राजधर्म

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राजधर्म का अर्थ है - 'राजा का धर्म' या 'राजा का कर्तव्य'। राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही 'राजधर्म' है। राजधर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं।

महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्तिपर्व, चाणक्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रन्थ अर्थशास्त्र आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है, स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ प्रकाश में एक पूरा समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। महाभारत में इसी नाम का एक उपपर्व है जिसमें राजधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है।

महाभारत में राजधर्म[संपादित करें]

महाभारत युद्घ के समाप्त होने के बाद महाराज युधिष्ठिर को भीष्म ने राजधर्म का उपदेश दिया था।

युधिष्ठर को समझाते हुए भीष्म पितामह कहते हैं-

राजन जिन गुणों को आचरण में लाकर राजा उत्कर्ष लाभ करता है, वे गुण छत्तीस हैं। राजा को चाहिए कि वह इन गुणों से युक्त होने का प्रयास करें।

ये गुण निम्नवत हैं-

1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परन्तु जीवन में कटुता न आने दें।
2. आस्तिक रहते हुए दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़ें।
3. क्रूरता का व्यवहार न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।
4. मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।
5. दीनता न दिखाते हुए ही प्रिय भाषण करे।
6. शूरवीर बने परंतु बढ़ चढ़कर बातें न करे। इसका अर्थ है कि राजा को मितभाषी और शूरवीर होना चाहिए।
7. दानशील हो, परंतु यह ध्यान रखे कि दान अपात्रों को न मिले।
8. राजा साहसी हो, परंतु उसका साहस निष्ठुर न होने पाए।
9. दुष्ट लोगों के साथ कभी मेल-मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे।
10. बंधु बांधवों के साथ कभी लड़ाई झगड़ा न करे।
11. जो राजभक्त न हों ऐसे भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों से कभी भी गुप्तचरी का कार्य न कराये।
12. किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना ही अपना काम करता रहे।
13. दुष्टों को अपना अभीष्ट कार्य न कहें, अर्थात उन्हें अपनी गुप्त योजनाओं की जानकारी कभी न दें।
14. अपने गुणों का स्वयं ही बखान न करे।
15. श्रेष्ठ पुरूषों (किसानों) से उनका धन (भूमि) न छीने।
16. नीच पुरूषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न लें, अन्यथा देर सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है।
17. उचित जांच पड़ताल किये बिना (क्षणिक आवेश में आकर) किसी व्यक्ति को कभी भी दंडित न करे।
18. अपने लोगों से हुई अपनी गुप्त मंत्रणा को कभी भी प्रकट न करे।
19. लोभियों को धन न दे।
20. जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर कभी विश्वास न करें।
21. ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्री की सदा रक्षा करे।
22. राजा शुद्घ रहे, परन्तु किसी से घृणा न करे।
23. स्त्रियों का अधिक सेवन न करे। आत्मसंयमी रहे।
24. शुद्घ और स्वादिष्ट भोजन करे, परन्तु अहितकर भोजन कभी न करे।
25. उद्दण्डता छोड़कर विनीत भाव से मानवीय पुरूषों का सदा सम्मान करे।
26. निष्कपट भाव से गुरूजनों की सेवा करे।
27. दम्भहीन होकर विद्वानों का सत्कार करे, अर्थात विद्वानों को अपने राज्य का गौरव माने।
28. ईमानदारी से (उत्कोचादि भ्रष्ट साधनों से नही) धन पाने की इच्छा करे।
29. हठ छोड़कर सदा ही प्रीति का पालन करे।
30. कार्यकुशल हो परंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो।
31. केवल पिण्ड छुड़ाने के लिए किसी को सांत्वना या भरोसा न दे, अपितु दिये गये विश्वास पर खरा उतरने वाला हो।
32. किसी पर कृपा करते समय उस पर कोई आक्षेप न करे।
33. बिना जाने किसी पर कोई प्रहार न करे।
34. शत्रुओं को मारकर किसी प्रकार का शोक न करे।
35. बिना सोचे समझे अकस्मात किसी पर क्रोध न करे।
36. कोमल हो, परन्तु तुम अपकार करने वालों के लिए नहीं।

आगे २१वें अध्याय में भीष्म पितामह युधिष्ठर को यह भी बताते हैं कि तुम लोभी और मूर्ख मनुष्यों को काम और अर्थ के साधनों में मत लगाओ।

मनुस्मृति में राजधर्म[संपादित करें]

मनुस्मृति के ७वें अध्याय में राजधर्म की चर्चा की गयी है। मनु ने आदिकाल में मानव जीवन को उन्नत प्रगतिशील और राष्ट्ररक्षा, राजधर्म और मानव धर्म के मापदण्डों के द्वारा राष्ट्र को सुबल और सुव्यवस्थित बनाने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होने अपने ग्रन्थ में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जहाँ संस्कारों का वर्णन किया है वहीं मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए राजधर्म का भी वर्णन किया है। उन्होने इस महान् ग्रन्थ के द्वारा मानव समाज को संगठित वा उन्नत बनाने के लिये अनेक माध्यमों से राजधर्म की व्याख्या कर राजा, मंत्री, सभासद्, प्रजा तथा इन पर प्रयुक्त होने वाले दण्ड विधान, कर व्यवस्था, तथा न्याय व्यवस्था, का बहुत सुन्दर ही वर्णन किया है।

पुत्र इव पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तम ॥
यथा पुत्रः पितृगृहे विषये यस्य मानवाः ।
निर्भया विचारिष्यन्ति स राजा राजसत्तम् ॥

अर्थशास्त्र में राजधर्म[संपादित करें]

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजधर्म की चर्चा है।

प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ (अर्थशास्त्र 1/19)
(अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजाके हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय (स्वार्थ) कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।)
तस्मात् स्वधर्म भूतानां राजा न व्यभिचारयेत्।
स्वधर्म सन्दधानो हि, प्रेत्य चेह न नन्दति॥ (अर्थशास्त्र 1/3)
(अर्थात्- राजा प्रजा को अपने धर्म से च्युत न होने दे। राजा भी अपने धर्म का आचरण करे। जो राजा अपने धर्म का इस भांति आचरण करता है, वह इस लोक और परलोक में सुखी रहता है।) एक राजा का धर्म युध भूमि में अपने दुश्मनों को मारना ही नहीं होता अपितु अपने प्रजा को बचाना भी होता है

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]