राष्ट्रवाद

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सन् १८६० में जुज़ॅप्पे गारिबाल्दि के नापोलि में प्रवेश करते समय उल्लसित भीड़

राष्ट्रवाद (nationalism) यह विश्वास है कि लोगों का एक समूह इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर स्वयं को एकीकृत करता है। इन सीमाओं के कारण, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें अपने स्वयं के निर्णयों के आधार पर अपना स्वयं का संप्रभु राजनीतिक समुदाय, 'राष्ट्र' स्थापित करने का अधिकार है। हालाँकि दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो इस कसौटी पर खरा उतरता हो, अगर दुनिया का नक्शा लिया जाए, तो पृथ्वी का हर इंच राष्ट्र की सीमाओं के भीतर विभाजित हो जाएगा। राष्ट्रवाद के आधार पर बना राष्ट्र कल्पना में तब तक बना रहता है जब तक कि वह राष्ट्र-राज्य में तब्दील नहीं हो जाता।

राष्ट्रवाद की परिभाषा और किस अर्थ के बारे में व्यापक बातचीत हुई है। राष्ट्रवाद का अचूक और सामान्य अर्थ देना मुश्किल नहीं है। तारा। स्नाइडर स्वीकार करते हैं कि राष्ट्रवाद को चित्रित करना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। फिर भी इस विषय में उनके द्वारा दी गई परिभाषा राष्ट्रवाद को प्राप्त करने में सहायक है। जैसा कि उनके द्वारा इंगित किया गया है, 'इतिहास के एक विशिष्ट चरण में राजनीतिक, वित्तीय, सामाजिक और विद्वतापूर्ण कारणों का परिणाम - राष्ट्रवाद एक स्पष्ट कट स्थलाकृतिक क्षेत्र में रहने वाले लोगों के एक समूह का एक परिप्रेक्ष्य, अनुभव या अनुभूति है जो एक समान भाषा में संवाद करते हैं। , जिनके पास एक लेखन है जिसमें देश की इच्छाओं का संचार किया गया है, जो सामान्य प्रथाओं और तुलनीय परंपराओं को साझा करते हैं, जो अपने निडर पुरुषों से प्यार करते हैं और कभी-कभी एक समान धर्म के होते हैं।

यह एक आधुनिक संकल्पना है जिसका विकास पुनर्जागरण के बाद यूरोप में राष्ट्र राज्यों के रूप में हुआ। राष्ट्रवाद का उदय अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के युरोप में हुआ था, लेकिन अपने केवल दो-ढाई सौ साल पुराने ज्ञात इतिहास के बाद भी यह विचार बेहद शक्तिशाली और टिकाऊ साबित हुआ है। राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर थे, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। उस समय यह सिद्धान्त दिया गया कि राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। किन्तु, जब भी इस आधार पर समरूपता स्थापित करने की कोशिश की गई तो तनाव एवं उग्रता को बल मिला। जब राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा को ज़ोर-ज़बरदस्ती से लागू करवाया जाता है तो यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अन्धराष्ट्रवाद’ कहलाता है। इसका अर्थ हुआ कि राष्ट्रवाद जब चरम मूल्य बन जाता है तो सांस्कृतिक विविधता के नष्ट होने का संकट उठ खड़ा होता है।

राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर रहने वाले लोगों को अपने-अपने राष्ट्र का अस्तित्व स्वाभाविक, प्राचीन, चिरन्तन और स्थिर लगता है। इस विचार की ताकत का अंदाज़ा इस हकीकत से भी लगाया जा सकता है कि इसके आधार पर बने राष्ट्रीय समुदाय वर्गीय, जातिगत और धार्मिक विभाजनों को भी लाँघ जाते हैं। राष्ट्रवाद के आधार पर बने कार्यक्रम और राजनीतिक परियोजना के हिसाब से जब किसी राष्ट्र-राज्य की स्थापना हो जाती है तो उसकी सीमाओं में रहने वालों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी विभिन्न अस्मिताओं के ऊपर राष्ट्र के प्रति निष्ठा को ही अहमियत देंगे। वे राष्ट्र के कानून का पालन करेंगे और उसकी आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी दे देंगे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि आपस में कई समानताएँ होने के बावजूद राष्ट्रवाद और देशभक्ति में अnतर है। राष्ट्रवाद अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कार्यक्रम और परियोजना का वाहक होता है, जबकि देशभक्ति की भावना ऐसी किसी शर्त की मोहताज नहीं है।

राष्ट्रवाद के आलोचकों की कमी नहीं है और न ही उसे ख़ारिज करने वालों के तर्क कम प्रभावशाली हैं। एक महाख्यान के तौर पर राष्ट्रवाद छोटी पहचानों को दबा कर पृष्ठभूमि में धकेल देता है।

राष्ट्रवाद के प्रश्न के साथ कई सैद्धांतिक उलझनें जुड़ी हुई हैं।  मसलन, राष्ट्रवाद और आधुनिक संस्कृति व पूँजीवाद का आपसी संबंध क्या है? पश्चिमी और पूर्वी राष्ट्रवाद के बीच क्या फ़र्क है? एक राजनीतिक परिघटना के तौर पर राष्ट्रवाद प्रगतिशील है या प्रतिगामी? हालाँकि धर्म को राष्ट्र के बुनियादी आधार के तौर पर मान्यता प्राप्त नहीं है, फिर भी भाषा के साथ-साथ धर्म के आधार पर भी राष्ट्रों की रचना होती है। सवाल यह है कि ये कारक राष्ट्रों को एकजुट रखने में नाकाम क्यों हो जाते हैं? सांस्कृतिक और राजनीतिक राष्ट्रवाद को अलग-अलग कैसे समझा जा सकता है? इन सवालों का जवाब देना आसान नहीं है, क्योंकि राजनीति विज्ञान में एक सिद्धांत के तौर पर राष्ट्रवाद का सुव्यवस्थित और गहन अध्ययन मौजूद नहीं है। विभिन्न राष्ट्रवादों का परिस्थितिजन्य चरित्र भी इन जटिलताओं को बढ़ाता है। यह कहा जा सकता है कि ऊपर वर्णित समझ के अलावा राष्ट्रवाद की कोई एक ऐसी सार्वभौम थियरी उपलब्ध नहीं है जिसे सभी पक्षों द्वारा मान्यता दी जाती हो।

राष्ट्रवाद का अध्ययन करना इसलिए जरूरी है कि वैश्विक मामलों में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धान्त वेफ रूप में उभरा है जिसने इतिहास रचने में योगदान किया है। इसने उत्कट निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है। इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है। साम्राज्यों और राष्ट्रों के ध्वस्त होने का यह भी एक कारण रहा है। राष्ट्रवादी संघर्षों ने राष्ट्रों और साम्राज्यों की सीमाओं के निर्धारण-पुनर्निर्धारण में योगदान किया है। आज भी दुनिया का एक बड़ा भाग विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में बंटा हुआ है। हालाँकि राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्संयोजन की प्रक्रिया अभी खत्म नहीं हुई है और मौजूदा राष्टोंं के अन्दर भी अलगाववादी संघर्ष आम बात है।

राष्ट्रवाद कई चरणों से गुजर चुका है। उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में इसने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। आज के जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के जरिए हुआ था। लातिन अमेरिका में बड़ी संख्या में नए राज्य भी स्थापित किए गए थे। राज्य की सीमाओं के सुदृढ़ीकरण के साथ स्थानीय निष्ठाएँ और बोलियाँ भी उत्तरोत्तर राष्ट्रीय निष्ठाओं एवं सर्वमान्य जनभाषाओं के रूप में विकसित हुईं। नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र-राज्य की सदस्यता पर आधारित थी।

लेकिन राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में भी सहभागी रहा है। यूरोप में बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा इनके साथ एशिया और अप्रफीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्यों के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था। भारत तथा अन्य भूतपूर्व उपनिवेशों के औपनिवेशिक शासन से स्वतन्त्र होने के संघर्ष भी राष्ट्रवादी संघर्ष थे। ये संघर्ष विदेशी नियंत्रण से स्वतन्त्र राष्ट्र-राज्य स्थापित करने की आकांक्षा से प्रेरित थे।

आमतौर से यह माना जाता है कि राष्ट्रों का निर्माण ऐसे समूह द्वारा किया जाता है जो कुल या भाषा अथवा धर्म या फिर जातीयता जैसी कुछेक निश्चित पहचानों में समानता हो। लेकिन ऐसे निश्चित विशिष्ट गुण वास्तव में हैं ही नहीं जो सभी राष्ट्रों में समान रूप से मौजूद हों। कई राष्ट्रों की अपनी कोई एकमात्र भाषा नहीं है। कनाडा का उदाहरण सामने है। कनाडा में अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाभाषी लोग साथ रहते हैं। बहुत से राष्टोंं में उनको जोड़ने वाला कोई एकमात्र धर्म भी नहीं है। नस्ल या कुल जैसी अन्य विशिष्टताओं के लिए भी यही कहा जा सकता है। तब वह क्या है, जो राष्ट्र का निर्माण करता है? राष्ट्र बहुत हद तक एक ‘काल्पनिक’ समुदाय होता है, जो अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के सहारे एक सूत्र में बंधा होता है। यह कुछ खास मान्यताओं पर आधारित होता है जिन्हें लोग उस समग्र समुदाय के लिए गढ़ते हैं, जिससे वे अपनी पहचान कायम करते हैं।

मार्क्सवाद भी राष्ट्रवाद से संबंधित सिद्धान्त मुहैया कराने में नाकाम रहा है। दुनिया भर के मज़दूरों को एक होने का नारा देने वाले मार्क्स और एंगेल्स मानते थे कि मज़दूरों का कोई देश नहीं होता। अपने लेखन में उन्होंने वर्ग-विभाजन के परे जा कर राजनीतिक-सामाजिक और सांस्कृतिक एकता करने वाली किसी परिघटना को तरजीह नहीं दी। अपने युग के कुछ राष्ट्रीय संघर्षों के बारे में तो उनकी तिरस्कारपूर्ण धारणा यह थी कि वे नष्ट हो जाने के लिए अभिशप्त हैं। राष्ट्रवाद का कोई मुकम्मल सिद्धांत देने के बजाय उनकी रचनाएँ अपने युग की व्यावहारिक राजनीति के तहत राष्ट्रीय प्रश्न पर विचार करती हैं। दूसरे और तीसरे इंटरनैशनल में राष्ट्रवाद पर काफ़ी बहस हुई। लेनिन ने एक विशाल बहुजातीय साम्राज्य में क्रांति करने की समस्याओं से जूझते हुए राजनीतिक लोकतंत्र की आवश्यकता को अपने राष्ट्रवाद संबंधी विश्लेषण के केंद्र में रखा। उनका निष्कर्ष था कि राष्ट्रों को आत्म-निर्णय  का अधिकार मिलना चाहिए। इसके बाद स्तालिन की विख्यात रचना मार्क्सिज़म ऐंड नैशनल क्वेश्चन सामने आयी जिसमें उन्होंने राष्ट्रवाद की थियरी देने की कोशिश की। स्तालिन ने राष्ट्र के पाँच मुख्य तत्त्व बताये : एक स्थिर और नैरंतर्य से युक्त समुदाय, एक अलग भू-क्षेत्र, समान भाषा, आर्थिक सुसंगति और सामूहिक चरित्र। चूँकि स्तालिन राष्ट्रों के उभार को उद्योगीकरण की ज़रूरतों से जोड़ कर देख रहे थे इसलिए उनका सिद्धांत राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और उससे उभरने वाले बहुत से प्रश्नों की उपेक्षा कर देता था। कुल मिला कर मार्क्सवादी मानते रहे कि राष्ट्रवाद पूँजीवाद के विकास में उसका सहयोगी बन कर उभरा है। इस लिहाज़ से उसे एक बूर्ज़्वा विचारधारा की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। राष्ट्रवाद प्रभुत्वशाली वर्गों को एकजुट करके राजनीतिक समुदाय की एक भ्रांत अनुभूति पैदा करता है ताकि पूँजीपतियों द्वारा किये जाने वाले अहर्निश शोषण और दरिद्रीकरण के बावजूद आम लोग धनी वर्ग के साथ एकता का एहसास करते रहें। मार्क्सवादी विमर्श का एक विरोधाभास यह है कि राष्ट्रवाद को पूँजीवादी वर्ग की विचारधारा मानने के बाद भी क्रांतिकारी राजनीति के धरातल पर कई कम्युनिस्ट पार्टियों ने राष्ट्रवाद को अपनी गोलबंदी का आधार बनाया है। क्रांति के पश्चात् समाजवादी समाज की रचना के लिए भी राष्ट्रवादी भावनाओं का इस्तेमाल किया गया है।

सत्तर के दशक में होरेस बी. डेविस ने मार्क्सवादी तर्कों का सार-संकलन करते हुए राष्ट्रवाद के एक रूप को ज्ञानोदय से जोड़ कर बुद्धिसंगत करार दिया और दूसरे रूप को संस्कृति और परम्परा से जोड़ कर भावनात्मक बताया। लेकिन, डेविस ने भी राष्ट्रवाद को एक औज़ार से ज़्यादा अहमियत नहीं दी और कहा कि हथौड़े से हत्या भी की जा सकती है और निर्माण भी। राष्ट्रवाद के ज़रिये जब उत्पीड़ित समुदाय अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष करते हैं तो वह एक सकारात्मक नैतिक शक्ति बन जाता है और जब राष्ट्र के नाम पर आक्रमण की कार्रवाई की जाती है तो उसका नैतिक बचाव नहीं किया जा सकता।  राष्ट्रवाद की सभी मार्क्सवादी व्याख्याओं में सर्वाधिक चमकदार थियरी बेनेडिक्ट ऐंडरसन द्वारा प्रतिपादित ‘कल्पित समुदाय’ (इमैजिन्ड कम्युनिटीज़) की मानी जाती है। ऐंडरसन का मुख्य सरोकार यह है कि एक-दूसरे से कभी न मिलने वाले और एक-दूसरे से पूरी तरह अपरिचित लोग राष्ट्रीय एकता में किस तरह बँधे रहते हैं।

दरअसल, राष्ट्रवाद से संबंधित सभी व्याख्याएँ थोड़ी दूर चलने के बाद पेचीदा हो जाती हैं। इनमें एक प्रमुख व्याख्या यह है कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया राष्ट्रवाद के ज़रिये ख़ुद को ज़मीन पर उतारती है। इस तरह राष्ट्रवाद ‘आधुनिकीकरण के धर्म’ के तौर पर उभरता है। आधुनिकता के कारण सामाजिक जीवन में आयी ज़बरदस्त आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल के बीच राष्ट्रवाद के ज़रिये ही व्यक्ति एक अस्मिता और संसक्ति के सूत्र हासिल कर पाया। दूसरी तरफ़ यह भी एक हकीकत है कि राष्ट्रवाद कई बार आधुनिकीकरण को रोकने या सीमित करने वाली ताकत भी साबित हुआ है। राष्ट्रवादी दलीलों के आधार पर ही ऐसे कई व्यापार समझौतों का विरोध किया जाता है जिनसे राष्ट्रीय उद्योगीकरण और आर्थिक समृद्धि की प्रक्रिया को गति मिल सकती है। राष्ट्रवाद के धार्मिक संस्करण (जैसे, ईरान का इस्लामिक राष्ट्रवाद या भारतीय राजनीति के धार्मिक पहलू) सेकुलरीकरण की प्रक्रिया को अगर पूरी तरह ठप नहीं कर पाते तो धीमा अवश्य कर देते हैं। दूसरे, तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों में राष्ट्रवाद करीब आधी सदी बीत जाने के बाद भी उद्योगीकरण और खेतिहर अर्थव्यवस्था की जद्दोजहद में फँसा हुआ है।

पश्चिमी और पूर्वी राष्ट्रवादों की तुलना करने के दौरान कुछ विद्वानों ने पूर्वी राष्ट्रवाद को पश्चिमी राष्ट्रवाद के स्वस्थ मूल्यों की कमी का शिकार बताया है। कुछ विद्वान पश्चिमी राष्ट्रवाद को राजनीतिक और पूर्वी राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक की श्रेणी में रखते हैं। इन धारणाओं के विपरीत कुछ अन्य विद्वान उल्टी मान्यता पेश करते करते हैं : युरोपियन राष्ट्रवाद एक देशज ऐतिहासिक प्रक्रिया से निकलने के कारण कहीं अधिक सांस्कृतिक है, जबकि पूर्वी राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक आंदोलनों के हाथों गढ़े जाने के कारण मूलतः राजनीतिक है।  दूसरे, अगर तीसरी दुनिया के देशों के राष्ट्रवाद पर प्रजातीय, जातीय और सांस्कृतिक पहलू हावी हैं तो उनके पीछे उपनिवेशवाद की भूमिका है जिसकी ज़िम्मेदारी पश्चिम पर ही डाली जानी चाहिए। उपनिवेशवादियों ने मनमाने ढंग से स्थानीय जातीयताओं की उपेक्षा की जिसके कारण अफ़्रीका में कई कबीलाई और जातायी समुदाय दो परस्पर संघर्षरत राष्ट्रों में विभाजित हो गये हैं। तीसरे, भारत समेत ऐसे कई समाज हैं जो पारम्परिक रूप से सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई विविधता से सम्पन्न हैं। ऐसे समाजों में राष्ट्रवाद का अनुभव पश्चिमी अनुभव से भिन्न होना लाज़मी है। ऐसी परिस्थितियों में कभी तो राष्ट्रवाद बहुलताओं के बीच परस्पर संसक्ति के सूत्र का काम करता है और कभी उपराष्ट्रीयताओं के बीच हिंसक संघर्ष और प्रतियोगिता में फँस जाता है।

पश्चिमी राष्ट्रवाद के प्रशंसक पूर्वी राष्ट्रवाद के कई कुछ पहलुओं को तर्कबुद्धि से परे बता कर उसके महत्त्व को ख़ारिज करते हैं। लेकिन कुछ विद्वानों ने ध्यान दिलाया है कि इस तरह के तत्त्व पश्चिमी राष्ट्रवाद में भी निर्णायक रूप से मौजूद हैं। उदाहरनतः, अगर भारतीय राष्ट्रवादी किसी ज़माने में काली देवी की आराधना करके प्रेरणा प्राप्त करते थे, तो युरोप के रोमानी राष्ट्रवादी भी इसी प्रकार के सामूहिकतावादी, हिंसक और आध्यात्मिक आयामों से प्रेरित होते रहे हैं। पश्चिम के राष्ट्रवाद को उदार, समझदार और सार्वदेशिक साबित करना एक व्याख्यात्मक आदर्श की उपलब्धि तो करा सकता है, पर व्यावहारिक रूप से ऐसा नहीं है।  पश्चिमी राष्ट्रवाद हो या पूर्वी राष्ट्रवाद, दोनों ही परिस्थितियों में सांस्कृतिक और राजनीतिक राष्ट्रवाद एक-दूसरे से प्रतियोगिता करते हुए एक-दूसरे को पुष्ट करते चलते हैं।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने राष्ट्रवाद को ज़बरदस्त चुनौती दी है। बीसवीं सदी के आख़िरी दो दशकों और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के बाद कहा जा सकता है कि कम से कम दुनिया का प्रभु वर्ग एक सी भाषा बोलता है, एक सी यात्राएँ करता है, एक सा ख़ाना खाता है। उसके लिए राष्ट्रीय सीमाओं के कोई ख़ास मायने नहीं रह गये हैं। इसके अलावा आर्थिक वैश्वीकरण, बड़े पैमाने पर होने वाली लोगों की आवाजाही, इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन जैसी प्रौद्योगिकीय प्रगति ने दुनिया में फ़ासलों को बहुत कम कर दिया है। ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो अपने देश और सांस्कृतिक माहौल से दूर काम और जीवन की सार्थकता की तलाश में जाना चाहते हैं। युरोप की धरती ने राष्ट्रवाद को जन्म दिया था और वहीं अब युरोपीय संघ का उदय राष्ट्रवाद का महत्त्व कम कर रहा है। इस नयी परिस्थिति में कुछ विद्वान कहने लगे हैं कि जिन ताकतों ने कभी राष्ट्रवाद को मज़बूत किया था, वे ही उसके पतन का कारण बनने वाली हैं। राष्ट्रीय संरचनाओं के बजाय राष्ट्रों से परे जाने वाले आर्थिक और राजनीतिक गठजोड़ आने वाली सदियों पर हावी रहेंगे।

इन दावों में सच्चाई है, लेकिन केवल आंशिक रूप से। एक राजनीतिक शक्ति के रूप में राष्ट्रवाद आज भी निर्णायक बना हुआ है। पूर्व में सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन, दुनिया भर में नस्ल और आप्रवासन बहस, और पश्चिम में बीपीओ (बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग) विवाद इसके प्रमाण हैं। फिलिस्तीनियों द्वारा राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का आंदोलन आज भी जारी है। पूर्वी तैमूर हाल ही में इंडोनेशिया से स्वतंत्र हुआ है और एक अलग राष्ट्र बन गया है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने राष्ट्रवाद के बोलबाला को कुछ हद तक संदिग्ध बना दिया है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उदार और लोकतांत्रिक राज्य के साथ जुड़कर गरीबी और पिछड़ेपन से पीड़ित समाजों को आगे बढ़ाने में राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उत्तर-औपनिवेशिक समाजों ने अपने विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रवाद का सहारा लिया है। राष्ट्रवाद एक प्रमुख कारक रहा है, विशेष रूप से भारत जैसे बहुल समाजों को एक राजनीतिक समुदाय के रूप में विकसित करने में।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

1. ई.जे. हॉब्सबॉम (1089), नेशंस ऐंड नैशनलिज़म सिंस 1789, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज.

2. एस. सेठ (1995), मार्क्सिस्ट थियरी ऐंड नैशनलिस्ट पॉलिटिक्स, सेज, नयी दिल्ली.

3. ए. स्मिथ (1994), नैशनलिज़म : अ रीडर, खण्ड 1, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.

4. सुनलिनी कुमार (2008), ‘नैशनलिज़म’, राजीव भार्गव और अशोक आचार्य (सम्पा.), पॉलिटिकल थियरी : ऐन इंट्रोडक्शन, पियर्सन लोंगमेन, नयी दिल्ली.

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