भरणपोषण

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विधि द्वारा कतिपय व्यक्ति बाध्य हैं कि वे कुछ व्यक्तियों का, जो उनसे विशेष संबंध रखते हैं, भरणपोषण करें। यही भरणपोषण (Maintenance, मेंटनेंस) या गुजारा पाने का अधिकार है। भरणपोषण में अन्न, वस्त्र एवं निवास ही नहीं वरन्‌ आधारित व्यक्ति के स्तर की सुख और सुविधा की वस्तुएँ भी सम्मिलित हैं।

भरणपोषण पाने का अधिकार व्यक्तिगत विधि में भी प्रदत्त है और आपराधिक व्यवहारसंहिता धारा 488 में भी। हिंदू दत्तक एवं पोषण विधि, 1956, में इस अधिकार को विस्तृत कर दिया गया है।

दो प्रकार के व्यक्ति भरणपोषण के अधिकारी हैं :

1. वे जिनका अधिकार संबंध पर आधारित है;

2. वे जिनका आधार देनदार के कब्जे में संपत्ति होने पर निर्भर है।

प्रत्येक हिंदू अपने वृद्ध माता, पिता, पत्नी, अवयस्क पुत्र, एवं अविवाहित पुत्रियों का (चाहे वे वैध हों या अवैध) भरणपोषण करने के लिए बाध्य है। उपपत्नी, पितामह तथा पितामही और पौत्रादि के पोषण का भार वहन करना, उसके लिए आवश्यक नहीं है। इस व्यक्तिगत दायित्व के अतिरिक्त यदि किसी हिंदू को संपत्ति दाय के रूप में प्राप्त होती है तो उसका दायित्व हो जाता है कि वह उन सब व्यक्तियों का पोषण करे जिनका पोषण मृतक का वैधानिक या नैतिक कर्तव्य था। उदाहरणार्थ श्वसुर का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह अपनी निर्धन और विधवा पुत्रवधू का भरणपोषण करे, किंतु यदि उसकी मृत्यु के पश्चात्‌ पुत्र उसकी संपत्ति पाते हैं तब उनका विधि के अंतर्गत दायित्व है कि वे उस संपत्ति द्वारा उसका पोषण करें। संयुक्त परिवार के कर्ता का दायित्व है कि वह सभी सदस्यों का उनकी विधवा पत्नियों तथा संतानों का पोषण करे। यदि किसी सदस्य को किसी निर्योग्यता के कारण दाय से वंचित होना पड़ता है तो उसकी संपत्ति (अर्थात्‌ जो भाग उसे मिलता वह) पोषणार्थ उत्तरदायी है।

पत्नी का भरणपोषण[संपादित करें]

पत्नी को भरणपोषण पाने का अधिकार है, चाहे पति के पास संपत्ति हो अथवा न हो। यदि पत्नी उचित कारणवश, जैसे पति के दुष्टतापूर्ण व्यवहार के कारण या उसके संक्रामक रोगों से आक्रांत होने के कारण, पति से विलग रहती है तब भी वह पोषण की अधिकारिणी है। पति के उत्तराधिकारी से भी वह अधिकार की माँग कर सकती है किंतु यह आवयक है कि वह अविवाहित ओर सुचरित्र रहे। हिंदू उत्तराधिकार विधि, 1956, के अंतर्गत पत्नी को पति की मृत्यु के बाद संपत्ति का भागी होने का अधिकार है। यदि संयुक्त परिवार के अन्य सदस्य उसे उसका अंश देकर विलग कर दें तो पोषण की माँग पत्नी कर सकेगी।

उपपत्नी का पोषण[संपादित करें]

उपपत्नी का संबंध चाहे जितने दीर्घकाल तक क्यों न रहा हो उसे अपने उपपति से पोषण पाने का कोई अधिकार नहीं है किंतु यदि वह मृत्यु पर्यंत उपपति के साथ धर्मपूर्वक रही हो तो उसे अपने उपपति की संपत्ति द्वारा पोषण पाने का अधिकार है।

भरणपोषण का धन[संपादित करें]

धन का परिमाण, चाहे वह अनुबंध द्वारा निश्चित हो चाहे न्यायालय द्वारा, यदि आवश्यकता हो तो परिवार की आय में कमी या वृद्धि होने पर तदनुसार घटाया या बढ़ाया जा सकता है। किंतु यदि पत्नी को एक बार ही पर्याप्त धन दे दिया गया है ओर उस धन को वह व्यय कर चुकी है तब उसे पुन: धन पाने का अधिकार नहीं है।

निवास एवं पोषण[संपादित करें]

विधवा पत्नी तथा अविवाहिता पुत्रियों को यह अधिकार है कि वे परिवार के निवासगृह में रहें। यदि संयुक्त परिवार के अन्य सदस्य वह मकान विक्रय कर देते हैं और क्रेता को इस अधिकार का ज्ञान है तब इस स्थिति में निवास का अधिकार नष्ट नहीं होता। किंतु यदि हस्तांतरी को इस अधिकार का ज्ञान है तब भी वह उन्हें तब तक स्थानच्युत नहीं कर सकता जब तक वह उन्हें कोई अन्य उपयुक्त वासस्थान न दे। किंतु पत्नी या अविवाहिता पुत्रियों के इस अधिकार की माँग उस क्रेता के विरुद्ध नहीं की जा सकती जिसने मकान पति या पिता से क्रय किया हो या जिसने पति या पिता के विरुद्ध डिक्री निष्पासन में लिया हो, या उसकी संपत्ति के विरुद्ध डिक्री निष्पासन में लिया हो, यदि पिता या परिवार का कर्ता किसी ऐसे उद्देश्य के लिए विक्रय करे जो कुटुंब के लाभ का हो तो, या अन्यथा वैध हो तब भी यह अधिकार विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार यदि ऋण चुकाने के लिए संपत्ति का हस्तांरण पिता या कर्ता द्वारा किया गया हो और ऋण मान्य हो तो क्रेता का अधिकार पुत्री के अधिकार पर अधिमान पा जाता है। यदि उसकी माँग संपत्ति पर आरोपित पर अधिमान पा जाता है। यदि उसकी माँग संपत्ति पर आरोपित हो तो निवास का अधिकार स्थित रहेगा। इसी प्रकार दान या वसीयत द्वारा समस्त संपत्ति हस्तांतरित हो जाने पर भी पोषण का अधिकार बना ही रहेगा।

मुस्लिम विधि में पोषण को नकफ कहते हैं। अधिकार तीन कारणों से उत्पन्न होता है : विवाह, संबंध और संपत्ति। विवाह से सर्वाधिक महत्वपूर्ण दायित्व उत्पन्न होता है। पत्नी और संतति का भरणपोषण प्राथमिक कर्तव्य है।

पत्नी को चाहे स्वयं साधनसंपन्न हो और पति के पास आय के साधन न हों तब भी पोषण माँगने का अधिकार है। संतति की अपेक्षा पत्नी को अधिमान देना आवश्यक है। पति का वैधिक दायित्व तभी प्रारंभ होता है जब पत्नी मुस्लिम विधि के अनुसार व्यस्क हो जाए, आज्ञाकारी हो एवं पति से मिलना अस्वीकार न करे।

यदि विवाह के समय अनुबंध द्वारा पति ने पत्नी को गुजारा, खर्च-ए-पानदान आदि देने का वचन दिया है तो यह अनुबंध वैध रहेगा।

पत्नी का अधिकार पति की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है अतएव मृत्यु के पश्चात्‌ इद्दत की अवधि में पोषण पाने का अधिकार नहीं है। मुस्लिम विवाहभंग विधि, 1939, के अंतर्गत पोषण के देने पर विवाह भंग हो सकता है। पुत्र के व्यस्क होने तक और पुत्रियों का विवाह होने तक पोषण का अधिकार है। विधवा एवं विवाहविच्छिन्न पुत्रियाँ भी अधिकारी हैं। किंतु पुत्रवधू के अवैध पुत्र को अधिकार नहीं है। अवैध पुत्र अपनी माता से अधिकार माँग सकता है, पिता से नहीं।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]