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सारांश[संपादित करें]

मेरी पुस्तक समीक्षाएँ

चौदह फेरे- शिवानी जी

चौदह फेरे शिवानी जी का लिखा हुआ 240 पन्नों का एक बहुत ही सुंदर उपन्यास है, साठ के दशक में यह उपन्यास किस्तवर 'धर्मयुग' में छप भी चुका है और उस समय यह बड़ा ही चर्चा का विषय था।

मैं अंतिम पन्ने को पढने के बाद एक फिर से पहले पन्ने की तलाश में हूँ कि कहानी कहाँ से आरम्भ हुई थी?

कहानी प्रारम्भ होती है कलकत्ते के एक भव्य प्रासाद से जिसकी गृहस्वामिनी तमाम ऐशो आराम, वैभव, नौकर-

चाकर, अपने पति कर्नल और अपनी छोटी सी बेटी अहल्या को स्वेच्छा से छोड़कर वैराग्य ले लिया है।वैराग्य, बात सिर्फ वैराग्य की नहीं है, प्रश्न है जिस प्रासाद का कोना कोना विलासिता में डूबा हो उसकी गृहस्वामिनी वैराग्य क्यों???वैराग्य उसे छू भी कैसे सकता है और वैराग्य का वरण भी कैसे कर सकती है??

नन्दी के पति कर्नल फ़ौज के किसी ओहदे पर नहीं हैं, उनका नाम कर्नल उनकी देह के गठन पर है, कर्नल एक प्रतिष्ठित कुमाऊंनी व्यापारी हैं और जिस समय उनके पिता ने उन्हें परिणय सूत्र में बांधा था तब कुमाऊं में कन्या का रूपरंग नहीं कुल और गोत्र देखा जाता था।

कुल और गोत्र एक लक्ष्मण रेखा थी, जिसके उस पार जाना मतलब जात बिरादरी से बहिष्कृत हो जाना था, सो कर्नल साहब का विवाह ऐसे ही हो गया।

देश विदेश में घूमकर आये हुए कर्नल को नंदी बिल्कुल नहीं भाती है, तिसपर बहु को साथ ले जाने की धृष्टता तब कुमाऊं का तरुण कर ही नहीं सकता था। प्रणय निवेदन की सार्थकता माँ बाप की सेवा में ज्यादा है, सो नंदी गांव में ही रह गई।

गांव में रहते हुए ही उसने एक सुंदर पुत्री को जन्म दिया।जब पहली बार तार से पुत्री के जन्म के समाचार मिला कर्नल घर नहीं गया।नन्दी के सास ससुर की मृत्यु के पश्चात अपने पति के ईच्छा से वो अपने मायके भेज दी गई।पहले पहल तो उसकी खूब सेवा जतन हुई फिर जब उसकी भाभी को यह लगा वो अब यहाँ से नहीं जानेवाली तब स्थिति बिगड़ती चली गई। सो एक दिन क्या हुआ तमाम विचार विमर्शों के बाद वह चली कलकत्ता कर्नल के पास अपनी बेटी अहल्या को लेकर।

नंदी को जाने के बाद लगा उसके पति कर्नल का जीवन किसी ऐसे अभाव में नहीं है जो उसे अपने साथ नहीं रख सकता....हालांकि उसे यह समझने में वक्त लग की जो दूरियां कर्नल ने वर्षों में बना ली है, अब वो एक खाई है उसे अब एक छत के नीचे रहकर भी पाटा नहीं जा सकता।

पर स्त्री मन इतनी सहजता से हार कहाँ स्वीकार करता है, अपने देहाती रहन सहन के बावजूद पार्टियों में अपनी सखी के कपड़े पहनकर और सज धजकर जब नंदी उपस्थित होती है तब एक अलग तिलस्मी दुनिया से उसका परिचय होता है। गाँव देहात से बिल्कुल अलग दुनिया..।जिस दुनिया में केवल पति पत्नी उनकी बेटी और कर्नल साहब का व्यापार नहीं है, उस दुनिया में इसके अलावा हैं 'मिस मल्लिका' और कर्नल, एक दूसरे के प्रति उनका अपार आकर्षण, तब नंदी को लगता है उसका जीवन बहुत निर्रथक है।पत्नी को न पसन्द करने के बावजूद बेटी से कर्नल को लगाव है, वो उसका दाखिला एक बोर्डिंग स्कूल में करवा देते हैं और उसका रहन सहन अब देहाती न होकर बहुत बदल गया है। महंगे खिलौने, महँगे सेंट, महंगे शौक... बेटी इसी सब में गुम होकर रह जाती है और माँ अपने जीवन से विरक्त होकर संन्यास ले लेती है।अहल्या को माँ की कमी अब मल्लिका पूरा करती है।

पिछले साल मैंने एक कविता लिखी थी

"...प्रेम कोई चाक पर पड़ा हुआ मिट्टी का लोथड़ा नहीं,

जिसे अपने हिसाब से घुमाया और आकार दे दिया,

मन जैसा बनने में मन को वक्त लगता है,

प्रेम में मन जैसा न बन पाने का उत्तर अवहेलना नहीं होता,

अवहेलना से कुछ चीज़ें मर सी जाती हैं,

फिर वो प्रेम वाला भाव जन्म नहीं लेता।"

यहां तक कि कहानी को मैं अपनी कविता के करीब पाती हूँ।

गाँव देहात से आई स्त्री नाम कमाने के लिए अपने कुल गोत्र में व्याह हुआ है बस उसकी आवश्यकता यहीं तक है कर्नल के जीवन में?

उसके बाद का क्या, उस स्त्री के जीवन का क्या, उसके सपनों का क्या, उसकी भावनाओं का क्या??सोचती हूँ, रोज उसने अपने पंखों को कितना काटा होगा, अपनी उड़ान को कितना रोकने की कोशिश की होगी....कितना छटपटाई होगी तब उसने लिखा होगा एक खत अपनी पति कर्नल के नाम "मैं सन्यास ले रही हूं."

कर्नल का मल्लिका के प्रति आकर्षण...यह जानते हुए दोनों शादीशुदा हैं और कितने भी हाई प्रोफाइल जीवन जीते हुए इस रिश्ते को वो कोई नाम नहीं दे सकते.....!

आकर्षण और प्रेम दोनों अलग अलग चीजें हैं, प्रेम का आविर्भाव आकर्षण से अवश्य होता है पर आकर्षण किसी ऐसे व्यक्ति के प्रति जो समाज में उसे स्वीकार नहीं सकता मल्लिका और कर्नल के बीच ऐसा ही आकर्षण है।....दोनों ताउम्र उस सुख दुःख का साथी नहीं हो सकते।

दूसरी तरफ नंदी उसे प्रेम है अपने पति से पर अपना स्वाभिमान भी तो है??कितने वर्षों तक रखे वो अपने को वहम में, उसे अपने अहं की रक्षा भी तो करनी है।

जो प्रेम केवल देह से आरम्भ होता है, उसको कितना भी तराशने की कोशिश की जाए एक समय के बाद उसकी चमक फीकी पड़ती जाती है, इन फैक्ट फीकी नहीं पड़ती वो एक ब्लैक हॉल क्रिएट करती है, रिश्ते उसमें डूबते हैं और समझ नहीं आता कहाँ गायब हो गए और विडम्बना ये है वो अकेले नहीं डूबते कइयों को ले डूबते हैं और कभी कभी उम्र भर का इकट्ठा किया हुआ नाम, गांव, दौलत शोहरत सब ले डूबता है....ऐसा ही होता है कर्नल के साथ भी।

एक बार कहीं पढा था "जब जब तोड़ी है नदियों ने अपनी मर्यादाएं शहर में बाढ़ आई है।"

और जब बाढ़ आती है तब अच्छा बुरा, सही गलत, महल अटारी कुछ नहीं देखती।

उसका फल पन्द्रह बीस साल बाद कैसा विभत्स होने वाला है कर्नल और मल्लिका उस समय वो सोच नहीं पाते और जब सोचने का यह सब समय मिलता है उस समय बस एक ही चीज़ उनके हाथ आती है पछतावा।

अहल्या बोर्डिंग से लौटने के बाद विदेशी मित्रों से घिरी रहती है, पिता को तब लगता है उसके विवाह योग्य पुत्री के लिए कुमाऊं का ही लड़का होना चाहिए। मल्लिका उस बात के खिलाफ है, खटर पटर बढ़ती जाती है और मल्लिका अचानक गायब हो जाती है।उपन्यास के अंतिम पन्नों में वो गम्भीर बीमारी से ग्रसित है और वह सारा श्रेय अपने कर्मो को देती है।

नाम कमाने के चक्कर मे कर्नल साहब अपनी बेटी का रिश्ता एक बहुत ही प्रतिष्ठित कुमाऊं परिवार में तय करते हैं और शादी के ऐन मौके पर वो घर से भाग जाती है.....!इसी बीच वो एक बार अपनी माँ से भी मिलने जाती है। क्यों भागती है, किसके लिए भागती है बस यही है यह उपन्यास।

अब देखिए, पूरे उपन्यास को एक पिता अपनी पत्नी को अलग कर देता है, कभी उसकी सुध नहीं लेता, पर अपनी बेटी को बड़े लाड़ प्यार, से पालता है। रहन सहन उसका अंग्रजों जैसा है, विदेशी कीमती तोहफे का ढेर लगा हुआ है। जिससे शादी करने के लिए अच्छे अच्छे पढ़े लिखे धनाढ्य लोग लाइनों में खड़े हों उसे प्रेम भी होता है तो साधारण से एक निश्छल पहाड़ी लड़के से।उसका जीवन खास हो, बहुत समाज मे नाम हो यही तो उसके पिता चाहते थे इसलिए उसे हर तरह से निम्न जीवन, निम्न वर्ग कर लोग सबसे दूर रखा। हर बार उसे यह एहसास दिलाया वो आम नहीं बहुत खास है।उस खास अहल्या ने अंत में अपने लिए वो चुना जिसकी किसी को आशा नहीं थी।....उपन्यास में एक ऐसा भी वक्त आता है जब कर्नल साहब मल्लिका को छोड़ देते हैं अपनी बेटी के लिए, उसके भविष्य के लिए......और एक दिन अहल्या सबकुछ छोड़कर अपने जीवनसाथी का वरण करती है।

"जीवन केवल संसाधन से नहीं चलता उसे चलाता है मन नाम का घोड़ा, कहाँ दौड़ाना है, कहाँ लगाम खींचनी है और कहाँ पकड़ ढीली करनी है यह हमें तय करना होता है।

बहुत ही सुंदर किताब है, आप भी अवश्य पढ़ें।

By-  प्रियंका प्रसाद

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वर्तमान05:57, 4 जनवरी 202405:57, 4 जनवरी 2024 के संस्करण का थंबनेल संस्करण402 × 707 (561 KB)Sanjayfreelancer (वार्ता | योगदान)मेरी पुस्तक समीक्षाएँ

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