अभंग

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अभंग विट्ठल या विठोबा की स्तुति में गाये गये छन्दों को कहते हैं।

महाराष्ट्र के वारकरी सम्प्रदाय के संतों ने 13वीं सदी के दौरान समाज में अलख जगाने के जो छंद क्षेत्रीय भाषा में गाये, उन्हें अभंग के नाम से जाना जाता है। यह एक प्रकार से हिंदी के छंद की तरह है। मोटे और पर छंद के उलट, अभंग में मात्राओं के स्थान पर अक्षरों की संख्या गिनी जाती है। अक्षरों की संख्या का पालन कठोरता से नहीं किया जाता बल्कि, यों कहना सही होगा कि उच्चारण की सुविधानुसार अक्षरों की संख्या कम-ज्यादा हो सकती है।

अभंग
अभंग

अभंग दो प्रकार के होते हैं - चार चरणों के और दो चरणों के.चार चरणों वाले अभंग की प्रथम तीन चरणों में 6-6 अक्षर होते हैं जबकि अंतिम चरण में चार अक्षर. इसके साथ ही दूसरे और तीसरे चरणों में यमक का पुट होता है। रही बात चौथा चरण की तो वह अभंग को पूर्णता प्रदान करता है-

काय करूँ आता, धरुनिया भीड़

नि:शंक हे तोंड, वाजविले।।

नव्हे जगी कोणी, मुक्तियांचा जाण

सार्थक लाजुण, नव्हे हित।।

दो चरणों वाले अभंग के प्रत्येक चरण में 8-8 अक्षर होते हैं और अंत में यमक होता है-

जे का रंजले गांजले। त्यासी म्हणे जो आपुले।।

पुढे गेले हरीचे दास ।[संपादित करें]

त्यांची आस आम्हांसी ॥१॥[संपादित करें]

त्याची मार्गीं आम्हीं जाऊं ।[संपादित करें]

वाचे गाऊं विठ्ठला ॥२॥[संपादित करें]

संसाराचा न करुं धंदा ।[संपादित करें]

हरुषें सदा नाम गाऊं ॥३॥[संपादित करें]

एका जनार्दनीं डोळे ।[संपादित करें]

पहाती पाउलें कोंवळें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]