नलकूप

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नलकूप (ट्यूबवेल्ल) शब्द स्वयं यह स्पष्ट करता है कि नल के द्वारा एक कूप का सृजन हुआ है। जब धातुके नल को जमीन में इतना धसा देते हैं कि वह जलस्तर तक पहुँच जाय तो इस प्रकार नलकूप का निर्माण होता है। नलकूपों पर मशीन-चालित पम्प लगाकर उनसे पानी निकाला जाता है और उसे पीने के काम में या सिचाई के काम में लिया जाता है।

पारम्परिक कुएँ[संपादित करें]

वैसे कूप अथवा कुएँ, पृथ्वी को खोदकर बनाए जाते रहे हैं और कहीं-कहीं उनमें सीढ़ियाँ लगाकर "बावली" का रूप भी दिया जाता रहा है। ऐसे कुँए विशेषकर उन्हीं स्थलों में बनाए जाते हैं जहाँ भूगर्भ में ऐसे रेतीले स्रोत हों जिनमें पानी मिल सके। ये स्रोत भी जलप्लावित हों और इतनी गहराई पर न हों कि सामान्य खुदाई द्वारा उन तक पहुँचना असंभव हो अथवा उन तक पहुँचने के लिए किसी चट्टान या कंकड़ों के स्तर को पार करना पड़े।

नलकूप निर्माण की विधि[संपादित करें]

इधर वर्तमान युग में जब नलों का, विशेषकर धातु के नलों का बनना संभव हो सका है तब फिर ऐसे जलस्रोतों तक पहुँचना भी संभव हुआ जिन तक साधारणतया खुदाई द्वारा पहुँच नहीं सकते। अब तो पृथ्वी की सतह से ही नलों को पृथ्वी में गलाने से जलस्तरों तक पहुँचना आसान हो गया है। इसी प्रकार नलकूपों का बनना प्रारंभ हुआ। एक त्रिपाद लगाकर पृथ्वी में ठोंक ठोंककर "वोकी" द्वारा नल गलाया जाता है। जब पानी तक नल पहुँच जाता है तब उसमें एक छोटे व्यास का नल बड़े व्यास के नल के अंदर उतारा जाता है। इस छोटे नल के निचले सिरे पर जाली लगा दी जाती है जिसमें होकर पानी नल में आ सके। इस नल के ऊपर हाथ से चलनेवाला पंप लगा दिया जाता है। इस प्रकार सामान्य घरेलू नलकूप बन जाता है। ये सर्वत्र ही प्रयोग में आते हैं।

जब अधिक मात्रा में जल निकालने की आवश्यकता हुई जैसे बड़ी जलप्रदाय योजनाओं के लिए अथवा भूसिंचन या अन्य उद्योगों के लिए, तब नलकूपों का विस्तार करने की योजना में अत्यधिक विकास हुआ। बड़े बड़े नलकूपों के निर्माण के लिए यह आवश्यक होता है कि पहले पृथ्वी में एक बड़े नल के द्वारा अथवा अन्य साधनों द्वारा गहरा गोल छिद्र किया जाए और उस छिद्र से इसका अनुमान किया जाए कि ऐसे कितने स्तर मिलते हैं जो जलप्लावित हैं और उनकी मोटाई कितनी है। उदाहरण के लिए, एक सामान्य सिंचाई के नलकूप के लिए उत्तर प्रदेश के गंगा-यमुना-दोआब में पहले दस या आठ इंच परिधि का 300, 350 या 400 फुट गहरा छिद्र किया जाता है। छिद्र करते समय यह अनुमान किया जाता है कि किस प्रकार के स्तरों को भेदकर छिद्र गया है और उनसे निकाले हुए नमूनों की परीक्षा पर यह निर्णय किया जाता है कि उनके कौन से स्तर जल से भरे हो सकते हैं। यदि लगभग 100 फुट का ऐसा स्तर मिल जाता है तो अच्छी मात्रा में उस छिद्र से जल प्राप्त होने की आशा की जाती है। वैसे पानी मिल सकने की मात्रा का अनुमान तो पानी निकालने पर ही किया जा सकता है किंतु बहुत सी बातें इस संबंध में अनुभव के ऊपर ही निर्भर करती हैं।

जलप्लावित बालू का जो स्तर मिलता है उसमें जाली डाली जा सकती है। यह जाली छिद्रदार नलों के ऊपर मढ़ी होती है और जिसमें होकर पानी नलकूप के अंदर प्रवेश करता है। इन जालियों की बनावट कई तरह की होती है। कुछ ताँबे के तारों की बनी होती है, कुछ पीतल की चद्दरों में खांचे बनाकर तैयार की जाती हैं। कहीं-कहीं छिद्रदार नल के ऊपर नारियल की रस्सी लपेटकर जाली की जगह प्रयोग किया जाता है। ये सब साधन इसलिए प्रयुक्त किए जाते हैं कि स्वच्छ पानी छनकर नलकूप के अंदर आ सके और वहाँ से पंपों द्वारा उसे ऊपर निकाला जा सके।

नलकूप में जल छानने की एक नई प्रणाली यह भी है कि छिद्रदार नल नलकूप में उतार दिए जाते हैं और उनके चारों ओर बजरी भर दी जाती है जो जाली का काम करती है और केवल स्वच्छ जल को नलकूप में आने देती है।

नलकूप के चारों ओर स्थित बालू के कणों का पानी के साथ बहकर आना या न आना नलकूप में पानी के आने की गति के ऊपर निर्भर करता है। वैसे तो नलकूप बनाने के समय ही इस मात्रा तक पानी निकाल दिया जाता है कि आस पास के निकलनेवाले बालू के कण बाहर निकल जाएँ और एक स्थायी स्थिति सी नलकूप के चारों ओर पैदा हो जाए जिससे पानी के निकास के साथ रेत न आ सके। इसे नलकूप का विकास कहते हैं।

नलकूप की निर्माणविधि में बहुत से सुधार होते जा रहे हैं। पृथ्वी के अंदर छिद्र करने के लिए तरह-तरह की मशीनें प्रयोग में लाई जाती हैं। इन मशीनों के द्वारा नलकूपों के निर्माण में सहायता ही नहीं मिलती, वरन् काम भी जल्दी हो जाता है। कहीं कहीं नल के बिना भी पृथ्वी में छिद्र किए जाते हैं और साथ ही साथ उनको चिकनी मिट्टी के विलयन से पक्का सा कर दिया जाता है। फिर उसमें नलकूप के नल उतार दिए जाते हैं।

यदि कहीं चिकनी मिट्टी का अच्छा मोटा स्तर मिल जाता है और फिर उसके नीचे अच्छा जलप्लावित रेत का स्तर हो तो "गर्त" (Cavity) नलकूप भी बनाए जा सकते हैं। इसमें ऐसा होता है कि रेत बाहर निकल जाने पर चिकनी मिट्टी के स्तर के नीचे एक गर्त बन जाता है, जिसमें पानी आता रहता है और इसे नलकूप के पंप द्वारा बाहर निकाला जाता है।

नलकूपों पर लगने वाले पम्प[संपादित करें]

नलकूपों से पानी निकालने के लिए कई प्रकार के पंप प्रयोग में लाए जाते हैं। पहले पहल अपकेंद्री पंप (centrifugal pump) लगाए गए थे, जिनके द्वारा पानी सीमित ऊँचाई तक ही उठाया जा सकता था। अब टरबाइन टाइप बोर होल (turbine type-bore hole) पंप का प्रचार बढ़ गया है। इन पंपों द्वारा पानी बहुत उँचाई तक उठाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त निमज्जनीय पंप (submersible pump) भी इस्तेमाल किए जाते हैं। ये पंप और मोटर दोनों पानी के अंदर डूबे रहते हैं। इनके निकालने और लगाने में बड़ी सुविधा रहती है।

दुष्परिणाम[संपादित करें]

नलकूपों के संबंध में विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि नलकूपों द्वारा भूगर्भ से पानी कभी-कभी बड़ी मात्रा में निकाल लिया जाता है। भूगर्भ में पानी की मात्रा सीमित ही होती है और उसका वार्षिक निर्गम भी सीमित रहता है। जितना पानी प्रति वर्ष भूगर्भ में प्रवेश करता है यदि उससे अधिक पानी नलकूपों द्वारा भूगर्भ से निकाला जाता है तो उससे भूगर्भ का जलतल नीचा हो जाता है और कभी-कभी उसका बड़ा दुष्परिणाम होता है।

उत्तरी अमरीका के पश्चिमी तट पर कैलिफॉर्निया प्रदेश में उद्योग तथा कृषि के लिए इतने अधिक नलकूप बना दिए कि भूगर्भ का जलतल इतना नीचा हो गया कि समुद्र का खरा जल भूगर्भ के जलतल में आ मिला और सारा जलस्रोत खराब हो गया। अत: नलकूप से पानी निकालने के पूर्व इस बात की परीक्षा की आवश्यकता होती है कि किसी क्षेत्र में इतने नलकूप न लग जाएँ कि भूगर्भं में स्थित जलतल पर उसका दुष्परिणाम पहुँचे। वैसे, ऐसे स्थलों पर ऐसी व्यवस्था की जाती है कि भूगर्भ में जल का प्रवेश अधिकाधिक हो सके।

भूगर्भ के अंदर स्थित जलस्रोतो का अनुमान कर सकना कठिन कार्य हो जाता है, अत: नलकूपों के विस्तार की सीमा निर्धारित करना भी कठिन हो जाता। कहीं कहीं युगों के संचित जल को हम नलकूपों द्वारा बाहर निकालकर उपयोग में ले जाते हैं और फिर भूगर्भ में जल कम हो जाने पर कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अत: नलकूपों के विस्तार में सतर्कता की अवश्यकता होती है।

जितने समय नलकूपों द्वारा जल निकाला जाता है, उतने समय आस-पास के साधारण कुओं में जलतल नीचा हो जाता है और कहीं-कहीं कुएँ बिलकुल सूख जाते हैं। इस संबंध में अन्वेषण करने से ज्ञात हुआ है कि नलकूप के चारों ओर जलतल गिराव की कीप (Cone of depression) के रूप में पानी का स्तर हो जाता है अत: जो साधारण कुएँ इस कीप के अंदर आ जाते हैं उनमें जलतल गिर जाता है।

इस अन्वेषण से इस बात का पता भी लग जाता है कि कितनी दूरी पर कितने बड़े नलकूप बनाए जा सकते हैं अथवा उनके संचालन की क्या प्रणाली रखी जाए जिससे आपस में पानी की छीना झपटी न हो। यदि यह सतर्कता न बरती जाए तो जलस्तर पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है तथा नलकूपों को भी क्षति पहुँच सकती है।

वैसे, जहाँ भी भूगर्भ में जल मिल सकने की संभावना है, नलकूप बड़ी संख्या में सब जगह बनते जा रहे हैं। नलकूपों द्वारा बहुत से क्षेत्रों में कृषि और उद्योग में बड़ी प्रगति हुई है। पहले नलकूप भाप इंजन या तैल इंजन द्वारा चलाए जाते थे किंतु अब बिजली के द्वारा चलाने का प्रचार बढ़ रहा है, क्योंकि नलकूपों द्वारा अच्दे परिमाण में स्वच्छ जल आवश्यकता के अनुकूल हर समय मिल सकता है।