उर्फ़ी शीराजी

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उर्फ़ी शीराजी मुगल बादशाह अकबर के दरबारी कवियों में से एक थे। ईरानी मूल के ये कवि 1585 में भारत आये और 1591 में अपनी मौत तक यहीं रहे।

जीवनी[संपादित करें]

शीराज़ निवासी उर्फ़ी का नाम मुहम्मद, उपाधि जमालुद्दीन तथा तख़ल्लुस 'उर्फ़ी' था। उसका जन्म 964 हि. (1557 ई.) अथवा 963 हि. (1556 ई.) में हुआ। उसका पिता ज़ैनुद्दीन बलवी शीराज़ में एक उच्च पद पर नियुक्त था। उसने तत्कालीन प्रचलित ज्ञानों के साथ-साथ चित्रकला की भी शिक्षा प्राप्त की और अपने पिता के उच्च पद के अनुरूप अपना तख़ल्लुस उर्फ़ी रखा।

20 वर्ष की अवस्था में ही चेचक के कारण कुरूप हो जाने पर भी उसके पिता के उच्च पद तथा उसकी प्रतिभा ने उसे स्वाभिमानी बना दिया था। परिणामस्वरूप युवावस्था में ही अपने समकालीन प्रसिद्ध ईरानी कवियों से टक्कर लेने के कारण उसे ईरान त्यागकर भारतवर्ष आना पड़ा। उस समय केवल अकबर का ही दरबार विदेशी कलाकारों को आकर्षित नहीं करता था अपितु अकबर के उच्च पदाधिकारी भी कलाकारों को आश्रय देने में ईरान के शाह तहमास्प सफ़वी (शासनकाल 1524 ई.1576 ई.) एवं शाह अब्बास सफ़वी (शासनकाल 1588-1629 ई.) से कम न थे। उन लोगों की सहृदयता ने उसे भारतगमन के लिए प्रेरित किया।

उर्फ़ी शीराजी समुद्र के मार्ग से 1585 ई. अहमदनगर और वहाँ से 10 मार्च 1585 ई. को फतहपुर सीकरी पहुँचा, जहाँ अकबर के दरबार के प्रसिद्ध कवि शेख अबुल फ़ैज़ 'फ़ैजी' के सेवकों में सम्मिलित हो गया और उन्हीं के साथ नवंबर, 1585 ई. में अकबर के शिविर में अटक पहुँचा। कुछ समय उपरांत वह अकबर के एक अन्य अमीर मसीहुद्दीन हकीम अबुल फ़तह का आश्रित हो गया। 1589 ई. में हकीम मृत्यु हो गई और वह अब्दुर्रहीम खानखाना के आश्रितों की शोभा थे, फलत: उर्फ़ी की कला को क्रमश: और अधिक परिमार्जित तथा उन्नत होने का अवसर मिलता रहा। खानखाना उसके प्रति विशेष उदारता प्रदर्शित करता था। बाद में वह अकबर के दरबारी कवियों में सम्मिलित हो गया। शाहजादा सलीम से, जो जहाँगीर के नाम से सिंहासनारूढ़ हुआ, उसे बड़ा प्रेम था। किंतु उर्फ़ी अधिक दिनों जीवित न रहा। शव्वाल, 999 हि. (1 अगस्त 1591) में 35 अथवा 36 वर्ष की अल्पावस्था में आमातिसार के कारण लाहौर में उसकी जीवनलीला का अंत हो गया।

भारतवर्ष में भी उसके स्वाभिमान में कोई कमी न हुई। उसकी कुशाग्र बुद्धि, वाक्‌पटुता एवं व्यंगप्रियता ने लोगों को उससे रुष्ट कर दिया था। यद्यपि उसकी असामयिक मृत्यु के कारण उसकी प्रतिभा का पूर्ण विकास न हो सका, तथापि कवि के रूप में उसने अपने जीवनकाल में ही ईरान तथा भारतवर्ष दोनों में लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी। उसकी अधिक प्रसिद्धि का कारण उसके कसीदे थे जिनकी जोरदार भाषा, नवीन तथा मौलिक वाक्यांशों की रचना, प्रकरणों की क्रमबद्धता तथा नए अलंकारों एवं नवीन उपमाओं ने उसे एक नई रचनाशैली का आविष्कारक बना दिया। उर्फ़ी की गजलों को अधिक प्रसिद्धि न प्राप्त हो सकी किंतु उसको अपनी गजलों पर ही गर्व था। गजलों में दार्शनिक विचारों तथा उच्च आदर्शो की काव्यमय अभिव्यक्ति उसकी रचना की मुख्य विशेषता है। उसके स्वतंत्र भावप्रकाशन तथा उसकी धार्मिक उदारता ने उसकी गजलों को बड़ा रोचक बना दिया है।

उसकी रचनाएँ सर्वप्रथम 1587-88 ई. संकलित हुईं। इस संकलन में 26 कसीदे, 270 गजलें एवं 320 शेरों के क़ितआत तथा 380 शेरों की रुबाइयाँ थीं। उसने कुछ मसनवियों तथा सूफी मत के आत्मासंबंधी सिद्धांतों की व्याख्या करते हुए 'नफ़सिया' नामक गद्य की एक पुस्तक की भी रचना की थी।

संदर्भ ग्रंथ[संपादित करें]

फारसी[संपादित करें]

  • अबुल फ़ज़ल : आईने अकबरी, भाग1 (कलकता, 1873 ई.);
  • अकबरनामा, भाग 3 (कलकत्ता, 1886 ई.);
  • अब्दुल बाक़ी निहावंदी : मआसिरे रहीमी, भाग3 (कलकत्ता,1927 ई.);
  • अलाउद्दौला क़ज़वीनी : नफ़ायसुल मआसिर, रज़ा पुस्तकालय, (रामपुर, हस्तलिपि);
  • बदायूनी, अब्दुल क़ादिर : मुनतख़बुत्तवारीख़ भाग 2 3 (कलकत्ता, 1869 ई.);
  • फ़ैज़ी, शेख़ अबुल,-लताइफे फ़ैज़ी (लखनऊ विश्वविद्यालय, हस्तलिपि);
  • औहदी, तक़ी : अरफ़ात (खुदाबख्श़ लाइब्रेरी, पटना);

उर्दू[संपादित करें]

  • शिबली नोमानी : शेरुल अज़म (आजमगढ़, 1945 ई.);

अंग्रेजी[संपादित करें]

  • मुहम्मद अब्दुल ग़नी : ए हिस्ट्री ऑव पर्शियन लैंग्वेज ऐंड लिटरेचर ऐट द मुग़्ला कोर्ट (भाग 3, इलाहाबाद, 1930 ई.)।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]