थानों पर आयोजित किया जाते थे।
  • मई 1875 में उन्होने अलीगढ़ में 'मदरसतुलउलूम' एक मुस्लिम स्कूल स्थापित किया और 1876 में सेवानिवृत्ति के बाद उन्होने इसे कॉलेज में बदलने की बुनियाद रखी। उनकी परियोजनाओं के प्रति रूढ़िवादी विरोध के बावज़ूद कॉलेज ने तेज़ी से प्रगति की और 1920 में यह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गया।

राजनीति[संपादित करें]

मुस्लिम राजनीति में सर सैयद की परंपरा मुस्लिम लीग (1906 में स्थापित) के रूप में उभरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (1885 में स्थापित) के विरूध्द उनका प्रोपेगंडा था कि कांग्रेस हिन्दू आधिपत्य पार्टी है और प्रोपेगंडा आज़ाद-पूर्व भारत के मुस्लिमों में जीवित रहा। कुछ अपवादों को छोड़कर वे कांग्रेस से दूर रहे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ब्रिटिश-भारत के -बंगाल, पंजाब में स्वतंत्रता सेनानी हिन्दू, मुस्लिम और सिख थे। सन् 1836 में जब अदालतों में देशी भाषा का प्रयोग प्रारंभ हुआ तब सांप्रदायिक दुराग्रहों के कारण 1837 में उर्दू पूरे प्रांत की भाषा बन गई। हिन्दी और उर्दू को लेकर दो दल बन गये सर सैयद अहमद खान ने इस हिन्दी उर्दू विवाद को सांप्रदायिक रंग दिया। इनका समर्थन गार्सा द तासी ने किया। इन्होंने खुलकर उर्दू का पक्ष लिया तथा हिन्दी का विरोध किया।[4]

मृत्यु[संपादित करें]

इनकी मृत्यु 27 मार्च 1898 को हृदय गति रुक जाने के कारण हुई।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "मजहबी व मुस्लिमों की आधुनिक शिक्षा के हिमायती थे सर सैयद अहमद". जागरण. अभिगमन तिथि 12 मार्च 12 मार्च 2014. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  2. "Science and Sir Syed". मूल से 23 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अक्तूबर 2017.
  3. Glasse, Cyril, The New Encyclopedia of Islam, Altamira Press, (2001)
  4. के. पुंज, बलबीर. "तुष्टिकरण और इसके नतीजे". प्रवक्ता. अभिगमन तिथि 17 अक्टूबर 2010.[मृत कड़ियाँ]